अध्याय 5: जनजातियाँ, खानाबदोश और एक जगह बसे हुए समुदाय
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Toggleराज्यों के उत्थान और पतन के बीच ही कलाओं, दस्तकारियों और उत्पादक गतिविधियों की नयी किस्में शहरों और गाँवों में फल-फूल रही थीं। इस दौरान राजनैतिक, आर्थिक परिवर्तन हुए लेकिन सामाजिक परिवर्तन हर जगह एक समान नहीं थे।
➡ इस उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से में समाज, वर्णों में बँटा था। ब्राह्मणों द्वारा सुझाए गए नियम बड़े-बड़े राज्यों के राजाओं ने माना। इससे ऊँच और नीच तथा अमीर और गरीब के बीच का फ़ासला बढ़ा। दिल्ली के सुलतानों और मुग़लों के काल में श्रेणीबद्ध समाज ज़्यादा जटिल हो गया।
बड़े शहरों से परे 一 जनजातीय समाज
जिन समाजों ने ब्राह्मण द्वारा सुझाए गए सामाजिक नियमों और कर्मकांडों को नहीं माना और न ही वर्गों में बँटे। उन्हें जनजातियाँ कहा जाता है।
- प्रत्येक जनजाति के सदस्य नातेदारी के बंधन से जुड़े होते थे। कई जनजातियाँ लोग खेती करते, कुछ शिकारी, संग्राहक या पशुपालक थे और कुछ खानाबदोश थे।
- जनजातीय समूह, संयुक्त रूप से भूमि और चरागाहों पर नियंत्रण रखते थे और अपने खुद के बनाए नियमों के आधार पर परिवारों के बीच इनका बँटवारा करते थे।
- ये जंगलों, पहाड़ों, रेगिस्तानों और दूसरी दुर्गम जगहों पर निवास करते थे। कभी-कभी जाति विभाजन पर आधारित समाजों के साथ उनका टकराव होता था।
- इन्होंने अपनी आज़ादी को बरकरार रखा और अपनी संस्कृति को बचाया। लेकिन दोनों ही समाज अपनी विविध किस्म की ज़रूरतों के लिए एक-दूसरे पर निर्भर भी रहे। इस तरह दोनों समाजों में धीरे-धीरे बदलाव भी आया।
जनजातीय लोग कौन थे?
जनजातीय लोगों का कोई लिखित दस्तावेज़ नहीं है। लेकिन समृद्ध रीति-रिवाजों और वाचिक/मौखिक परंपराओं का वे संरक्षण करते थे। आज के इतिहासकार जनजातियों का इतिहास लिखने के लिए इन वाचिक परंपराओं का इस्तेमाल करने लगे हैं।
- 13वीं और 14वीं सदी के दौरान पंजाब में खोखर जनजाति बहुत प्रभावशाली थी। यहाँ बाद में गक्खर लोग महत्वपूर्ण हो गए। उनके मुखिया, कमाल खान को गक्खर को अकबर ने मनसबदार बनाया था।
- मुल्तान और सिंध में मुग़लों द्वारा अधीन कर लिए जाने से पहले लंगाह और अरघुन लोगों का प्रभुत्व बहुत बड़े क्षेत्र पर था।
- उत्तर-पश्चिम में बलोच एक शक्तिशाली जनजाति थी। ये लोग अलग-अलग मुखियों वाले कई छोटे-छोटे कुलों में बँटे हुए थे।
- पश्चिमी हिमालय में गड्डी गड़रियों की जनजाति और उत्तर-पूर्वी भाग पर नागा, अहोम और कई दूसरी जनजातियों का प्रभुत्व था।
➡ 12वीं सदी तक बिहार और झारखंड के कई इलाकों में चेर सरदारशाहियों का उदय हो चुका था। इस क्षेत्र में मुंडा और संथाल जनजातियाँ थी, ये उड़ीसा और बंगाल में भी रहते थे।
- अकबर के सेनापति राजा मान सिंह ने 1591 में चेर लोगों पर हमला कर उन्हें हराया। उन्हें लूट कर अच्छा-खासा माल इकट्ठा किया, लेकिन वे पूरी तरह अधीन नहीं बनाए गए।
- औरंगज़ेब के समय में मुग़ल सेनाओं ने चेर लोगों के कई किलों पर कब्ज़ा किया और इस जनजाति को अपना अधीनस्थ बना लिया।
➡ कर्नाटक और महाराष्ट्र की पहाड़ियों में कोली (गुजरात में भी), बेराद और कई दूसरी जनजातियों का निवास था। दक्षिण में कोरागा, वेतर, मारवार और दूसरी जनजातियों की विशाल आबादी थी।
➡ पश्चिमी और मध्य भारत में भीलों की जनजाति फैली थी। 16वीं सदी का अंत आते-आते उनमें से कई खेतिहर और ज़मींदार बन चुके थे। तब भी भीलों के कई कुल शिकारी-संग्राहक बने रहे। गोंड लोग छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में फैले हुए थे।
खानाबदोश और घुमंतू लोग कैसे रहते थे?
खानाबदोश चरवाहे अपने जानवरों के साथ दूर-दूर तक घूमते थे। उनका जीवन दूध और अन्य पशुचारी उत्पादों पर निर्भर था। वे खेतिहर गृहस्थों से अनाज, कपड़े, बर्तन जैसी चीजों लिए ऊन, घी आदि का विनिमय करते थे।
कुछ खानाबदोश अपने जानवरों पर सामानों की ढुलाई का काम और एक जगह से दूसरी जगह आते-जाते वे सामानों की खरीद-फ़रोख्त भी करते थे।
सबसे महत्वपूर्ण व्यापारी-खानाबदोश बंजारा लोग थे। उनके कारवाँ को “टांडा” कहते थे।
- अलाउद्दीन ख़लजी बंजारों से नगर के बाज़ारों तक अनाज की ढुलाई करवाते थे।
- बादशाह जहाँगीर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि बंजारे विभिन्न इलाकों से अपने बैलों पर अनाज ले जाकर शहरों में बेचते थे।
- सैन्य अभियानों के दौरान वे मुग़ल सेना के लिए खाद्यान्नों की ढुलाई का काम करते थे।
➡ कई पशुचारी जनजातियाँ मवेशी और घोड़ों, जैसे जानवरों को पालने-पोसने और संपन्न लोगों के हाथ उन्हें बेचने का काम करती थीं। फेरीवालों की विभिन्न जातियाँ रस्सी, सरकंडे की चीज़ें, फूस की चटाई और मोटे बोर जैसे सामान लेकर एक गाँव से दूसरे गाँव बेचने के लिए घूमते थे।
कभी-कभी भिक्षुक लोग भी घूमंतू सौदागरों का काम करते थे। नर्तकों, गायकों और अन्य तमाशबीनों की जातियाँ विभिन्न नगरों और गाँव में कमाई के लिए अपनी कला का प्रदर्शन करती थीं।
बदलता समाज 一 नयी जातियाँ और श्रेणियाँ
जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था और समाज की ज़रूरतें बढ़ती गईं, नए हुनर वाले लोग बढ़े, वर्णों के भीतर छोटी-छोटी जातियाँ उभरने लगी।
- कई जनजातियों और सामाजिक समूहों को जाति-विभाजित समाज में शामिल कर उन्हें जातियों का दर्जा दे दिया गया।
- शिल्पियों一 सुनार, लोहार, बढ़ई और राजमिस्त्री को भी ब्राह्मणों द्वारा जातियों के रूप में मान्यता दे दी गई।
➡ 11वीं और 12वीं सदी तक आते-आते क्षत्रियों के बीच नए राजपूत गोत्रों (हूण, चंदेल,चालुक्य वंश-परंपराओं से) की ताकत में काफ़ी इजाफ़ा हुआ। इनमें से कुछ पहले जनजातियों में आते थे और बाद में कई कुल राजपूत मान लिए गए। उन्होंने पुराने शासकों की जगह ले ली। शासकों ने शक्तिशाली राज्यों के निर्माण में अपनी संपदा का इस्तेमाल किया।
➡ ब्राह्मणों के समर्थन से कई जनजातियाँ, जाति व्यवस्था का हिस्सा बन गईं। लेकिन केवल प्रमुख जनजातीय परिवार ही शासक वर्ग में शामिल हो पाए। उनकी बहुसंख्यक आबादी, समाज की छोटी जातियों में ही जगह बना पाई।
दूसरी तरफ़ पंजाब, सिंध और उत्तर-पश्चिमी सरहद की प्रभुत्वशाली जनजातियों ने काफ़ी पहले इस्लाम को अपना लिया था। वे जाति व्यवस्था को नहीं मानते थे।
नज़दीक से एक नज़र
गोंड
- राज्य, गढ़ों में विभाजित थे। हर गढ़ किसी खास गोंड कुल के नियंत्रण में था।
- यह चौरासी गाँवों की इकाइयों में विभाजित थे, जिन्हें चौरासी कहा जाता था।
- चौरासी का उप-विभाजन बरहोतों में होता था, जो बारह-बारह गाँवों को मिला कर बनते थे।
- ब्राह्मण लोग गोंड राजाओं से अनुदान में भूमि प्राप्त करके और अधिक प्रभावशाली बन गए।
- अब गोंड सरदारों को राजपूतों के रूप में मान्यता प्राप्त करने की चाहत होने लगी।
- इसलिए गढ़ कटंगा के गोंड राजा अमन दास ने संग्राम शाह की उपाधि धारण की।
- उसके पुत्र दलपत ने महोबा के चंदेल राजपूत राजा सालबाहन की पुत्री राजकुमारी दुर्गावती से विवाह किया।
- दलपत की मृत्यु हो जाने के कारण रानी दुर्गावती ने अपने 5 साल के पुत्र बीर नारायण के नाम पर शासन की कमान सँभाली और राज्य का विस्तार किया।
- गढ़ कटंगा एक समृद्ध राज्य था। इसने हाथियों को पकड़ने और दूसरे राज्यों में उनका निर्यात करने के व्यापार में ख़ासा धन कमाया।
- मुग़लों को गोंडों को हराने के बाद लूट में बेशकीमती सिक्के और हाथी बहुतायत में मिले। उन्होंने राज्य का एक भाग अपने कब्ज़े में ले लिया और शेष बीर नारायण के चाचा चंदर शाह को दे दिया।
- गढ़ कटंगा के पतन के बावज़ूद गोंड राज्य कुछ समय तक चलता रहा। बाद में अधिक शक्तिशाली बुंदेलों और मराठों के खिलाफ़ संघर्ष में असफल हो गए।
अहोम
- अहोम राज्य में जनगणना करने के बाद प्रत्येक गाँव को अपनी बारी आने पर निश्चित संख्या में पाइक भेजने होते थे।
- सघन आबादी वाले इलाकों से कम आबादी वाले इलाकों में लोगों को स्थानांतरित किया जाता था।
- इस प्रकार अहोम कुल टूट गए। 17वीं सदी का पूर्वार्द्ध पूरा होते-होते प्रशासन केंद्रीकृत हो चुका था।
- अहोम समाज, कुलों (खेल) में विभाजित था। वहाँ दस्तकारों की बहुत कम जातियाँ थी। इसलिए अहोम क्षेत्र में दस्तकार निकटवर्ती क्षेत्रों से आए थे।
- एक खेल के नियंत्रण में कई गाँव होते थे। किसान को अपने ग्राम समुदाय के द्वारा ज़मीन दी जाती थी। समुदाय की सहमति के बगैर राजा तक इसे वापस नहीं ले सकता था।
- अहोम समाज, एक अत्यंत परिष्कृत समाज था।
- कवियों और विद्वानों को अनुदान में ज़मीन दी जाती थी।
- नाट्य-कर्म को प्रोत्साहन दिया जाता था।
- संस्कृत की महत्वपूर्ण कृतियों का स्थानीय भाषा में अनुवाद किया गया था।
- बुरंजी नामक ऐतिहासिक कृतियों को पहले अहोम भाषा में और फिर असमिया में लिखा गया था।
निष्कर्ष
➡इस कारण वे बृहत्तर और अधिक जटिल राज्यों और साम्राज्यों के साथ संघर्ष की स्थिति में आ गए।
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अध्याय-1 : प्रारंभिक कथन: हजार वर्षों के दौरान हुए परिवर्तनों की पड़ताल
अध्याय-2 : राजा और उनके राज्य
अध्याय-3 : दिल्ली: बारहवीं से पंद्रहवीं शताब्दी
अध्याय-4 : मुग़ल: सोलहवीं से सत्रहवीं शताब्दी
अध्याय-6 : ईश्वर से अनुराग
अध्याय-7: क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
अध्याय-8: अठारहवीं शताब्दी में नए राजनीतिक गठन
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