विषय छ: भक्ति-सूफ़ी परंपराएँ (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ—लगभग 8वीं से 18वीं सदी तक)
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Toggleधार्मिक विश्वासों और आचरणों की गंगा-जमुनी बनावट
इस काल की सबसे प्रभावी विशेषता साहित्य और मूर्तिकला में अनेक तरह के देवी-देवता का दिखना। विष्णु, शिव और देवी, जिन्हें अनेक रूपों में व्यक्त किया गया था, की आराधना चलने के साथ अधिक विस्तृत हुई।
पूजा प्रणालियों का समन्वय
कुछ इतिहासकारों ने सुझाव दिया कि यहाँ पूजा प्रणालियों की दो प्रक्रियाएँ कार्यरत थीं।
1. ब्राह्मणीय विचारधारा का प्रसार पौराणिक ग्रंथों की रचना, संकलन और परिरक्षण द्वारा हुआ। ये ग्रंथ सरल संस्कृत छंदों में थे जो वैदिक विद्या से विहीन स्त्रियों और शूद्रों द्वारा भी समझे गए थे।
2. स्त्री, शूद्रों व अन्य सामाजिक वर्गों के आस्थाओं और आचरणों को ब्राह्मणों द्वारा स्वीकृत किया जाना और उसे एक नया रूप प्रदान करना।
अतः समाजशास्त्रियों का मानना है कि समूचे उपमहाद्वीप में अनेक धार्मिक विचारधाराएँ और पद्धतियाँ “महान” संस्कृत-पौराणिक परिपाटी तथा “लघु” परंपरा के बीच हुए अविरल संवाद का परिणाम है।
➡ उदाहरण: पुरी (उड़ीसा) में मुख्य देवता जगन्नाथ को 12वीं सदी तक आते-आते विष्णु के एक स्वरूप के रूप में प्रस्तुत किया गया।
- इस स्थानीय देवता की प्रतिमा को पहले और आज भी लकड़ी से स्थानीय जनजाति के विशेषज्ञों द्वारा बनाया जाता है।
➡ देवी की उपासना अधिकतर सिंदूर से पोते गए पत्थर के रूप में की जाती थी। इन स्थानीय देवियों को पौराणिक परंपरा के अंदर मुख्य देवताओं की पत्नी के रूप में (लक्ष्मी, विष्णु की पत्नी और पार्वती, शिव की पत्नी) मान्यता दी गई।
भेद और संघर्ष
देवी की आराधना पद्धति को तांत्रिक नाम से जाना जाता है। तांत्रिक पूजा पद्धति (स्त्री और पुरुष) उपमहाद्वीप के कई भागों में प्रचलित थी। इसके अतिरिक्त कर्मकांडीय संदर्भ में वर्ग और वर्ण के भेद की अवहेलना की जाती थी।
- इस पद्धति के विचारों ने उपमहाद्वीप के पूर्वी, उत्तरी और दक्षिणी भागों में शैव और बौद्ध दर्शन को भी प्रभावित किया।
- वैदिक अग्नि, इंद्र और सोम जैसे देवता पूरी तरह गौण हो गए और साहित्य व मूर्तिकला में उनका निरूपण नहीं दिखता। जबकि वैदिक मंत्रों में विष्णु, शिव और देवी की झलक मिलती है।
- वैदिक परिपाटी के प्रशंसक, ईश्वर की उपासना के लिए मंत्रों के उच्चारण के साथ यज्ञों के संपादन से परे सभी आचारों की निंदा करते थे।
- तांत्रिक आराधना वाले लोग वैदिक सत्ता की अवहेलना करते थे।
- भक्त अपने इष्टदेव विष्णु या शिव को भी कई बार सर्वोच्च प्रक्षेपित करते थे।
- बौद्ध तथा जैन धर्म से भी संबंध अकसर तनावपूर्ण हो जाते थे।
इस समय भक्ति प्रदर्शन में, मंदिरों में इष्टदेव की आराधना से लेकर उपासकों का प्रेमभाव में तल्लीन हो जाना दिखाई पड़ता है। भक्ति रचनाओं का उच्चारण तथा गाया जाना इस उपासना पद्धति के अंश थे।
उपासना की कविताएँ (प्रारंभिक भक्ति परंपरा)
आराधना के तरीकों के विकास के दौरान बहुत बार संत कवि नेता के रूप में उभरे जिनके आस-पास भक्तजनों के पूरे समुदाय का गठन हो गया।
- बहुत सी भक्त परंपराओं में ब्राह्मण, देवताओं और भक्तजन के बीच महत्वपूर्ण बिचौलिए बने रहे, इनमें स्त्रियों और निम्न वर्गों को भी स्थान दिया गया।
धर्म के इतिहासकार भक्ति परंपरा को दो मुख्य वर्गों में बाँटते है:—
- सगुण शिव, विष्णु तथा उनके अवतार व देवियों की आराधना मूर्त रूप में हुई।
- निर्गुण अमूर्त, निराकार ईश्वर की उपासना की जाती थी।
तमिलनाडु के अलवार और नयनार संत
प्रारंभिक भक्ति आंदोलन (लगभग छठी सदी) अलवारों (विष्णु भक्त) और नयनारों (शिवभक्त) के नेतृत्व में हुआ।
- वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए तमिल में अपने ईष्ट की स्तुति में भजन गाते थे।
- अपनी यात्राओं के दौरान इन संतों ने कुछ पावन स्थलों को अपने ईष्ट का निवासस्थल घोषित किया।
- इन्हीं स्थलों पर बाद में विशाल मंदिरों का निर्माण हुआ और वे तीर्थस्थल माने गए।
- संत-कवियों के भजनों को इन मंदिरों में अनुष्ठानों के समय गया जाता था और इन संतों की प्रतिमा की भी पूजा की जाती थी।
जाति के प्रति दृष्टिकोण
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अलवार और नयनार संतों ने जाति प्रथा व ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोध में आवाज़ उठाई।
- क्योंकि वे ब्राह्मण, शिल्पकार, किसान और अस्पृश्य जातियों से आए थे।
- इन संतों की रचनाओं को वेद जितना महत्वपूर्ण बताकर इस परंपरा को सम्मानित किया गया।
- उदाहरण: अलवार संतों के मुख्य काव्य नलयिरादिव्यप्रबंधम का वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता था।
स्त्री भक्त
- अंडाल (अलवार स्त्री) के भक्ति गीत व्यापक स्तर पर गाए जाते थे। वह स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानकर अपनी प्रेमभावना को छंदों में व्यक्त करती थीं।
- करइक्काल अम्मइयार (शिवभक्त) ने अपने उद्देश्य प्राप्ति हेतु घोर तपस्या का मार्ग अपनाया। नयनार परंपरा में उसकी रचनाओं को सुरक्षित किया गया।
- इन स्त्रियों ने अपने सामाजिक कर्तव्यों का परित्याग किया। इनकी जीवन पद्धति और रचनाओं ने पितृसत्तात्मक आदर्शों को चुनौती दी।
राज्य के साथ संबंध
तमिल भक्ति रचनाओं में बौद्ध और जैन धर्म का विरोध (विशेषकर नयनार संतों की रचनाओं में) मिलता है। शक्तिशाली चोल (9वीं से 13वीं सदी) सम्राटों ने ब्राह्मणीय और भक्ति परंपरा को समर्थन दिया तथा विष्णु और शिव के मंदिरों के निर्माण के लिए भूमि अनुदान दिए।
- चिदंबरम, तंजावुर और गंगैकोंडचोलपुरम के विशाल शिव मंदिर चोल सम्राटों की मदद से ही निर्मित हुए।
- इसी काल में कांस्य में ढाली गई शिव की प्रतिमाओं का भी निर्माण हुआ।
- नयनार और अलवार संत वेल्लाल कृषकों द्वारा सम्मानित होते थे इसलिए शासकों ने भी उनका समर्थन पाने का प्रयास किया।
- उदाहरण: चोल सम्राटों ने दैवीय समर्थन पाने का दावा किया और अपनी सत्ता के प्रदर्शन में सुंदर मंदिरों का निर्माण कराया। जिनमें पत्थर और धातु से बनी मूर्तियाँ सुसज्जित थीं।
- इन सम्राटों ने तमिल भाषा के शैव भजनों का गायन इन मंदिरों में प्रचलित किया।
945 ई. के एक अभिलेख से पता चलता है कि चोल सम्राट परांतक प्रथम ने संत कवि अप्पार संबंदर और सुंदरार की धातु प्रतिमाएँ एक शिव मंदिर में स्थापित करवाईं। इन मूर्तियों को उत्सव में एक जुलूस में निकाला जाता था।
कर्नाटक की वीरशैव परंपरा
12वीं सदी में कर्नाटक में वीरशैव परंपरा की शुरुआत बसवन्ना (1106-68) (ब्राह्मण) ने किया, जो कलाचुरी राजा के दरबार में मंत्री था।
- इसके अनुयायी वीरशैव (शिव के वीर) व लिंगायत (लिंग धारण करने वाले) कहलाए। वे शिव की आराधना लिंग के रूप में करते थे।
- इस समुदाय के पुरुष वाम स्कंध पर चाँदी के एक पिटारे में एक लघु लिंग को धारण करते हैं जिन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है उसमें जंगम (यायावर भिक्षु) शामिल हैं।
- उनका विश्वास है कि मृत्यु के बाद भक्त शिव में लीन हो जाएँगे तथा इस संसार में पुन: नहीं लौटेंगे।
- धर्मशास्त्र में बताए गए श्राद्ध संस्कार की जगह अपने मृतकों को दफनाते हैं।
उन्होंने जाति की अवधारणा तथा कुछ समुदायों के दूषित होने की ब्राह्मणीय अवधारणा का विरोध, पुनर्जन्म के सिद्धांत पर प्रश्नवाचक चिह्न लगाया और वयस्क विवाह तथा विधवा पुनर्विवाह को मान्यता दी है।
उत्तरी भारत में धार्मिक उफ़ान
इतिहासकारों का मत है कि भारत में इस काल में अनेक राजपूत राज्यों का उदय हुआ। इन सभी राज्य में ब्राह्मणों का महत्वपूर्ण स्थान था जो ऐहिक तथा आनुष्ठानिक कार्य करते थे।
- इसी समय नाथ, योगी और सिद्ध धार्मिक नेताओं के प्रभाव का विस्तार हो रहा था।
- उनमें से बहुत से लोग शिल्पी समुदाय के थे जिनमें जुलाहे शामिल थे।
- नगरीय केंद्रों के विस्तार तथा मध्य व पश्चिमी एशिया के साथ व्यापार के प्रसार के साथ ही इन दस्तकारी की वस्तुओं की माँग बढ़ी।
- इन धार्मिक नेताओं ने वेदों की सत्ता को चुनौती देकर अपने विचार आम लोगों की भाषा में सामने रखे।
लोकप्रियता के बावजूद नवीन धार्मिक नेता विशिष्ट शासक वर्ग का प्रश्रय हासिल नहीं कर पाए क्योंकि इस समय सल्तनत की स्थापना से राजपूत राज्यों का और उनसे जुड़े ब्राह्मणों का पराभव हुआ। इन परिवर्तनों का प्रभाव संस्कृति तथा धर्म पर भी पड़ा और सूफियों का आगमन हुआ।
दुशाले के नए ताने-बाने : इस्लामी परंपराएँ
प्रथम सहस्त्राब्दी ई. में अरब व्यापारी समुद्र के रास्ते पश्चिमी भारत के बंदरगाहों तक आए और मध्य एशिया से लोग देश के उत्तर-पश्चिम प्रांतों में आकर बस गए। 7वीं सदी में इस्लाम के उदभव के बाद ये क्षेत्र इस्लामी विश्व का हिस्सा बन गए।
शासकों और शासितों के धार्मिक विश्वास
बहुत से क्षेत्रों में इस्लाम शासकों का स्वीकृत धर्म था। जैसे:—
- 711 ई. में मुहम्मद बिन कासिम (एक अरब सेनापति) ने सिंध को विजित कर उसे खलीफ़ा के क्षेत्र में शामिल कर लिया।
- 13वीं सदी ई. में तुर्क और अफगानों ने दिल्ली सल्तनत की नींव रखी।
- समय के साथ दक्कन और अन्य भागों में भी सल्तनत की सीमा का प्रसार हुआ।
- 16वीं सदी में मुगल और 18वीं सदी में कई क्षेत्रीय राज्यों के शासक भी इस्लाम धर्म को मानने वाले थे।
शरिया
शरिया मुसलमान समुदाय को निर्देशित करने वाला कानून, कुरान शरीफ़ और हदीस पर आधारित है। हदीस का अर्थ है पैगंबर साहब से जुड़ी परंपराएँ जिनके अंतर्गत उनके स्मृत शब्द और क्रियाकलाप आते हैं।
- अरब क्षेत्र से बाहर (जहाँ के आचार-व्यवहार भिन्न थे) इस्लाम का प्रसार होने पर क़ियास (सदृशता के आधार पर तर्क) और इजमा (समुदाय की सहमति) को भी कानून का स्रोत माना जाने लगा।
➡ मुसलमान शासकों को उलमा के मार्गदर्शन पर चलना होता था। उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वे शासन में शरिया का अमल सुनिश्चित करवाएँगे।
- किंतु उपमहाद्वीप अनेक धर्मों को मानने वाली थी। इन्हें ज़िम्मी (संरक्षित श्रेणी) कहते थे।
- इनमें यहूदी, ईसाई और हिन्दू शामिल थे जिन्हें मुसलमान शासकों को अपने संरक्षण के बदले जज़िया कर देना होता था।
- मुगल शासक अपने आप को मुसलमानों के साथ सारे समुदायों का बादशाह मानते थे।
बहुत से शासकों ने भूमि अनुदान व कर की छूट हिंदू, जैन, पारसी, ईसाई और यहूदी धर्मसंस्थाओं को दी तथा गैर-मुसलमान धार्मिक नेताओं के प्रति श्रद्धाभाव व्यक्त किया। ऐसे अनुदान अकबर और औरंगज़ेब जैसे बादशाहों द्वारा दिए गए थे।
लोक प्रचलन में इस्लाम
इस्लाम के आगमन के बाद शासक वर्ग के अलावा पूरे उपमहाद्वीप में दूरदराज़ तक और विभिन्न सामाजिक समुदायों किसान, शिल्पी, योद्धा, व्यापारी के बीच भी परिवर्तन हुए।
इस्लाम धर्म कबूल करने वालो ने सैद्धांतिक रूप से पाँच मुख्य बातें मानीं:—
- अल्लाह एकमात्र ईश्वर है, पैगंबर मोहम्मद उनके दूत (शाहद) है
- दिन में पाँच बार नमाज़ पढ़ी जानी चाहिए
- खैरात (ज़कात) बाँटनी चाहिए
- रमज़ान के महीने में रोज़ा रखना चाहिए
- हज के लिए मक्का जाना चाहिए
➡ किंतु इनमें अक्सर सांप्रदायिक (शिया, सुन्नी) तथा स्थानीय लोकचारों के प्रभाव की वजहों से धर्मांतरित लोगों के व्यवहारों में भिन्नता दिखती थी।
- उदाहरण: खोजा इस्माइली (शिया) समुदाय के लोगों ने कुरान के विचारों की अभिव्यक्ति के लिए देशी साहित्यिक विधा का सहारा लिया।
- जीनन नाम से भक्ति गीत, जो राग में निबद्ध थे, पंजाबी, मुल्तानी, सिंधी, कच्छी, हिंदी और गुजराती में दैनिक प्रार्थना के दौरान गाए जाते थे।
- अरब मुसलमान व्यापारी जो मालाबार तट (केरल) के किनारे बसे, उन्होंने स्थानीय मलयालम भाषा के साथ अचारों जैसे मातृकुलीयता और मातृगृहता को भी अपनाया।
➡ एक सार्वभौमिक धर्म के स्थानीय अचारों के संग जटिल मिश्रण का सर्वोत्तम उदाहरण मस्जिदों की स्थापत्य कला में दिखती है।
- सार्वभौमिक तत्व जैसे इमारत का मक्का की तरफ़ अनुस्थापन जो मेहराब और मिम्बर की स्थापना
- भिन्नता तत्व जैसे छत और निर्माण का सामान
समुदायों के नाम
8वीं से 14वीं सदी के मध्य संस्कृत ग्रंथों और अभिलेखों का अध्ययन करने वाले इतिहासकारों ने इस तथ्य को उजागर किया कि मुसलमान शब्द का शायद ही कहीं प्रयोग हुआ हो। इसके विपरीत लोगों का वर्गीकरण उनके जन्मस्थान के आधार पर किया जाता था।
- इस तरह तुर्की मुसलमान को तुरुष्क, तजाकिस्तान से आए लोगों को ताजिक और फारस के लोगों को पारसीक नाम से संबोधित किया गया।
- तुर्क और अफ़गानों को शक और यवन भी कहा गया।
- इनके लिए एक अधिक सामान्य शब्द म्लेच्छ था जिससे अंकित होता है कि वह वर्ण नियमों का पालन नहीं करते थे और ऐसी भाषाएँ बोलते थे जो संस्कृत से नहीं उपजी थीं।
सूफ़ीमत का विकास
इस्लाम के आरंभिक शताब्दियों में धार्मिक और राजनीतिक संस्था के रूप में खिलाफ़त की बढ़ती शक्ति के विरुद्ध कुछ आध्यात्मिक लोगों (सूफ़ी) का रहस्यवाद और वैराग्य की ओर झुकाव बढ़ा।
- इन लोगों ने रूढ़िवादी परिभाषाओं तथा धर्माचार्यों द्वारा की गई कुरान और सुन्ना की बौद्धिक व्याख्या की आलोचना की।
- मुक्ति की प्राप्ति के लिए ईश्वर की भक्ति और उनके आदेशों के पालन पर बल दिया।
- पैगंबर मोहम्मद को इंसान-ए-कामिल बताते हुए उनका अनुसरण करने की सीख दी।
- सूफ़ियों ने कुरान की व्याख्या अपने निजी अनुभवों के आधार पर की।
ख़ानक़ाह और सिलसिला
11वीं सदी तक सूफ़ीवाद एक पूर्ण विकसित आंदोलन था जिसका सूफ़ी और कुरान से जुड़ा अपना साहित्य था।
- वे अपने को एक संगठित समुदाय ख़ानक़ाह के इर्द-गिर्द स्थापित करते थे।
- जिसका नियंत्रण शेख, पीर अथवा मुर्शीद के हाथ में था।
- वे अनुयायियों (मुरीदों) की भर्ती करते और अपने वारिस (खलीफ़ा) की नियुक्ति करते थे।
- आध्यात्मिक व्यवहार के नियम बनाने के साथ वहाँ रहने वालों के बीच के संबंध और शेख व जनसामान्य के बीच के रिश्तों की सीमा नियत करते थे।
➡ 12वीं सदी के आसपास इस्लामी दुनिया में सूफ़ी सिलसिलों का गठन होने लगा। सिलसिला का अर्थ है जंज़ीर जो शेख और मुरीद के बीच एक निरंतर रिश्ते की द्योतक (संकेत) है, जिसकी पहली अटूट कड़ी पैगंबर मोहम्मद से जुड़ी है।
- इस कड़ी के द्वारा आध्यात्मिक शक्ति और आशीर्वाद मुरीदों तक पहुँचता था।
- दीक्षित को निष्ठा का वचन देना और सिर मुँड़ाकर थेगड़ी लगे वस्त्र धारण करने पड़ते थे।
- पीर की मृत्यु के बाद उनकी दरगाह उनके मुरीदों के लिए भक्ति का स्थल जहाँ वे ज़ियारत के लिए (बरसी के अवसर पर उर्स) जाते थे।
- क्योंकि लोगों का मानना था की मृत्यु के बाद पीर ईश्वर से पहले से ज़्यादा अधिक करीब हो जाते हैं।
लोग आध्यात्मिक और ऐहिक कामनाओं की पूर्ति के लिए उनका आशीर्वाद लेने जाते थे। इस तरह शेख का वली के रूप में आदर करने की परिपाटी शुरू हुई।
ख़ानक़ाह के बाहर
- कुछ रहस्यवादी ख़ानक़ाह का तिरस्कार करके फकीर की ज़िंदगी बिताते थे।
- निर्धनता और ब्रह्मचर्य को उन्होंने गौरव प्रदान किया।
- इन्हें कलंदर, मदारी, मलंग, हैदरी आदि नामों से जाना जाता था।
- शरिया की अवहेलना करने के कारण उन्हें बे-शरिया कहा जाता था।
- इस तरह उन्हें शरिया का पालन करने वाले (बा-शरिया) सूफ़ियों से अलग करके देखा जाता था।
उपमहाद्वीप में चिश्ती सिलसिला
12वीं सदी के अंत में भारत आने वाले सूफ़ी समुदायों में चिश्ती के अधिक प्रभावशाली होने का कारण यह था कि उन्होंने अपने आपको स्थानीय परिवेश में ढालने के साथ भारतीय भक्ति परंपरा की कई विशेषताओं को भी अपनाया था।
चिश्ती ख़ानक़ाह में जीवन
शेख निज़ामुद्दीन औलिया (14वीं सदी) की ख़ानक़ाह दिल्ली के यमुना नदी के किनारे ग़ियासपुर में है। यहाँ कई छोटे-छोटे कमरे और एक बड़ा हॉल (जमातख़ाना) था जहाँ सहवासी तथा अतिथि रहते, और उपासना करते थे।
- सहवासियों में शेख का अपना परिवार, सेवक और अनुयायी थे।
- शेख एक छोटे कमरे में छत पर रहते थे जहाँ मेहमानों से सुबह-शाम मिलते थे।
- आँगन एक गलियारे से और ख़ानक़ाह को चारों ओर दीवार से घिरा था।
- एक मंगोल आक्रमण के समय पड़ोसी क्षेत्र के लोगों ने यहीं शरण ली थी।
चिश्ती सिलसिला के मुख्य उपदेशक
सूफ़ी — मृत्यु का वर्ष — दरगाह का स्थान
- शेख मुइनुद्दीन चिश्ती — 1235 — अजमेर (राजस्थान)
- ख़्वाजा कुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी — 1235 — दिल्ली
- शेख फरीदुद्दीन गंज-ए-शकर — 1265 — अजोधन (पाकिस्तान)
- शेख निज़ामुद्दीन औलिया — 1325 — दिल्ली
- शेख नसीरुद्दीन चिराग-ए-देहली — 1356 — दिल्ली
➡ यहाँ एक सामुदायिक रसोई (लंगर) फुतूह (बिना माँगी खैर) पर चलती थी। सुबह से देर रात तक सिपाही, गुलाम, गायक, व्यापारी, कवि, राहगीर, धनी और निर्धन, हिंदू जोगी और कलंदर यहाँ अनुयायी बनने, इबादत करने, ताबीज़ लेने और विभिन्न मसलों पर शेख की मध्यस्थता के लिए आते थे।
- अमीर हसन सिजज़ी और अमीर खुसरो जैसे कवि तथा दरबारी इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी जैसे लोग भी शामिल थे। जिन्होंने शेख के बारे में लिखा।
- शेख के सामने झुकना, मिलने वालों को पानी पिलाना, दीक्षितों के सर का मुंडन तथा यौगिक व्यायाम आदि व्यवहार इस तथ्य के सूचक है कि स्थानीय परंपराओं को आत्मसात करने का प्रयत्न किया गया।
- शेख निज़ामुद्दीन ने कई आध्यात्मिक वारिसों का चुनाव कर उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में ख़ानक़ाह स्थापित करने के लिए नियुक्त किया। इस कारण चिश्तियों के उपदेश, व्यवहार और संस्थाएँ तथा शेख का यश चारों ओर फैल गया।
चिश्ती उपासना : ज़ियारत और कव्वाली
सूफ़ी संतों की दरगाह पर की गई ज़ियारत सारे इस्लामी संसार में प्रचलित है। इस अवसर पर संत के आध्यात्मिक आशीर्वाद (बरकत) की कामना की जाती है।
- ख़्वाजा मुइनुद्दीन की दरगाह का सबसे पहला किताबी ज़िक्र 14वीं सदी का है।
- यह दरगाह शेख की सदाचारिता और धर्मनिष्ठा तथा उनके आध्यात्मिक वारिसों की महानता और राजसी मेहमानों द्वारा दिए गए प्रश्रय के कारण लोकप्रिय थी।
- मुहम्मद बिन तुगलक पहला सुल्तान था जो इस दरगाह पर आया था।
- शेख की मज़ार पर सबसे पहली इमारत मालवा के सुल्तान गियासुद्दीन खलजी ने 15वीं सदी में बनवाई।
- इस दरगाह के दिल्ली और गुजरात के व्यापारिक मार्ग पर होने के कारण अनेक यात्री यहाँ आते थे।
- 16वीं सदी तक अजमेर की यह दरगाह बहुत ही लोकप्रिय हो गई थी।
- अकबर यहाँ 14 बार आया कभी तो साल में दो-तीन बार, कभी नयी जीत के लिए आशीर्वाद लेने अथवा संकल्प की पूर्ति पर या फिर पुत्रों के जन्म पर।
➡ प्रत्येक यात्रा पर बादशाह दान-भेंट दिया करते थे, जिनके ब्योरे शाही दस्तावेज़ों में दर्ज हैं। उदाहरण: 1568 में उन्होंने तीर्थयात्रियों के लिए खाना पकाने हेतु एक विशाल देग दरगाह को भेंट की और दरगाह के अहाते में एक मस्जिद भी बनवाई।
- नाच और संगीत भी ज़ियारत का हिस्सा थे। सूफ़ी संत ज़िक्र (ईश्वर का नाम-जाप) या फिर समा (आध्यात्मिक संगीत की महफिल) के द्वारा ईश्वर की उपासना में विश्वास रखते थे।
भाषा और संपर्क
सभा में स्थानीय भाषा को अपनाने के साथ दिल्ली में चिश्ती सिलसिले के लोग हिंदवी में बातचीत करते थे। बाबा फरीद द्वारा क्षेत्रीय भाषा में की गई काव्य रचना “गुरु ग्रंथ साहिब” में संकलित है।
- कुछ और सूफियों ने लंबी कविताएँ मसनवी लिखीं जहाँ ईश्वर के प्रति प्रेम को मानवीय प्रेम के रूप में अभिव्यक्त किया गया।
- उदाहरण: मलिक मोहम्मद जायसी का प्रेमाख्यान “पदमावत” पदमिनी और चित्तौड़ के राजा रतनसेन की प्रेम कथा।
- अक्सर ख़ानक़ाहों में समा के दौरान ऐसे काव्यों का वाचन होता था।
➡ बीजापुर कर्नाटक के आसपास दक्खनी (उर्दू का रूप) में लिखी छोटी कविताएँ थीं जो 17वीं-18वीं सदी में इस क्षेत्र में बसने वाले चिश्ती संतों द्वारा रची गई थीं।
- ये रचनाएँ औरतों द्वारा घर का काम जैसे चक्की पीसते और चरखा कातते हुए गाई जाती थीं।
- संभव है कि इस क्षेत्र के सूफी यहाँ के भक्ति परंपरा से प्रभावित हुए थे।
- लिंगायतों द्वारा लिखे गए कन्नड़ के वचन और पंढरपुर के संतों द्वारा लिखे मराठी के अभंगों ने भी उन पर अपना प्रभाव छोड़ा।
- इस माध्यम से इस्लाम दक्कन के गाँवों में जगह पाने में सफल हुआ।
सूफ़ी और राज्य
चिश्ती संप्रदाय की एक ख़ास विशेषता संयम व सादगी का जीवन, जिसमें सत्ता से दूर रहने पर बल दिया जाता था। किंतु सत्ताधारी विशिष्ठ वर्ग द्वारा बिना माँगे अनुदान या भेंट देने पर सूफी संत उसे स्वीकार करते थे।
- सुल्तानों ने ख़ानक़ाहों को कर मुक्त भूमि अनुदान में दी और दान संबंधी न्यास स्थापित किए।
- चिश्ती धन और सामान के रूप में मिले दान को सँजोने के बजाय खाने, कपड़े, रहने की व्यवस्था और अनुष्ठानों जैसे समा की महफिलों पर पूरी तरह खर्च कर देते थे।
➡ उनकी लोकप्रियता का कारण धर्मनिष्ठा, विद्वता और लोगों द्वारा उनकी चमत्कारी शक्ति में विश्वास था। इन वजहों से शासक भी उनका समर्थन हासिल करना चाहते थे।
- जैसे: तुर्कों द्वारा दिल्ली सल्तनत की स्थापना करने पर उलेमा द्वारा शरिया लागू किए जाने की माँग को ठुकरा दिया। क्योंकि वे जानते थे कि उनकी अधिकांश प्रजा इस्लाम धर्म मानने वाली नहीं है।
- ऐसे में सुल्तानों ने सूफ़ी संतों का सहारा लिया जो अपनी आध्यात्मिक सत्ता को अल्लाह से उद्भूत मानते थे।
- माना जाता था कि औलिया मध्यस्थ के रूप में ईश्वर से लोगों की ऐहिक और आध्यात्मिक दशा में सुधार लाने का कार्य करते हैं इसलिए शासक अपनी कब्र सूफ़ी दरगाहों और ख़ानक़ाहों के नज़दीक बनाना चाहते थे।
सुल्तानों और सूफ़ियों के बीच तनाव के उदाहरण भी मौजूद हैं। अपनी सत्ता का दावा करने के लिए दोनों ही कुछ आचारों पर बल देते थे जैसे झुक कर प्रणाम और कदम चूमना। शेख निज़ामुद्दीन औलिया के अनुयायी उन्हें सुल्तान-उल मशेख कह कर संबोधित करते थे।
नवीन भक्ति पंथ (उत्तरी भारत में संवाद और असहमति)
अनेक संत कवियों ने नवीन सामाजिक परिस्थितियों, विचारों और संस्थाओं के साथ स्पष्ट और सांकेतिक दोनों किस्म के संवाद कायम किए।
दैवीय वस्त्र की बुनाई : कबीर
इतिहासकारों ने कबीर (14वीं-15वीं सदी) के जीवन और काल का अध्ययन उनके काव्य और बाद में लिखी गई जीवनियों के आधार पर किया जो कई वजहों से चुनौतीपूर्ण रही है।
कबीर की बानी तीन विशिष्ट परिपाटियों में संकलित है:—
- कबीर बीजक कबीर पंथियो द्वारा वाराणसी तथा उत्तर प्रदेश के अन्य स्थानों पर संरक्षित है।
- कबीर ग्रंथावली का संबंध राजस्थान के दादू पंथियो से हैं।
- कबीर के कई पद आदि ग्रंथ साहिब में संकलित है।
➡ लगभग सभी पांडुलिपि संकलन कबीर की मृत्यु के बहुत बाद में किए गए। 19वीं सदी में उनके पद संग्रहों को बंगाल, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों में मुद्रांकित किया गया।
- कबीर की रचनाएँ संत भाषा, उलटबाँसी (उलटी कही उक्तियाँ) आदि अनेक भाषाओं और बोलियों में मिलती हैं।
- कबीर बानी की एक और विशेषता यह है कि उन्होंने परम सत्य का वर्णन करने के लिए अनेक परिपाटियों का सहारा लिया।
- इस्लामी दर्शन की तरह वे इस सत्य को अल्लाह, खुदा, हज़रत और पीर कहते हैं।
- वेदांत दर्शन से प्रभावित वे सत्य को अलख (अदृश्य), निराकार, ब्रह्मन और आत्मन कह कर संबोधित करते हैं।
विविध और कभी तो विरोधात्मक विचार इन पदों में दिखते हैं जैसे: कुछ कविताएँ इस्लामी दर्शन के एकेश्वरवाद और मूर्तिभंजन का समर्थन करते हुए हिंदू धर्म के बहुदेववाद और मूर्तिपूजा का खंडन करती है।
➡ विद्वान पदों की भाषा शैली और विषयवस्तु के आधार पर कबीर के पद पहचानने की कोशिश करते हैं। कबीर पहले और आज भी सत्य की खोज में रूढ़िवादी, धार्मिक सामाजिक संस्थाओं, विचारों और व्यवहारों को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने वालों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
कबीर की जीवनी
- वह जन्म से हिंदू थे या मुसलमान इस विषय पर आज भी विवाद है।
- वैष्णव परंपरा की जीवनियों में कबीर जन्म से हिंदू कबीरदास थे।
- किंतु उनका पालन गरीब मुसलमान परिवार में हुआ जो जुलाहे थे और कुछ समय पहले ही इस्लाम धर्म अपनाया था।
- कबीर को भक्ति मार्ग दिखाने वाले गुरु रामानंद थे। किंतु कबीर के पद, गुरु और सतगुरु संबोधन का इस्तेमाल किसी विशेष व्यक्ति के संदर्भ में नहीं करते।
इतिहासकारों का मानना है कि कबीर और रामानंद का समकालीन होना मुश्किल प्रतीत होता है किंतु कबीर की विरासत बात की पीढ़ी के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी।
बाबा गुरु नानक और पवित्र शब्द
बाबा गुरु नानक (1469-1539) का जन्म एक व्यापारी परिवार में हुआ। उनका जन्मस्थल इस्लाम धर्मावलंबी पंजाब का ननकाना गाँव (रवि नदी के पास) था।
- उन्होंने फारसी पढ़ी और लेखाकार के कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया।
- उनका विवाह छोटी आयु में हो गया था किंतु वह अपना अधिक समय सूफ़ी और भक्त संतों के बीच गुज़ारते थे और दूर-दराज़ की यात्राएँ भी कीं।
- बाबा गुरु नानक के संदेशों (भजनों और उपदेशों में) से पता चलता है कि उन्होंने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया।
- धर्म के सभी बाहरी आडंबरों जैसे यज्ञ, आनुष्ठानिक स्नान, मूर्ति पूजा व कठोर तप और हिंदू तथा मुसलमानों के धर्मग्रंथो अस्वीकार किया।
- उनके लिए परम पूर्ण रब का कोई लिंग या आकार नहीं था। उपासना के लिए केवल रब का निरंतर स्मरण व नाम का जाप करने को कहा।
➡ उन्होंने अपने विचार पंजाबी भाषा में शबद के माध्यम से सामने रखे जो वह अलग-अलग रागों में गाते थे और उनका सेवक मरदाना रबाब बजाकर उनका साथ देता था।
- उन्होंने अपने अनुयायियों को एक समुदाय में संगठित कर सामुदायिक उपासना (संगत) के नियम निर्धारित किए जहाँ सामूहिक रूप से पाठ होता था।
➡ अपने अनुयायी अंगद को अपने बाद गुरुपद पर आसीन किया। वह किसी नवीन धर्म की स्थापना नहीं करना चाहते थे किंतु उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने अपने को हिंदू मुस्लिम दोनों से पृथक चिह्नित किया।
- पाँचवें गुरु अर्जन देव जी ने बाबा गुरु नानक तथा उनके चार उत्तराधिकारियों, बाबा फरीद, रविदास और कबीर की बानी को आदि ग्रंथ साहिब में संकलित किया। इन को गुरबानी कहा जाता है ये अनेक भाषाओं में रचे गए।
- 17वीं सदी के उत्तरार्द्ध में दसवें गुरु गोबिन्द सिंह जी ने नवें गुरु तेग बहादुर की रचनाओं को भी इसमें शामिल किया। अब इस ग्रंथ को गुरु ग्रंथ साहिब कहा गया।
➡ गुरु गोबिन्द सिंह ने खालसा पंथ (पवित्रों की सेना) की नींव डाली और उनके पाँच प्रतीकों का वर्णन किया :—
- बिना कटे केश
- कृपाण
- कच्छ
- कंघा
- लोहे का कड़ा
गुरु गोबिन्द सिंह के नेतृत्व में समुदाय एक सामाजिक, धार्मिक और सैन्य बल के रूप में संगठित होकर सामने आया।
मीराबाई, भक्तिमय राजकुमारी
मीराबाई (15वीं-16वीं सदी) भक्ति परंपरा की सबसे सुप्रसिद्ध कवयित्री है। उनकी जीवनी उनके लिखे भजनों के आधार पर संकलित की गई है जो शताब्दियों तक मौखिक रूप से संप्रेषित होते रहे।
- मीराबाई मारवाड़ के मेड़ता जिले की एक राजपूत राजकुमारी थीं जिनका विवाह उनकी इच्छा के विरुद्ध मेवाड़ के सिसोदिया कुल में कर दिया गया।
- उन्होंने अपने पति की आज्ञा की अवहेलना करते हुए पत्नी और माँ के दायित्वों को निभाने से मना किया और विष्णु के अवतार कृष्ण को अपना एकमात्र पति माना।
- उनके ससुराल वालों ने उन्हें विष देने का प्रयत्न किया किन्तु वह राजभवन से निकल कर एक परिब्राजिका संत बन गईं।
- उन्होंने अंतर्मन की भावना को व्यक्त करने के लिए अनेक गीतों की रचना की।
- मीरा के गुरु रैदास (चर्मकार) माने जाते थे। इससे पता चलता है कि मीरा ने जातिवादी समाज की रूढ़ियों का उल्लंघन किया।
- अपने पति के राजमहल के ऐश्वर्य को त्याग कर विधवा के सफ़ेद वस्त्र तथा संन्यासिनी के जोगिया वस्त्र धारण किए।
➡ मीराबाई के आसपास अनुयायियों का जमघट और निजी मंडली नहीं थी परंतु फिर भी वह शताब्दियों से प्रेरणा का स्रोत रही हैं। उनके रचित पद आज भी स्त्रियों और पुरुषों द्वारा गाए जाते हैं ख़ासकर गुजरात व राजस्थान के गरीब लोगों द्वारा जिन्हें “नीच जाति” का समझा जाता है।
धार्मिक परंपराओं के इतिहासों का पुनर्निर्माण
इतिहासकार धार्मिक परंपरा के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए अनेक स्रोतों का प्रयोग करते हैं जैसे: मूर्तिकला, स्थापत्य, धर्मगुरुओं से जुड़ी कहानियाँ, स्त्री और पुरुषों द्वारा लिखी गई काव्य रचनाएँ आदि।
- प्रत्येक किस्म के मूल-पाठ को समझने के लिए इतिहासकारों को तरह-तरह के कौशल, कई भाषाओं की जानकारी, प्रत्येक विधि की शैली व शैलियों में सूक्ष्म अंतरों को भी पहचानना पड़ता है।
शंकरदेव
- 15वीं-16वीं सदी में असम में शंकरदेव वैष्णव धर्म के मुख्य प्रचारक के रूप में उभरे।
- उनके उपदेशों को भगवती धर्म (भगवद गीता और भागवत पुराण पर आधारित) कहा जाता है।
- ये उपदेश विष्णु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव पर केंद्रित थे।
- उन्होंने भक्ति के लिए नाम कीर्तन और श्रद्धावान भक्तों के सत्संग में ईश्वर के नाम का उच्चारण पर बल दिया।
- आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार के लिए सत्र या मठ तथा नामघर जैसे प्रार्थनागृह की स्थापना को बढ़ावा दिया।
- उनकी प्रमुख काव्य रचनाओं में कीर्तनघोष है।
सूफी परंपरा के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए विभिन्न स्रोत
कश्फ-उल-महजुब
- यह सूफी विचारों और आचारों की पुस्तक जिसे अली बिन उस्मान हुजविरी द्वारा लिखी गई थी।
- इससे उपमहाद्वीप के बाहरी परंपराओं द्वारा भारत में सूफ़ी चिंतन पर प्रभाव का पता चलता है।
मुलफूज़ात (सूफ़ी संतों की बातचीत) फवाइद-अल-फुआद
- यह शेख निज़ामुद्दीन औलिया की बातचीत पर आधारित एक संग्रह है जिसका संकलन अमीर हसन सिजज़ी देहलवी ने किया।
- इनका उद्देश्य उपदेशात्मक था ऐसे अनेक उदाहरण उपमहाद्वीप (दक्कन भी) के अनेक भागों से मिलते हैं।
मक्तुबात (लिखे हुए पत्रों का संकलन)
- ये पत्र सूफ़ी संतों द्वारा अपने अनुयायियों और सहयोगियों को लिखे गए थे।
- इन पत्रों से धार्मिक सत्य के बारे में शेख के अनुभवों का वर्णन मिलता है जिसे वह अन्य लोगों के साथ बाँटना चाहते थे।
- अपने अनुयायियों के लौकिक और आध्यात्मिक जीवन, उनकी आकांक्षाओं और मुश्किलों पर भी टिप्पणी करते थे।
- विद्वान नक्शबंदी सिलसिले के शेख अहमद सरहिंदी के मक्तुबात-ए-इमाम रब्बानी पर चर्चा करते हैं।
तज़किरा (सूफ़ी संतों की जीवनियों का स्मरण)
- मीर खुर्द किरमानी का सियार-उल-औलिया चिश्ती संतों के बारे में था।
- अब्दुल हक मुहाद्दिस देहलवी का अख्बार-उल-अखयार है।
- इनका मुख्य उद्देश्य अपने सिलसिले की प्रधानता स्थापित करने के साथ अपनी आध्यात्मिक वंशावली की महिमा का बखान करना था।
- इसके बहुत से वर्णन अद्भुत और अविश्वसनीय है किंतु फिर भी वे इतिहासकारों के लिए महत्वपूर्ण और सूफ़ी परंपरा के स्वरूप को समझने में सहायक सिद्ध होते हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप के कुछ मुख्य धार्मिक शिक्षक
लगभग 500-800 ई.पू. —
तमिलनाडु में अप्पार, संबंदर, सुंदरमूर्ति
लगभग 800-900 ई. —
तमिलनाडु में नम्मलवर, मणिक्वचक्कार, अंडाल, तोंदराडिप्पोडी
लगभग 1000-1100 ई. —
- पंजाब में अल हुजविरी, दाता गंज बक्श
- तमिलनाडु में रामानुजाचार्य
लगभग 1100-1200 ई. —
कर्नाटक में बसवन्ना
लगभग 1200-1300 ई. —
- महाराष्ट्र में ज्ञानदेव मुक्ताबाई
- राजस्थान में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती
- पंजाब में बहादुद्दीन जकारिया और फरीदुद्दीन गंज-ए-शकर
- दिल्ली में कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी
लगभग 1300-1400 ई. —
- कश्मीर में लाल देद
- सिंध में लाल शाहबाज़ कलंदर
- दिल्ली में निज़ामुद्दीन औलिया
- उत्तर प्रदेश में रामानंद
- महाराष्ट्र में चोखमेला
- बिहार में शराफुद्दीन याहया मनेरी
लगभग 1400-1500 ई. —
- उत्तर प्रदेश में कबीर, रैदास, सूरदास
- पंजाब में बाबा गुरु नानक
- गुजरात में बल्लभाचार्य
- ग्वालियर में अब्दुल्ला सत्तारी
- गुजरात में मुहम्मद शाह आलम
- गुलबर्गा में मीर सैयद मोहम्मद गेसू दराज़
- असम में शंकरदेव
- महाराष्ट्र में तुकाराम
लगभग 1500-1600 ई. —
- बंगाल में श्री चैतन्य
- राजस्थान में मीराबाई
- उत्तर प्रदेश में शेख अब्दुल कुद्दस गंगोही, मलिक मोहम्मद जायसी, तुलसीदास
लगभग 1600-1700 ई. —
- हरियाणा में शेख अहमद सरहिंदी
- पंजाब में मियाँ मीर
Class 12 History Chapter 6 Notes PDF Download In Hindi
भाग — 1
विषय एक : ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ (हड़प्पा सभ्यता)
विषय दो : राजा, किसान और नगर (आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
विषय तीन : बंधुत्व, जाति तथा वर्ग (आरंभिक समाज — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
विषय चार : विचारक, विश्वास और इमारतें (सांस्कृतिक विकास — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
भाग — 2
विषय पाँच : यात्रियों के नज़रिए (समाज के बारे में उनकी समझ — लगभग 10वीं से 17वीं सदी तक)
विषय सात : एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर (लगभग 14वीं से 16वीं सदी तक)
विषय आठ : किसान, ज़मींदार और राज्य (कृषि समाज और मुगल साम्राज्य — लगभग 16वीं और 17वीं सदी)
भाग — 3
विषय नौ : उपनिवेशवाद और देहात (सरकारी अभिलेखों का अध्ययन)
विषय दस : विद्रोही और राज (1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान)
विषय ग्यारह : महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन (सविनय अवज्ञा और उससे आगे)
विषय बारह : संविधान का निर्माण (एक नए युग की शुरुआत)
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