Class 9 History Chapter 5 Notes In Hindi

अध्याय 5: आधुनिक विश्व में चरवाहे

घुमंतू चरवाहे ऐसे लोग होते हैं जो किसी एक जगह टिक कर नहीं रहते बल्कि अपने जानवरों के साथ रोजी-रोटी के लिए यहाँ से वहाँ घूमते रहते हैं।

घुमंतू चरवाहे और उनकी आवाजाही

पहाड़ों में घुमंतू चरवाहे 

जम्मू और कश्मीर के गुज्जर बकरवाल समुदाय के लोग चरागाहों की तलाश में भटकते-भटकते 19वीं सदी में यहाँ आए थे। और कुछ समय बाद वे यहीं बस गए। ये लोग भेड़-बकरियों के बड़े-बड़े रेवड़ रखते हैं। उनके कई परिवार काफ़िला बना कर साथ सफ़र करते थे।

  • जाड़ों में ऊँची पहाड़ियों के बर्फ़ से ढक जाने पर वे शिवालिक की निचली पहाड़ियों में आ जाते। यहाँ की सूखी झाड़ियाँ ही उनके जानवरों के लिए चारा बन जातीं।
  • अप्रैल के अंत तक वे पीर पंजाल के दर्रों को पार करते हुए कश्मीर की घाटी में पहुँच जाते। बर्फ़ पिघलने के बाद चारों तरफ उगने वाली तरह-तरह की घास मवेशियों के लिए सेहतमंद ख़ुराक बन जाती थी। सितंबर के अंत में वे वापस अपने जाड़ों वाले ठिकाने की तरफ़ चले जाते थे।

हिमाचल प्रदेश के चरवाहे समुदाय को गद्दी कहते हैं। ये लोग भी सर्दी-गर्मी के हिसाब से अपनी जगह बदलते रहते थे।

  • वे भी शिवालिक की निचली पहाड़ियों में अपने मवेशियों को झाड़ियों में चराते हुए जाड़ा बिताते थे।
  • अप्रैल आने पर वे उत्तर की तरफ़ लाहौल और स्पीति में चले जाते।
  • बर्फ़ पिघलने पर बहुत सारे ऊपरी पहाड़ों में स्थित घास के मैदानों में जा पहुँचते थे।
  • सितंबर तक वापस लौटते समय वे लाहौल और स्पीति के गाँव में कुछ समय के लिए रुकते।
  • इस बीच वे गर्मियों की फ़सलें काटते और सर्दियों की फ़सलों की बुवाई करके जाड़ों वाले चरागाहों में चले जाते।

पूर्व के गढ़वाल और कुमाऊँ के गुज्जर चरवाहे सर्दियों में भाबर के सूखे जंगलों की तरफ़ और गर्मियों में ऊपरी घास के मैदानों बुग्याल की तरफ़ चले जाते थे। 19वीं सदी में बहुत सारे चरागाहों की तलाश में जम्मू से उत्तर प्रदेश की पहाड़ियों में आए थे और बाद में यहीं बस गए।

हिमालय के पर्वतों में रहने वाले भोटिया, शेरपा और किन्नौरी समुदाय के लोग भी मौसम के हिसाब से अलग-अलग इलाकों में पड़ने वाले चरागाहों का इस्तेमाल करते थे। इस आवाजाही से चरागाह ज़रुरत से ज़्यादा इस्तेमाल से बच जाते थे और उनमें दोबारा हरियाली भी लौट आती थी।

पठारों, मैदानों और रेगिस्तानों में घुमंतू चरवाहे 

➡ चरवाहे पहाड़ों के अलावा पठारों, मैदानों और रेगिस्तानों में भी बहुत बड़ी संख्या में मौजूद थे। धंगर महाराष्ट्र का चरवाहा समुदाय जिसकी आबादी 20वीं सदी में लगभग 4,67,000 थी। उनमें से ज़्यादातर गड़रिये या चरवाहे थे और कुछ कंबल और चादरें भी बनाते थे जबकि कुछ भैंस पालते थे।

  • वे बरसात के दिनों में महाराष्ट्र के मध्य पठारों में रहते थे। यह एक अर्ध-शुष्क इलाका था। चारों तरफ़ सिर्फ़ कंटीली झाड़ियाँ होती थीं। मानसून में यह पटटी जानवरों के लिए विशाल चरागाह बन जाती थी।
  • अक्टूबर के आसपास से वे बाजरे की कटाई करके चरागाहों की तलाश में पश्चिम की तरफ़ कोंकण के इलाके में डेरा डाल देते थे। इसी समय कोंकण के किसानों को खरीफ़ की फ़सल काट कर अपने खेतों को रबी की फ़सल के लिए धंगरों के मवेशी के गोबर से खेतों को खाद मिल जाती थी।
  • किसान धंगरों को चावल देते थे। मॉनसून शुरू होते ही वे तटीय इलाके छोड़कर सूखे पठारों की तरफ़ लौट जाते थे।

➡ कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के सूखे मध्य पठारों में मवेशियों, भेड़-बकरियों और गड़रियों का ही बसेरा रहता था। यहाँ गोल्ला समुदाय के लोग गाय-भैंस पालते थे जबकि कुरुमा और कुरुबा समुदाय भेड़-बकरियाँ पालते थे और हाथ के बुने कंबल बेचते थे। ये लोग जंगलों और छोटे-छोटे खेतों के आसपास रहते थे।

  • ये लोग बरसात और सूखे मौसम के हिसाब से अपनी जगह बदलते थे। सूखे महीनों में वे तटीय इलाकों की तरफ़ जबकि बरसात होने पर वापस सूखे पठारी इलाकों में चले जाते थे।

बंजारे उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कई इलाकों में रहते थे। ये लोग दूर-दूर तक रास्तें में अनाज और चारे के बदले गाँव वालों को जानवर और दूसरी चीज़ें बेचते जाते थे।

राजस्थान के रेगिस्तानों में राइका समुदाय रहता था। राइकाओं का एक तबका ऊँट पालता था जबकि कुछ भेड़-बकरियाँ पालते थे। बारिश कम होने के कारण हर साल खेती की उपज घटती-बढ़ती रहती थी इसलिए वे खेती के साथ चरवाही भी करते थे।

  • बरसात में तो बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर और बीकानेर के राइका अपने गाँवों में ही रहते थे।
  • पर अक्टूबर आने पर चरागाहों की तलाश में दूसरे इलाकों की तरफ़ निकल जाते थे। 

चरवाहा समुदायों को अपनी रोजी-रोटी के लिए खेती, व्यापार और चरवाही सभी काम करने पड़ते थे।

औपनिवेशिक शासन और चरवाहों का जीवन

औपनिवेशिक शासन के दौरान चरवाहों के चरागाह सिमट गए, इधर-उधर आने-जाने पर बंदिशें लगने लगीं और उनसे ज़्यादा लगान वसूल किया जाने लगा। खेती में उनका हिस्सा घटने लगा और उनके पेशे तथा हुनरों पर भी बहुत बुरा असर पड़ा।

1. अंग्रेज़ सरकार चरागाहों को खेती की ज़मीन में बदल कर ज़मीन से मिलने वाले लगान को बढ़ाना चाहती थी।

  • जूट (पटसन), कपास, गेहूँ और अन्य खेतिहर चीज़ों के उत्पादन में इजाफ़ा कर इंग्लैंड में इसकी माँग को पूरा करना चाहती थी।
  • बेकार (बिना खेती की ज़मीन) ज़मीन को खेती लायक बनाने के लिए 19वीं सदी के मध्य से देश के विभिन्न भागों में परती भूमि विकास नियम बनाए जाने लगे।
  • इसके ज़रिए सरकार ज़मीन को कुछ खास लोगों को कई तरह की रियायतों के साथ सौंपने लगी।
  • ऐसे कुछ लोगों को गाँव का मुखिया बना दिया गया। कब्ज़े में ली गई ज़्यादातर ज़मीन चरागाहों की थी। इस तरह खेती के फैलाव से चरागाह सिमटने लगे और चरागाहों के लिए समस्याएँ पैदा होने लगीं।

2. 19वीं सदी के मध्य तक देश के विभिन्न प्रांतों में वन अधिनियम पारित किए जाने लगे।

  • इसमें कई जंगलों को आरक्षित वन घोषित कर दिया, जहाँ देवदार या साल जैसी कीमती लकड़ी पैदा होती थी। इन जंगलों में चरवाहों के जाने पर पाबंदी लगा दी गई।
  • संरक्षित घोषित किए गए जंगलों में बंदिशों के साथ चरवाही के कुछ परंपरागत अधिकार दिए गए।
  • जंगलों में दाखिल होने के लिए उन्हें परमिट लेना पड़ता था। परमिट में प्रवेश और वापसी की तारीख पहले से तय होती थी। इस समय सीमा का उल्लंघन करने पर उन्हें जुर्माना देना पड़ता था।

3. अंग्रेज़ अफ़सर घुमंतू लोगों को शक की नज़र से देखते थे। घुमंतुओं को अपराधी माना जाता था।

  • जबकि ग्रामीण जनता को शांतिप्रिय और कानून का पालन करने वाला माना जाता था क्योंकि इन लोगों की आबादी की पहचान करना, उनकी रियाइश और खेतों पर उनके अधिकार और उन पर नियंत्रण रखना ज़्यादा आसान होता था।
  • 1871 में औपनिवेशिक सरकार ने अपराधी जनजाति अधिनियम पारित किया। इस कानून के तहत दस्तकारों, व्यापारियों और चरवाहों के बहुत सारे समुदायों को अपराधी समुदायों की सूची में रख दिया गया।
  • ऐसे सभी समुदाय को कुछ खास अधिसूचित गाँवों/बस्तियों में बस जाने का हुक्म दिया गया। उनकी बिना परमिट आवाजाही पर रोक लगा दी गई। ग्राम्य पुलिस उन पर हमेशा नज़र रखने लगी।

4. अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए अंग्रेज़ों ने ज़मीन, नहरों के पानी, नमक, खरीद-फ़रोख्त की चीज़ों और मवेशियों पर भी टैक्स वसूलने लगे।

  • 19वीं सदी के मध्य से ही देश के ज़्यादातर चरवाही इलाकों में चरवाही टैक्स लागू कर दिया गया था। जिसकी दर तेज़ी से बढ़ती गई।
  • 1850 से 1880 के दशकों के बीच टैक्स वसूली का काम बोली लगा कर ठेकेदारों को सौंपा जाता था।
  • वह साल भर में ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा बनाने के लिए जितना चाहे कर वसूल सकते थे।
  • 1880 के दशक तक सरकार ने अपने कारिंदों के माध्यम से सीधे चरवाहों से ही कर वसूलना शुरू कर दिया।
  • अब किसी भी चरागाह में दाखिल होने के लिए चरवाहों को पास दिखाकर पहले टैक्स अदा करना पड़ता था।

इन बदलावों ने चरवाहों की जिंदगी को किस तरह प्रभावित किया?

➡ सरकार द्वारा चरागाहों को खेतों में बदलने के कारण चरागाहों के लिए उपलब्ध इलाका कम होने लगा। जंगलों के आरक्षण के कारण गड़रिये और पशुपालक अब अपने मवेशियों को जंगलों में आज़ादी से नहीं चरा सकते थे।

➡ बचे-खुचे चरागाहों में जानवरों की तादाद बढ़ने लगी। अब चरागाहों के बेहिसाब इस्तेमाल से चरागाहों का स्तर गिरने लगा। जानवरों के लिए चारा कम पड़ने के कारण इनकी सेहत और तादाद भी गिरने लगी।

चरवाहों ने इन बदलावों का सामना कैसे किया?

कुछ चरवाहों ने अपने जानवरों की संख्या कम कर दी। अब चरवाहों ने नए-नए चरागाह ढूँढ़ लिए। जैसे:- ऊँट और भेड़ पालने वाले राइका 1947 के बाद हरियाणा के खेतों में जाने लगे जहाँ कटाई के बाद खाली पड़े खेतों में वे अपने मवेशियों को चरा सकते हैं। साथ में खेतों को जानवरों के मल-मूत्र से खाद भी मिल जाती है।

➡ समय गुज़रने के साथ कुछ धनी चरवाहे ज़मीन खरीद कर एक जगह बसने लगे। उनमें से कुछ खेती करने लगे जबकि कुछ व्यापार करने लगे।

➡ जिन चरवाहों के पास ज़्यादा पैसा नहीं था वे सूदखोरों से ब्याज पर कर्ज़ लेकर दिन काटने लगे। इस चक्कर में बहुतों के मवेशी भी हाथ से जाते रहे और वह मज़दूर बन कर रह गए। वे खेतों या छोटे-मोटे कस्बों में मज़दूरी करने लगे।

बहुत सारे पारिस्थिति विज्ञानी मानते हैं कि सूखे इलाखों और पहाड़ों में ज़िंदा रहने के लिए चरवाही ही सबसे व्यावहारिक रास्ता है। 

अफ़्रीका में चरवाहा जीवन

आज भी अफ़्रीका के लगभग सवा दो करोड़ लोग रोज़ी-रोटी के लिए चरवाही गतिविधियों पर ही आश्रित हैं। इनमें बेदुईन्स, बरबेर्स, मासाई, सोमाली, बोरान और तुर्काना जैसे समुदाय शामिल हैं।

  • इनमें से ज़्यादातर अब अर्ध-शुष्क घास के मैदानों या सूखे रेगिस्तानों में रहते हैं।
  • यह गाय-बैल, ऊँट, बकरी, भेड़ व गधे पालते हैं और दूध, माँस, पशुओं की खाल व ऊन आदि बेचते हैं।
  • कुछ व्यापार और यातायात संबंधी काम, खेती और कोई भी धंधा कर लेते हैं।

➡ मासाई पशुपालक मोटे तौर पर पूर्वी अफ़्रीका के निवासी हैं। इनमें से लगभग 3 लाख दक्षिणी कीनिया और करीब डेढ़ लाख तंज़ानिया में रहते हैं। नए कानूनों और बंदिशों ने उनकी ज़मीन छीन ली और आवाजाही पर भी पाबंदियाँ लगा दी थी। 

चरागाहों का क्या हुआ?

औपनिवेशिक शासन से पहले मासाईलैंड का इलाका उत्तरी कीनिया से लेकर तंज़ानिया के घास के मैदानों (स्तेपीज़) तक फैला हुआ था।

  • 19वीं सदी के आखिर में यूरोप की साम्राज्यवादी ताकतों ने बहुत सारे इलाकों को छोटे-छोटे उपनिवेशों में तब्दील करके अपने-अपने कब्ज़े में ले लिया।
  • 1885 में ब्रिटिश कीनिया और जर्मन तांगान्यिका के बीच एक अंतर्राष्ट्रीय सीमा खींचकर मासाईलैंड के दो बराबर-बराबर टुकड़े कर दिए।
  • बाद में सरकार ने गोरों को बसाने के लिए बेहतरीन चरागाहों को कब्ज़े में लेकर मासाइयों को दक्षिणी कीनिया और उत्तरी तंज़ानिया के छोटे से इलाके में समेट दिया।

➡ 19वीं सदी के अंतिम सालों से ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के प्रोत्साहन से पूर्वी अफ़्रीका में स्थानीय किसानों द्वारा अपनी खेती के क्षेत्रफल को फैलाने के कारण चरागाह खेतों में तब्दील होने लगे।

  • पहले मासाई आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर किसानों पर भारी पड़ते थे।
  • बहुत सारे चरागाहों को शिकारगाह बना दिया गया। जैसे: कीनिया में मासाई मारा व साम्बूरु नैशनल पार्क और तंज़ानिया में सेरेन्गेटी पार्क।
  • इन आरक्षित जंगलों में चरवाहों का आना-जाना, शिकार करना, अपने जानवरों को चराना मना था।

अच्छे चरागाहों और जल संसाधनों के हाथ से निकल जाने के कारण छोटे से इलाके में चरागाहों का स्तर गिर गया। जिससे मवेशियों का पेट भरना एक स्थायी समस्या बन गई। 

सरहदें बंद हो गईं

19वीं सदी में एक जगह चरागाह के सूख जाने पर चरवाहे अपने रेवड़ लेकर चरागाहों की खोज में दूर-दूर तक चले जाते थे। लेकिन 19वीं सदी के आखिरी दशकों से औपनिवेशिक सरकार ने उनकी आवाजाही पर तरह-तरह की पाबंदियाँ लगा दी।

  • मासाइयों की तरह अन्य चरवाहे भी आरक्षित इलाकों की सीमाओं के पार आ-जा नहीं सकते थे।
  • उन्हें विशेष परमिट के बिना जानवरों को लेकर बाहर जाना मना था। लेकिन परमिट पाने के लिए भी उन्हें तंग किया जाता था।
  • नियमों का पालन न करने पर उन्हें कड़ी सज़ा दी जाती थी।
  • चरवाहों को गोरों के इलाके के बाज़ारों में जाना माना था। बहुत सारे इलाकों में तो वे कई तरह के व्यापार भी नहीं कर सकते थे।

➡ बाहर से आए गोरे और यूरोपीय औपनिवेशिक अफ़सर उन्हें खतरनाक और बर्बर स्वभाव वाला मानते थे। जिनके साथ कम से कम संबंध रखना ही उचित था। लेकिन खानों से माल निकालने, सड़कें बनाने और शहर बसाने के लिए गोरों को इन कालों के श्रम की ही ज़रूरत पड़ती थी।

➡ नई सरहदों, पाबंदियों और बाधाओं की आड़ में उन्हें प्रताड़ित किया जाता था। इससे उनकी चरवाही और व्यापारिक गतिविधियों पर बहुत बुरा असर पड़ा। औपनिवेशिक शासन की बंदिशों से उनके व्यापार पर तरह-तरह के अंकुश लग गए।

जब चरागाह सूख जाते हैं

  • औपनिवेशिक शासन में मासाइयों के लिए एक इलाका आरक्षित कर चरागाहों की खोज में यहाँ-वहाँ भटकने पर रोक लगा दी गई।
  • उन्हें अर्ध-शुष्क पट्टी में रहने पर मजबूर किया गया। जहाँ सूखे की आशंका हमेशा बनी रहती थी।
  • इसलिए सूखे के सालों में मासाइयों के बहुत सारे मवेशी भूख और बीमारियों की वजह से मर जाते थे।
  • धीरे-धीरे चरागाह सिकुड़ने के कारण सूखे के दुष्परिणाम भयानक होते चले गए। और जानवरों की संख्या में लगातार गिरावट आती गई।

सब पर एक जैसा असर नहीं पड़ा

उपनिवेश बनने से पहले मासाई समाज दो सामाजिक श्रेणियों में बँटा हुआ था ㅡ वरिष्ठ जन और योद्धा।

वरिष्ठ जन शासन चलाते थे। समुदाय से जुड़े मामलों पर विचार-विमर्श करने और अहम फ़ैसले लेने के लिए वे समय-समय पर सभा करते थे।

योद्धाओं में ज़्यादातर नौजवान होते थे जिन्हें मुख्य रूप से लड़ाई लड़ने और कबीले की हिफ़ाज़त करने के लिए तैयार किया जाता था।

  • वे समुदाय की रक्षा करते और दूसरे कबीलों के मवेशी छीन कर लाते थे।
  • युवाओं को खुद को योद्धा साबित करने के लिए दूसरे समूह के मवेशियों को छीन कर और युद्ध में बहादुरी का प्रदर्शन करके दिखाना होता था।

➡ अंग्रेज़ सरकार ने मासाई उपसमूहों के मुखिया तय कर उन्हें अपने-अपने कबीले के सारे मामलों की ज़िम्मेदारी सौंप दी। उन्होंने हमलों और लड़ाइयों पर पाबंदी लगा दी। इस तरह वरिष्ठ जनों और योद्धाओं की परंपरागत सत्ता बहुत कमज़ोर हो गई।

➡ औपनिवेशिक सरकार द्वारा नियुक्त किए गए मुखियों के पास नियमित आमदनी हो गई थी जिससे वे जानवर, साज़ो-सामान और ज़मीन खरीद सकते थे।

  • वे अपने गरीब पड़ोसियों को लगान चुकाने के लिए कर्ज़ पर पैसे देते थे।
  • ज़्यादातर बाद में शहरों में जाकर बस गए और व्यापार करने लगे। उनके बीवी-बच्चे गाँव में ही रहकर जानवरों की देखभाल करते थे।

➡ जो चरवाहे सिर्फ़ अपने जानवरों के सहारे ज़िंदगी बसर करते थे उनका युद्ध और अकाल के दौरान सब कुछ खत्म हो जाता था।

  • तब उन्हें काम की तलाश में आसपास के शहरों में शरण लेनी पड़ती थी।
  • कोई कच्चा कोयला जलाने का काम तो कोई सड़क या भवन निर्माण कार्यों में लग जाते थे।

निष्कर्ष

चरवाहों ने इतनी बंदिशों के बाद भी बदलते वक्त के हिसाब से खुद को ढाल लिया था।
  • वे अपनी आवाजाही का रास्ता बदल लेते, जानवरों की संख्या कम कर लेते, नए इलाकों में दाखिल होने के लिए हर संभव लेन-देन करते और राहत, रियायत व मदद के लिए सरकार पर राजनीतिक दबाव डालते थे।
  • जहाँ से उन्हें खदेड़ा जाता, उन इलाकों में वे अपने अधिकारों को बचाए रखने के लिए संघर्ष करते और जंगलों के रखरखाव और प्रबंधन में अपना हिस्सा माँगते थे। 

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