Class 8 History Chapter 8 Notes In Hindi

अध्याय 8: राष्ट्रीय आंदोलन का संघटन: 1870 के दशक से 1947 तक

राष्ट्रवाद का उदय

भारत का मतलब है यहाँ की जनता। यहाँ रहने वाले किसी भी वर्ग, रंग, जाति,पंथ, भाषा या जेंडर वाले तमाम लोगों का घर। यह देश और इसके सारे संसाधन और इसकी सारी व्यवस्था इन सभी के लिए है।

अंग्रेज़, भारत के संसाधनों व यहाँ के लोगों की ज़िंदगी पर कब्ज़ा बनाए हुए हैं और जब तक यह नियंत्रण ख़त्म नहीं होता, भारत यहाँ के लोगों का, भारतीयों का नहीं हो सकता।  यह चेतना 1850 के बाद बने राजनीतिक संगठनों में साफ़ दिखने लगी और 1870-1880 के दशक में यह चेतना और गहरी हो चुकी थी।

  • पूना सार्वजनिक सभा, इंडियन एसोसिएशन, मद्रास महाजन सभा, बॉम्बे रेज़िडेंसी एसोसिएशन और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आदि इस तरह के प्रमुख संगठन थे।

➡ इन संगठनों का लक्ष्य किसी खास जिला के समुदाय वर्ग के लक्ष्य नहीं थे। वे इस सोच के साथ काम कर रहे थे कि लोग सम्प्रभु हो। संप्रभुता एक आधुनिक विचार और राष्ट्रवाद का बुनियादी तत्व होता है। इनकी विचारधारा में भारतीय जनता को अपने मामलों के बारे में फ़ैसले लेने की आज़ादी होनी चाहिए।

1870 और 1880 के दशकों में ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष के कारण

1. 1878 में आर्म्स एक्ट (जिसके ज़रिए भारतीयों द्वारा अपने पास हथियार रखने का अधिकार छीन लिया गया।), वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट (किसी अख़बार में कोई ‘आपत्तिजनक’ चीज़ छापने पर सरकार द्वारा उसकी प्रिंटिंग प्रेस सहित सारी संपत्ति को ज़ब्त कर ली जाती है।)

2. 1883 में इल्बर्ट बिल (इसमें भारतीय न्यायाधीश भी ब्रिटिश या यूरोपीय व्यक्तियों पर मुकदमे चला सकते हैं ताकि भारत में काम करने वाले अंग्रेज़ और भारतीय न्यायाधीशों के बीच समानता स्थापित की जा सके।) अंग्रेज़ों के विरोध की वजह से सरकार ने यह विधेयक वापस ले लिया जिससे भारत में अंग्रेज़ों केअसली रवैये का पता चला।

➡ 1885 में देश भर के 72 प्रतिनिधियों ने मुंबई में सभा करके भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। संगठन के प्रारंभिक नेता一दादाभाई नौरोजी, फिरोज़शाह मेहता, बदरुद्दीन तैयब जी, डब्लयू सी. बैनर्जी, सुरेंद्रनाथ बैनर्जी, रोमेशचंद्र दत्त, एस. सुब्रमण्यम अय्यर एवं अन्य प्राय: बम्बई और कलकत्ता के ही थे।

  • सेवानिवृत ब्रिटिश अफ़सर ए.ओ. ह्यूम ने भी विभिन्न क्षेत्रों के भारतीयों को निकट लाने में अहम भूमिका अदा की।

उभरता हुआ राष्ट्र

कांग्रेस ने सरकार से आग्रह किया कि
  • विधान परिषदों में भारतीयों को ज़्यादा जगह दी जाए। 
  • परिषदों को ज़्यादा अधिकार दिया जाए। 
  • जिन प्रांतों में परिषदें नहीं है वहाँ उनका गठन किया जाए। 
  • सिविल सेवा के लिए लंदन के साथ-साथ भारत में भी परीक्षा आयोजित की जाए। 
  • भारतीयों की माँग थी कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग किया जाए। 
  • आर्म्स एक्ट को निरस्त किया जाए और अभिव्यक्ति व बोलने की स्वतंत्रता दी जाए।
  • कांग्रेस की माँग थी कि लगान कम किया जाए। 
  • फौज़ी खर्चों में कटौती की जाए। 
  • सिंचाई के लिए ज़्यादा अनुदान दिया जाए। 

उन्होंने नमक कर, विदेशों में भारतीय मज़दूरों के साथ होने वाले बर्ताव तथा भारतीयों के कामों में दखलअंदाज़ी करने वाले वन प्रशासन की वजह से वनवासियों की बढ़ती मुसीबतों के बारे में बहुत सारे प्रस्ताव पारित किए।

➡ मध्यमार्गी नेताओं ने जनता को ब्रिटिश शासन के अन्यायपूर्ण चरित्र से अवगत कराने के लिए अख़बार निकाले, लेख लिखे और यह साबित करने का प्रयास किया कि ब्रिटिश शासन देश को आर्थिक तबाही की ओर ले जा रहा है।

  • अपने भाषणों में ब्रिटिश शासन की निंदा की और जनमत निर्माण के लिए देश के विभिन्न भागों में अपने प्रतिनिधि भेजे।
  • लेकिन उनका मानना था कि अंग्रेज स्वतंत्रता व न्याय के आदर्शों का सम्मान करते हैं इसलिए सरकार को भारतीयों की भावना से अवगत कराया जाना चाहिए।

“स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है”

1890 के दशक तक बिपिनचंद्र पाल (बंगाल), लाला लाजपत राय (पंजाब) और बाल गंगाधर तिलक (महाराष्ट्र ) जैसे नेता ज़्यादा आमूल परिवर्तनवादी उद्देश्य और पद्धतियों के अनुरूप काम करने लगे थे।

  • उन्होंने “निवेदन की राजनीति” के लिए नरम पंथियो की आलोचना की और आत्मनिर्भरता तथा रचनात्मक कामों के महत्व पर ज़ोर दिया।
  • तिलक ने नारा दिया一 “स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा!”

➡ 1905 में वायसराय कर्ज़न द्वारा बंगाल का विभाजन कर उसकी पूर्वी भागों को असम में मिलाने का मुख्य उद्देश्य बंगाली राजनेताओं के प्रभाव पर अंकुश लगाना और बंगाली जनता को बाँट देना था।

  • बंगाल के विभाजन का मध्यमार्गी और आमूल परिवर्तनवादी, सबने विरोध किया। विशाल जनसभाओं का आयोजन किया गया और जुलूस निकाले गए।
  • इस संघर्ष को स्वदेशी आंदोलन कहा गया। आंध्र के डेल्टा इलाकों में इसे वंदेमातरम आंदोलन के नाम से जाना जाता था।
  • स्वदेशी आंदोलन ने ब्रिटिश शासन का विरोध किया और स्वंय सहायता, स्वदेशी उद्यमों, राष्ट्रीय शिक्षा और भारतीय भाषा के उपयोग को बढ़ावा दिया।
  • स्वराज के लिए आमूल परिवर्तनवादी ने जनता को लामबंद करने और ब्रिटिश संस्थानों व वस्तुओं के बहिष्कार पर ज़ोर दिया। कुछ लोग क्रांतिकारी हिंसा के समर्थक थे।

➡ 1906 में मुस्लिम ज़मींदारों और नवाबों के समूह ने ढाका में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का गठन किया। लीग ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया। मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचिका की माँग को 1909 में सरकार ने मान लिया।

➡ 1907 में कांग्रेस टूट गई। मध्यमार्गी धड़ा बहिष्कार की राजनीति के विरुद्ध था। संगठन टूटने के बाद कांग्रेस पर मध्यमार्गी का दबदबा बन गया जबकि तिलक के अनुयायी बाहर से काम करने लगे।

➡ दिसंबर 1915 में दोनों खेमों में एक बार फिर एकता स्थापित हुई। 1916 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच लखनऊ समझौता हुआ। दोनों संगठनों ने देश के प्रातिनिधिक सरकार के गठन के लिए मिलकर काम करने का फ़ैसला लिया।

जनराष्ट्रवाद का उदय

पहले विश्व युद्ध की वजह से ब्रिटिश भारत सरकार के रक्षा व्यय में भारी इज़ाफ़ा हुआ। इस खर्चे को निकालने के लिए सरकार ने निजी आय और व्यावसायिक मुनाफ़े पर कर बढ़ा दिया था। इस कारण ज़रूरी चीजों की कीमतों में भारी उछाल आया और आम लोगों की ज़िंदगी मुश्किल होती गई।

  • युद्ध ने अंग्रेज़ों को अपनी सेना बढ़ाने के लिए विवश किया। गाँव में सिपाहियों की भर्ती के लिए दबाव डाला जाने लगा।
  • बहुत सारे सिपाहियों को दूसरे देशों में युद्ध के मोर्चों पर भेज दिया गया।
  • यह सिपाही युद्ध के बाद यह समझदारी लेकर लौटे कि साम्राज्यवादी शक्तियाँ एशिया और अफ्रीका के लोगों का शोषण कर रही है।
  • फलस्वरूप ये लोग भी भारत में औपनिवेशिक शासन का विरोध करने लगे। 
  • इसके अलावा, 1917 की रूस की क्रांति ने किसानों और मज़दूरों के संघर्षों का समाचार तथा समाजवादी विचार ने बड़े पैमाने पर भारतीय राष्ट्रवादियों को प्रेरित किया।

महात्मा गांधी का आगमन

गांधीजी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे। वे वहाँ पर नस्लभेदी पाबंदियों के खिलाफ़ अहिंसक आंदोलन चला रहे थे। दक्षिण अफ्रीकी आंदोलन की वजह से उन्हें हिंदू, मुसलमान, पारसी और ईसाई, गुजराती, तमिल और उत्तर भारतीय; उच्च वर्गीय व्यापारी, वकील और मज़दूर, सब तरह के भारतीयों से मिलने-जुलने का मौका मिल चुका था।

  • महात्मा गांधी ने पहले साल पूरे भारत का दौरा किया। फिर चंपारण, खेड़ा और अहमदाबाद के स्थानीय आंदोलन में अपनी भूमिका निभाई। इन आंदोलनों के माध्यम से उनका राजेंद्र प्रसाद और वल्लभभाई पटेल से परिचय हुआ।

रॉलट सत्याग्रह

1919 में गांधीजी ने रॉलट कानून के खिलाफ़ सत्याग्रह का आह्वान किया। यह कानून मूलभूत अधिकारों पर अंकुश लगाने और पुलिस को और ज़्यादा अधिकार देने के लिए लागू किया गया था। उन्होंने इस कानून को “शैतान की करतूत” और निरंकुशवादी बताया।

  • इस कानून के विरोध में 6 अप्रैल 1919 को अहिंसक विरोध दिवस (अपमान व याचना दिवस) के रूप में मनाया गया और हड़तालें की गई। आंदोलन शुरू करने के लिए सत्याग्रह सभाओं का गठन किया गया।
  • यह पहला अखिल भारतीय संघर्ष था और मोटे तौर पर शहरों तक ही सीमित था। अप्रैल 1919 में पूरे देश में जगह-जगह जुलूस निकाले गए और हड़तालों का आयोजन किया गया।
  • सरकार ने इन आंदोलन को कुचलने के लिए दमनकारी रास्ता अपनाया। बैसाखी (13 अप्रैल) के दिन अमृतसर में जनरल डायर द्वारा जलियाँवाला बाग में निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलाई गई।

इस जनसंहार पर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी पीड़ा और गुस्सा जताते हुए नाइटहुड की उपाधि वापस लौटा दी। इस दौरान लोगों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ हिंदुओं और मुसलमानों के बीच गहरी एकता बनाए रखने के प्रयास किए।

ख़िलाफ़त आंदोलन और असहयोग आंदोलन

1920 में अंग्रेज़ों ने तुर्की के सुल्तान (ख़लीफ़ा) पर बहुत सख्त संधि थोप दी थी। भारतीय मुसलमान चाहते थे कि पुराने ऑटोमन साम्राज्य में स्थित पवित्र मुस्लिम स्थानों पर ख़लीफ़ा का नियंत्रण बना रहना चाहिए।

➡ ख़िलाफ़त आंदोलन के नेता मोहम्मद अली और शौकत अली अब एक सर्वव्यापी असहयोग आंदोलन शुरू करना चाहते थे। गांधी जी ने उनके आह्वान का समर्थन कर कांग्रेस से आग्रह किया कि वह पंजाब में हुए अत्याचारों और ख़िलाफ़त के मामले में हुए अत्याचार के विरुद्ध मिलकर अभियान चलाएँ और स्वराज की माँग करें।

  • 1921 से 1922 के दौरान हजारों विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूल-कॉलेज छोड़ दिए।
  • मोतीलाल नेहरू, सी.आर.दास, सी. राजगोपालाचारी और आसफ़ अली जैसे बहुत सारे वकीलों ने वकालत छोड़ दी।
  • अंग्रेजों द्वारा दी गई उपाधियों को लौटा दिया गया और विधान मंडलों का बहिष्कार किया गया।
  • लोगों ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई। 1920 से 1922 के बीच विदेशी कपड़ों के आयात में भारी गिरावट आ गई।

लोगों की पहलकदमी

कई जगहों पर लोगों ने ब्रिटिश शासन का अहिंसक विरोध किया। लेकिन कई स्थानों पर विभिन्न वर्गों और समूहों ने गांधीजी के आह्वान के अपने हिसाब से अर्थ निकाले। सभी जगह लोगों ने आंदोलन को स्थानीय मुद्दों के साथ जोड़कर आगे बढ़ाया।

  1. खेड़ा, गुजरात में पाटीदार किसानों ने अंग्रेजों द्वारा थोप दिए गए भारी लगान के खिलाफ़ अहिंसक अभियान चलाया।
  2. तटीय आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के भीतरी भागों में शराब की दुकानों की घेराबंदी की गई।
  3. आंध्र प्रदेश के गुंटूर ज़िले में आदिवासी और गरीब किसानों ने बहुत सारे “वन सत्याग्रह” किए।
  4. बहुत सारे वन गाँवों में किसानों ने स्वराज का ऐलान कर दिया क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि “गांधी राज” जल्द ही स्थापित होने वाला है।
  5. सिंध (पाकिस्तान) में मुस्लिम व्यापारी और किसान ख़िलाफ़त के आह्वान पर बहुत उत्साहित थे।
  6. बंगाल में भी ख़िलाफ़त-असहयोग के गठबंधन ने ज़बरदस्त सांप्रदायिक एकता को जन्म दिया और राष्ट्रीय आंदोलन को नई ताकत प्रदान की।
  7. पंजाब में सिखों के आकाली आंदोलन ने अंग्रेजों की सहायता से गुरुद्वारों में जमे बैठे भ्रष्ट महंतों को हटाने के लिए आंदोलन चलाया।
  8. असम में “गांधी महाराज की जय” के नारे लगाते हुए चाय बाग़ान मज़दूरों ने अपनी तनख़्वाह में इज़ाफ़े की माँग शुरू कर दी।

उस दौर के बहुत सारे असमिया वैष्णव गीतों में कृष्ण की जगह “गांधी राज” का यशगान किया जाने लगा था।

जनता के महात्मा

कई जगह के लोग गांधीजी को मसीहा, मुसीबतों और गरीबी से छुटकारा दिलाने वाला मानते थे। गांधीजी वर्गीय टकराव की बजाय वर्गीय एकता के समर्थक थे। परंतु किसानों को लगता था कि गांधीजी ज़मींदारों के खिलाफ़ उनके संघर्ष में मदद करेंगे।

  • प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) के किसानों ने पट्टेदारों की गैर-कानूनी बेदख़ली को रुकवाने में सफलता पा ली थी परंतु उन्हें लगता था कि यह सब गांधीजी की वजह से हुआ है।
  • कई बार गांधीजी का नाम लेकर आदिवासियों और किसानों ने ऐसी कार्रवाईयाँ भी की जो गांधीवादी आदर्शों के अनुरूप नहीं थी।

1922-1929 की घटनाएँ

फरवरी 1922 में किसानों के शांतिपूर्ण जुलूस पर पुलिस द्वारा गोली चलने पर भीड़ ने चौरी-चौरा पुलिस थाने पर हमला कर उसे जला दिया जिसमें 22 पुलिस वाले मारे गए। इसी कारण गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया।

असहयोग आंदोलन खत्म होने के बाद 20 के दशक के मध्य में गाँवों में किए गए व्यापक सामाजिक कार्यों की बदौलत गांधीवादियों को अपना जनाधार फैलाने में काफ़ी मदद मिली। यह जनाधार 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए उपयोगी साबित हुआ।

  • चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू जैसे अन्य नेताओं की दलील थी कि पार्टी को परिषद चुनावों में हिस्सा लेना चाहिए और परिषदों के माध्यम से सरकारी नीतियों को प्रभावित करना चाहिए।

➡ 20 के दशक के मध्य भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और हिंदुओं के संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) की स्थापना हुई। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में 1929 में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित किया गया जिसके आधार पर 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में “स्वतंत्रता दिवस” मनाया गया।

दांडी मार्च

गांधीजी और उनके अनुयायी 12 मार्च 1930 को साबरमती से 240 किलोमीटर दूर स्थित दांडी 6 अप्रैल 1930 को पैदल पहुँचे। वहाँ उन्होंने तट पर बिखरा नमक इकट्ठा करते हुए नमक कानून का सार्वजनिक रूप से उल्लंघन किया।

  • इस आंदोलन में किसानों, आदिवासियों और महिलाओं ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया।
  • नमक के मुद्दे पर एक व्यावसायिक संघ ने पर्चा प्रकाशित किया। सरकार ने आंदोलन को  कुचलने के लिए हजारों आंदोलनकारी को जेल में डाल दिया।

➡ 1935 के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट में प्रांतीय स्वायत्तता का प्रावधान किया गया। 1937 के प्रांतीय विधायिकाओं के लिए चुनाव कराए गए। जिसमे 11 में से 7 प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बनी।

➡ प्रांतीय स्तर पर 2 साल के कांग्रेसी शासन के बाद सितंबर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। हिटलर के प्रति आलोचनात्मक रवैये के कारण कांग्रेस के नेता ब्रिटेन के युद्ध प्रयासों में मदद देने को तैयार थे। इसके बदले वह युद्ध के बाद भारत को स्वतंत्र चाहते थे। अंग्रेजो ने यह बात नहीं मानी। कांग्रेसी सरकारों ने विरोध में इस्तीफा दे दिया।

भारत छोड़ो और उसके बाद

महात्मा गांधी ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों के खिलाफ़ आंदोलन का एक नया चरण शुरू किया। उन्होंने भारतीय जनता से आह्वान किया कि वह “करो या मरो” के सिद्धांत पर चलते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध अहिंसक ढंग से संघर्ष करें। 

  • गांधीजी और अन्य नेताओं को जेल में डालने के बावजूद भी है आंदोलन फैलता गया। 
  • किसान और युवा, विद्यार्थी अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़कर आंदोलन में कूद पड़े।
  • देश भर में संचार तथा राजसत्ता के प्रतीकों पर हमले हुए। बहुत सारे इलाकों में लोगों ने अपनी सरकार का गठन कर लिया। 

1943 के अंत तक 90,000 से ज़्यादा लोग गिरफ़्तार कर लिए गए। लगभग 1,000 लोग पुलिस की गोली से मारे गए। बहुत सारे इलाकों में हवाई जहाज़ों से भीड़ पर गोलियाँ  बरसाए गए। परंतु आख़िरकार इस विद्रोह ने  ब्रिटिश राज को घुटने टेकने के लिए मज़बूर कर दिया। 

स्वतंत्रता और विभाजन की ओर

1930 के दशक के आखिरी सालों से लीग का मुसलमानों और हिंदुओं को अलग-अलग राष्ट्र मानने का कारण 20 और 30 के दशकों में हिंदुओं और मुसलमानों के कुछ संगठनों के बीच हुए तनाव और 1937 के प्रांतीय चुनाव थे।

  • 1937 में मुस्लिम लीग संयुक्त प्रांत में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनना चाहती थी परंतु कांग्रेस के इनकार करने से फासला और बढ़ गया।
  • इस कारण 1940 में मुस्लिम लीग ने देश के पश्चिमोत्तर तथा पूर्वी क्षेत्रों में मुसलमानों के लिए “स्वतंत्र राज्यों” की माँग करते हुए प्रस्ताव पारित किया।
  • 40 के दशक के शुरुआती सालों के जिस समय कांग्रेस के ज़्यादातर नेता जेल में थे, उस समय लीग ने अपना प्रभाव फैलाने के लिए तेज़ी से प्रयास किए।

➡ 1945 में विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद अंग्रेज़ों ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस और लीग से बातचीत शुरू कर दी। लीग के भारतीय मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि का दावा करने के कारण यह वार्ता असफल हो गई।

➡ 1946 में दोबारा प्रांतीय चुनाव हुए। “सामान्य” निर्वाचन क्षेत्रों में कांग्रेस का प्रदर्शन तो अच्छा रहा परंतु मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों पर लीग को बेजोड़ सफलता मिली। लीग “पाकिस्तान” की माँग पर चलती रही।

  • मार्च 1946 में ब्रिटिश सरकार ने इस माँग का अध्ययन करने और स्वतंत्र भारत के लिए एक सही राजनीतिक बंदोबस्त सुझाने के लिए तीन सदस्यीय परिसंघ भारत भेजा।
  • इस परिसंघ ने सुझाव दिया कि भारत अविभाजित रहे और उसे मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को कुछ स्वायत्तता देते हुए एक ढीले-ढाले महासंघ के रूप में संगठित किया जाए। 
  • कांग्रेस और मुस्लिम लीग, दोनों ही इस प्रस्ताव के कुछ ख़ास प्रावधानों पर सहमत नहीं थे।

कैबिनेट मिशन की इस विफलता के बाद मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग मनवाने के लिए जनांदोलन शुरू कर दिया। 16 अगस्त 1946 को “प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस” मनाया। इसी दिन कलकत्ता में दंगे भड़क उठे जिसमें हज़ारों लोग मारे गए। मार्च 1947 तक उत्तर भारत के विभिन्न भागों में भी हिंसा फैल गई थी।

  • कई लाख लोग मारे गए। असंख्य महिलाओं को विभाजन की इस हिंसा में अकथनीय अत्याचारों का सामना करना पड़ा।
  • करोड़ों लोगों को अपने घर-बार छोड़कर भागना पड़ा।
  • अपने मूल स्थानों से बिछड़कर यह लोग रातोंरात अजनबी ज़मीन पर शरणार्थी बनकर रह गए।
  • विभाजन का नतीजा यह भी हुआ कि भारत की शक्ल सूरत बदल गई, उसके शहरों का माहौल बदल गया और एक नए देश一पाकिस्तान का जन्म हुआ।

इस तरह ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता का यह आनंद विभाजन की पीड़ा और हिंसा के साथ हमारे सामने आया। 

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