Class 8 History Chapter 4 Notes In Hindi

अध्याय 4: आदिवासी, दीकु और एक स्वर्ण युग की कल्पना

जनजातीय समूह किस तरह जीते थे?

19वीं सदी तक देश के विभिन्न भागों में आदिवासी तरह-तरह की गतिविधियों में सक्रिय थे।

कुछ झूम खेती करते थे

  • कुछ समुदाय झूम खेती (घुमंतू खेती) करते थे। यह खेती जंगलों में छोटे-छोटे भूखंडों पर की जाती थी।
  • ज़मीन पर धूप लाने के लिए पेड़ों की ऊपरी हिस्से काट देते थे और ज़मीन पर उगी घास-फूस को जला कर मिली राख को खाली ज़मीन पर छिड़क देते थे। इस राख में पोटाश होती थी जिससे मिट्टी उपजाऊ हो जाती थी।
  • वे कुल्हाड़ों से पेड़ों को काटते और कुदालों से ज़मीन की ऊपरी सतह को खुरच देते थे। वे बीजो को बस खेत में बिखेर देते थे।
  • फ़सल तैयार होने के बाद वे उसे काटकर दूसरी जगह चले जाते थे। और वह जगह कई साल तक परती पड़ी रहती थी।
  • घुमंतू किसान मुख्य रूप से पूर्वोत्तर और मध्य भारत की पर्वतीय व जंगली पट्टियों में ही रहते थे।
  • इनकी ज़िंदगी जंगलों में बेरोकटोक आवाजाही और फ़सल उगाने के लिए ज़मीन और जंगलों के इस्तेमाल पर आधारित थी।

कुछ शिकारी और संग्राहक थे

  • बहुत सारे इलाकों में आदिवासी समूह पशुओं का शिकार करके और वन्य उत्पादों को इकट्ठा करके अपनी जीविका चलाते थे। जैसे: उड़ीसा के जंगलों में रहने वाला खोंड समुदाय।
  • इस समुदाय के लोग टोलियाँ बना कर शिकार करते और जो मिलता उसे आपस में बाँट लेते थे। जंगलों से मिले फल और जड़ें खाते थे।
  • खाना पकाने के लिए वे साल और महुआ के बीजों का तेल इस्तेमाल करते थे। इलाज के लिए जंगली जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल करते थे। जंगलों से इकट्ठा हुई चीज़ो को स्थानीय बाज़ारों में बेच देते थे।
  • बुनकर और चमड़ा कारीगर कपड़े व चमड़े की रँगाई के लिए कुसुम और पलाश के फूल खोंड समुदाय से ही लेते थे।
  • चावल और अन्य अनाज के लिए वे अपने कीमती वन उत्पादों से अदला-बदली करते थे और कई बार मुट्ठी भर आमदनी से खरीदते थे।
  • उनमें से कई लोग बोझा ढोने, सड़क निर्माण कार्यों में नौकरी और खेत में मजदूरी का काम करते थे। परंतु मध्य भारत के बैगा समुदाय मज़दूरी करना अपमान की बात मानते थे।
  • व्यापारी आदिवासियों को भारी कीमत पर चीज़ें बेचते थे। सूदखोर महाजन बहुत ज़्यादा ब्याज पर आदिवासियों को कर्ज़ा देते थे।
  • इस तरह बाज़ार और वाणिज्य ने आदिवासियों को कर्ज़ और गरीबी में धकेल दिया था। वे महाजनों और व्यापारियों को बाहरी शैतान और अपनी सारी मुसीबतों की जड़ मानने लगे थे।

कुछ जानवर पालते थे

बहुत सारे आदिवासी समूह चरवाहे थे जो मौसम के हिसाब से मवेशियों या भेड़ों के रेवड़ को लेकर यहाँ से वहाँ जाते रहते थे। एक जगह घास ख़त्म होने पर दूसरे इलाके में चले जाते थे।

➡ पंजाब के पहाड़ों में रहने वाले वन गुज्जर और आंध्र प्रदेश के लबाड़िया आदि समुदाय गाय-भैंस के झुंड पालते थे। कुल्लू के गद्दी समुदाय के लोग गड़रिये थे और कश्मीर के बकरवाल बकरियाँ पालते थे।

कुछ लोग एक जगह खेती करते थे

19वीं सदी से पहले ही बहुत सारे जनजातीय क़बीले हलों का इस्तेमाल कर एक जगह टिककर खेती करने लगे थे। छोटानागपुर के मुंडाओं की तरह ज़मीन पूरे क़बीले की संपत्ति होती थी। फिर भी, अक्सर कुल के कुछ लोग ज़्यादा ताकत जुटा कर मुखिया बन जाते थे और बाकी उनके अनुयायी होते थे। ताकतवर अकसर अपनी ज़मीन बँटाई पर दे देते थे।

➡ ब्रिटिश अफ़सरों को गोंड और संथाल जैसे एक जगह ठहरकर रहने वाले आदिवासी ज़्यादा सभ्य दिखाई देते थे। वह जंगलों में रहने वालों को जंगली और बर्बर मानते थे। अंग्रेज़ों को लगता था कि उन्हें स्थायी रूप से एक जगह बसाना और सभ्य बनाना ज़रूरी है।

औपनिवेशिक शासन से आदिवासियों के जीवन पर क्या असर पड़े?

आदिवासी मुखिया

अंग्रेजों के आने से पहले बहुत सारे इलाकों में आदिवासियों के मुखियाओं का महत्वपूर्ण स्थान होता था। उनके पास ज़्यादा आर्थिक ताकत, अपने इलाके पर नियंत्रण, और अपनी पुलिस होती थी। वे ज़मीन एवं वन प्रबंधन के स्थानीय नियम खुद बनाते थे।

➡ ब्रिटिश शासन के तहत आदिवासी मुखियाओं की शक्तियाँ छिन गईं। उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा बनाए गए नियमों को मानना पड़ा। अंग्रेजों को नज़राना देना पड़ा। अपने समूहों को अनुशासन में रखना पड़ा। उनके पास अब पहले जैसी ताकत नहीं रही। वे परंपरागत कामों को करने से लाचार हो गए।

घुमंतू काश्तकार

अंग्रेजों ने अपने शासन के लिए आमदनी प्राप्त करने के लिए ज़मीन को मापकर प्रत्येक व्यक्ति का हिस्सा और लगान तय कर दिया। कुछ किसानों को भूस्वामी और दूसरों को पट्टेदार घोषित कर दिया। पट्टेदार अपने भूस्वामियों को भाड़ा चुकाते थे और भूस्वामी सरकार को लगान देते थे।

झूम काश्तकारों को स्थायी रूप से बसाने की अंग्रेजों की कोशिश कामयाब नहीं रही क्योंकि जहाँ पानी कम हो और मिट्टी सूखी हो वहाँ हलों से खेती करना आसान नहीं था। उनके खेत अच्छी उपज नहीं देते थे। इसलिए पूर्वोत्तर राज्यों के झूम काश्तकारों के व्यापक विरोध के बाद अंग्रेजों ने उन्हें जंगल के कुछ हिस्सों में घुमंतू खेती की छूट दे दी।

वन कानून और उनके प्रभाव

अंग्रेज़ों ने जंगलों को राज्य की संपत्ति घोषित कर, कुछ जंगलों को आरक्षित वन घोषित कर दिया। ये ऐसे जंगल थे जहाँ अंग्रेज़ों की ज़रूरतों के लिए इमारती लकड़ी पैदा होती थी। इन जंगलों में लोगों को स्वतंत्र रूप से घूमने, झूम खेती करने, फल इकट्ठा करने या पशुओं का शिकार करने की इजाज़त नहीं थी। अब झूम काश्तकारों को मज़बूरन रोज़गार की तलाश में दूसरे इलाकों में जाना पड़ा।

➡ औपनिवेशिक अधिकारियों ने रेलवे स्लीपर्स के मजदूरों के इंतज़ाम के लिए झूम काश्तकारों को जंगल में खेती करने की छूट इस शर्त पर दी कि वह वन विभाग के लिए मज़दूरी करेंगे और जंगलों की देखभाल भी करेंगे।

बहुत सारे आदिवासी समूहों ने औपनिवेशिक वन कानूनों का विरोध किया और अपने तौर-तरीकों से ही चलते रहे। कई बार उन्होंने खुलेआम बग़ावत भी कर दी। 

  • 1906 में सोंग्रम संगमा द्वारा असम में
  • 1930 के दशक में मध्य प्रांत में वन सत्याग्रह

व्यापार की समस्या

18वीं सदी में भारतीय रेशम की यूरोपीय बाज़ारों में भारी माँग थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के अफ़सर इस माँग को पूरा करने के लिए रेशम उत्पादन पर ज़ोर देने लगे।

  • रेशम के व्यापारी अपने ऐजेंटों को भेजकर संथालो (जो रेशम के कीड़े पालते थेーझारखंड में हज़ारीबाग के आसपास) को कर्ज़े देते और उनके कृमिकोषों को इकट्ठा कर लेते थे।
  • 1000 कृमिकोषों को 3–4 रूपए में खरीद कर, बर्दवान या गया में 5 गुना कीमत पर बेचने पर बिचौलियों को जमकर मुनाफ़ा होता था।
  • जबकि रेशम उत्पादकों को बहुत मामूली फ़ायदा मिलता था। इसलिए बहुत सारे आदिवासी समुदाय बाज़ार और व्यापारियों को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने लगे थे।

काम की तलाश

19वीं सदी के आख़िर से ही चाय बाग़ान और खनन उद्योग महत्वपूर्ण हो गए थे। असम के चाय बाग़ानों और झारखंड की कोयला खदानों में काम करने के लिए आदिवासियों को ठेकेदारों द्वारा भर्ती किया जाता था। ये उन्हें बहुत कम वेतन देते थे और वापस घर भी नहीं जाने देते थे। 

आदिवासियों और जनजातियों की बग़ावत 

19वीं और 20वीं सदी के दौरान देश के विभिन्न भागों में जनजातीय समूहों ने बदलते कानूनों, अपने व्यवहार पर लगी पाबंदियों, नए करों और व्यापारियों व महाजनों द्वारा किए गए शोषण के खिलाफ़ कई बार बग़ावत की।

  • कोल आदिवासियों का विद्रोह 1831ー1832
  • संथालों का विद्रोह 1855
  • मध्य भारत में बस्तर विद्रोह 1910
  • महाराष्ट्र में वर्ली विद्रोह 1940

बिरसा मुंडा

  • बिरसा का जन्म (15 नवम्बर 1875) एक मुंडा परिवार में हुआ था। यह एक जनजातीय समूह है जो छोटानागपुर (झारखंड) में रहता है।
  • बिरसा का बचपन भेड़-बकरियाँ चराते, बाँसुरी बजाते और स्थानीय अखाड़ों में नाचते-गाते बीता था। उनकी परवरिश मुख्य रूप से बोहोंडा के आसपास जंगलों में हुई थी।
  • गरीबी से लाचार बिरसा के पिता को काम की तलाश में जगह-जगह भटकना पड़ता था। बचपन में ही बिरसा ने अतीत में हुए मुंडा विद्रोहों की कहानियाँ सुन ली थी।
  • बिरसा के समुदाय के लोग एक ऐसे स्वर्ण युग की बात करते थे जब मुंडा लोग दीकुओं के उत्पीड़न से आजाद थे। वे लोगों को याद दिलाते थे कि उन्हें अपना साम्राज्य वापस पाना है।
  • बिरसा ने मिशनरियों के उपदेश सुने और कुछ समय वैष्णव धर्म प्रचारक के साथ बिताया।

➡ बिरसा का आंदोलन आदिवासी समाज को सुधारने का आंदोलन था। उन्होंने मुंडाओं से आह्वान किया कि वे शराब पीना छोड़ दें, गाँवों को साफ़ रखें और डायन व जादू-टोन में विश्वास न करें। उन्होंने मिशनरियों और ज़मींदारों का भी लगातार विरोध किया।

➡ लोग कहते थे कि बिरसा के पास चमत्कारी शक्तियाँ हैंーवह सारी बीमारियाँ दूर कर सकता था और अनाज की छोटी-सी ढेरी को कई गुना बढ़ा देता था। बिरसा ने कहा कि उसे भगवान ने लोगों की रक्षा और दीकुओं (बाहरी लोगों) की ग़ुलामी से आज़ाद कराने के लिए भेजा है।

  • 1895 में बिरसा ने अपने अनुयायियों को गौरवपूर्ण अतीत को पुनर्जीवित करने के लिए संकल्प दिलाया।
  • 1895 में अंग्रेजों ने बिरसा को गिरफ़्तार कर दंगे-फ़साद के आरोप में 2 साल की सज़ा सुनायी।
  • 1897 में जेल से आने के बाद बिरसा ने समर्थन जुटाते हुए गाँव-गाँव घूम कर परंपरागत प्रतीकों और भाषा का इस्तेमाल किया।
  • बिरसा के अनुयायियों ने दीकु और यूरोपीय सत्ता प्रतीकों थाने और चर्चों पर हमले किए और महाजनों व ज़मींदारों की संपत्तियों पर धावा बोल दिया।
  • सफ़ेद झंडा बिरसा राज का प्रतीक था। सन 1900 में बिरसा की हैज़े से मृत्यु हो गई। 

➡ यह आंदोलन मिशनरियों, महाजनों, भूस्वामियों और सरकार को बाहर निकालकर बिरसा के नेतृत्व में मुंडा राज स्थापित करना चाहता था। बिरसा की मृत्यु के बाद आंदोलन ठंडा पड़ गया। परंतु औपनिवेशिक सरकार ने आदिवासियों की ज़मीन को दीकुओं के कब्ज़े से बचाने के लिए कानून लागू किए। और अन्याय का विरोध कर औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध आंदोलन ने आदिवासियों की हिम्मत को दर्शाया। 

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