अध्याय 2: व्यापार से साम्राज्य तक कंपनी की सत्ता स्थापित होती है
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Toggleऔरंगज़ेब मुगल बादशाहों में आख़िरी शक्तिशाली बादशाह थे। उनका नियंत्रण वर्तमान भारत के एक बहुत बड़े हिस्से पर था। 1707 में उनकी मृत्यु के बाद बहुत सारे मुग़ल सूबेदार और बड़े-बड़े ज़मीदारों ने अपनी रियासतें कायम कर ली थी। इस कारण दिल्ली अधिक दिनों तक प्रभावी केंद्र के रूप में नहीं रह सकी। 18वीं सदी के उत्तरार्ध तक राजनीतिक क्षितिज पर अंग्रेज़ों की ताकत उभरने लगी थी।
पूर्व में ईस्ट इंडिया कंपनी का आना
सन 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी में इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम से चार्टर (इज़ाज़तनामा) हासिल कर लिया जिससे कंपनी को पूर्व से व्यापार करने का एकाधिकार मिल गया।
➡ इसका मतलब यह था कि इंग्लैंड की कोई और व्यापारिक कंपनी इस इलाके में ईस्ट इंडिया कंपनी से होड़ नहीं कर सकती थी। इस चार्टर के सहारे कंपनी समुद्र पार जाकर नए इलाकों को ढूँढ़ कर, वहाँ से सस्ती कीमत पर चीज़ें खरीद कर, उन्हें यूरोप में ऊँची कीमत पर बेच सकती थी।
- वास्को द गामा (पुर्तगाल का खोजी यात्री) ने 1498 में पहली बार भारत तक पहुुँचने के समुद्री मार्ग का पता लगाया था।
- 17वीं सदी की शुरुआत तक डच, फिर कुछ ही समय बाद फ्रांसीसी व्यापारी भी हिंद महासागर में व्यापार की संभावनाएँ तलाशने लगे थे।
➡ यूरोप के बाज़ारों में भारत के बने बारीक सूती कपड़े, रेशम, काली मिर्च, लौंग, इलायची और दालचीनी की ज़बरदस्त माँग रहती थी। यूरोपीय कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ने से भारतीय बाज़ारों में इन चीज़ों की कीमतें बढ़ने लगीं और उनसे मिलने वाला मुनाफ़ा गिरने लगा।
➡ अब व्यापारिक कंपनियाँ अपनी प्रतिस्पर्धी कंपनियों को ख़त्म करने के लिए 17वीं और 18वीं सदी में मौका मिलने पर एक कंपनी किसी दूसरी कंपनी के जहाज़ डूबो देती, रास्ते में रुकावटें खड़ी कर देती और माल से लदे जहाज़ों को आगे बढ़ने से रोक देती।
➡ यह व्यापार हथियारों की मदद से चल रहा था और व्यापारिक चौकियों को किलेबंदी के ज़रिए सुरक्षित रखा जाता था। इस कारण स्थानीय शासकों से भी टकराव होने लगे। इस प्रकार, व्यापार और राजनीति को एक-दूसरे से अलग रखना कंपनी के लिए मुश्किल होता जा रहा था।
ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल में व्यापार शुरू करती है
1651 में हुगली नदी के किनारे पहली इंग्लिश फैक्टरी शुरू हुई। कंपनी के व्यापारी (फैक्टर) यहीं से अपना काम चलाते थे। इस फैक्टरी में वेयरहाउस था जहाँ निर्यात होने वाली चीज़ों को जमा किया जाता था यहीं पर उनके दफ़्तर थे जिसमें कंपनी के अफ़सर बैठते थे।
➡ जैसे-जैसे व्यापार फैला कंपनी ने सौदागरों और व्यापारियों को फैक्टरी के आसपास आकर बसने के लिए प्रेरित किया। यहाँ 1696 तक किला बनाना शुरू कर दिया गया। 1698 में कंपनी ने तीन गाँवों सुतानाटी, कालीकाता और गोविंदपुर की जमींदारी ख़रीद ली।
➡ कंपनी ने औरंगज़ेब से बिना शुल्क चुकाए व्यापार करने का फ़रमान जारी करवा लिया। इस फरमान से केवल कंपनी को ही शुल्क मुक्त व्यापार का अधिकार मिला था। कंपनी के निजी तौर पर व्यापार चलाने वाले अफ़सरों ने भी शुल्क चुकाने से इनकार कर दिया। इस कारण बंगाल में राजस्व वसूली बहुत कम हो गई।
व्यापार से युद्धों तक
18वीं सदी की शुरुआत में कंपनी और बंगाल के नवाबों का टकराव काफ़ी बढ़ गया था। मुर्शिद कुली खान, अली वर्दी खान उसके बाद सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब बने।
- उन्होंने कंपनी को रियायतें देने से मना कर दिया।
- व्यापार का अधिकार देने के बदले कंपनी से नज़राने माँगे।
- उसे सिक्के ढालने का अधिकार नहीं दिया, उसकी किलेबंदी रोक दी।
- उन्होंने दलील दी कि कंपनी की धोखाधड़ी की वजह से बंगाल सरकार की राजस्व वसूली कम होती जा रही है।
➡ कंपनी टैक्स चुकाने को तैयार नहीं थी, उसके अफ़सरों ने अपमानजनक चिट्ठियाँ लिखीं और नवाबों व उसके अधिकारियों को अपमानित करने का प्रयास किया। कंपनी का कहना था कि स्थानीय अधिकारियों की माँगों से कंपनी का व्यापार तबाह हो रहा है। व्यापार तभी फल-फूल सकता है जब सरकार शुल्क हटा दे।
प्लासी का युद्ध
1756 में अली वर्दी खान की मृत्यु के बाद सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब बने। कंपनी सिराजुद्दौला की जगह कठपुतली नवाब चाहती थी। पर कंपनी को कामयाबी नहीं मिलाी।
➡ जवाब में सिराजुद्दौला ने हुक्म दिया कि कंपनी उसके राज्य के राजनीतिक मामलों में टाँग अड़ाना बंद कर दे, किलेबंदी रोके और बाकायदा राजस्व चुकाए।
- नवाब ने 30,000 सिपाहियों के साथ कासिम बाज़ार में स्थित इंग्लिश फैक्ट्ररी पर हमला बोल दिया।
- नवाब की फौज़ों ने कंपनी के अफ़सरों को गिरफ़्तार कर लिया, गोदाम पर ताला डाल दिया, अंग्रेज़ों के हथियार छीन लिए और अंग्रेज़ी जहाज़ों को घेरे में ले लिया।
- इसके बाद नवाब ने कंपनी के कलकत्ता स्थित किले पर कब्ज़े के लिए उधर का रुख किया।
- कलकत्ता स्थित किले को बचाने के लिए मद्रास में तैनात कंपनी के अफ़सरों ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में सेनाओं को रवाना कर दिया।
1757 में रॉबर्ट क्लाइव ने प्लासी के मैदान में सिराजुद्दौला को हरा दिया। इसका एक बड़ा कारण सेनापति मीर जाफ़र की धोखेबाज़ी थी। नवाब बनने के लालच में उसने रॉबर्ट क्लाइव से हाथ मिला लिया था।
भारत में कंपनी की पहली जीत के कारण प्लासी की जंग महत्वपूर्ण मानी जाती है। प्लासी की जंग के बाद सिराजुद्दौला को मार दिया गया और मीर जाफ़र नवाब बना।
- जब मीर जाफ़र ने कंपनी का विरोध किया तो कंपनी ने उसे हटाकर मीर कासिम को नवाब बना दिया।
- मीर कासिम के परेशान करने पर बक्सर की लड़ाई (1764)में हरा का उसे भी बंगाल से बाहर कर दिया गया और मीर जाफ़र को दोबारा नवाब बनाया गया।
- अब नवाब को हर महीने 5 लाख रूपये कंपनी को चुकाने थे। 1765 में मीर जाफ़र की मृत्यु के बाद कंपनी ने खुद ही नवाब बनने का इरादा कर लिया।
- 1765 में मुग़ल सम्राट ने कंपनी को ही बंगाल प्रांत का दीवान नियुक्त कर दिया। इससे कंपनी को बंगाल के विशाल राजस्व संसाधनों पर नियंत्रण मिल गया था।
➡ 18वीं सदी की शुरुआत से ही कंपनी भारत से चीज़े खरीदने के लिए ब्रिटेन से सोना और चाँदी लाती थी। प्लासी के जंग के बाद ब्रिटेन से सोने की निकासी कम होने लगी और बंगाल की दीवानी मिलने के बाद तो ब्रिटेन से सोना लाने की ज़रूरत ही नहीं रही।
➡ अब भारत से होने वाली आमदनी के सहारे ही कंपनी अपने खर्चे चला सकती थी। भारत में सूती और रेशमी कपड़ा ख़रीद सकती थी, अपनी फ़ौज़ों को सँभाल सकती थी और कोलकाता में किलों और दफ़्तरों के निर्माण की लागत उठा सकती थी।
कंपनी के अफ़सर “नबॉब” बन बैठे
प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल के असली नवाबों को बाध्य किया गया कि वे कंपनी के अफ़सरों को निजी तोहफ़े के तौर पर ज़मीन और बहुत सारा पैसा दें।
➡ रॉबर्ट क्लाइव जो भारत में दो बार गवर्नर-जनरल बना, बेहिसाब दौलत जमा कर ली थी। गवर्नर के दूसरे कार्यकाल में उसे कंपनी के भीतर भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का काम सौंपा गया था। लेकिन 1772 में ब्रिटिश संसद में उसे खुद भ्रष्टाचार के आरोपों पर अपनी सफ़ाई देनी पड़ी। उसे भ्रष्टाचार आरोपों से बरी तो कर दिया गया लेकिन 1774 में उसने आत्महत्या कर ली।
➡ कंपनी के सभी अफ़सर क्लाइव की तरह दौलत इकट्ठा नहीं कर पाए। उनमें से बहुत सारे अफ़सर साधारण परिवारों से आए थे। उनकी इच्छा भारत में ठीक-ठाक पैसा कमाना और ब्रिटेन लौटकर आराम की ज़िंदगी बसर करना था। जो जीते जी धन-दौलत लेकर वापस लौट गए उन्होंने वहाँ आलीशान जीवन जिया। उन्हें वहाँ के लोग “नबॉब” कहते थे।
कंपनी का फैलता शासन
1757 से 1857 के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा भारतीय राज्यों पर कब्ज़े की प्रक्रिया में कंपनी ने सीधे सैनिक हमला नहीं किया। बल्कि उसने किसी भी भारतीय रियासत का अधिग्रहण करने से पहले विभिन्न राजनितिक, आर्थिक और कूटनीतिक साधनों का प्रयोग किया।
➡ बक्सर की लड़ाई (1764) के बाद कंपनी ने भारतीय रियासतों में रेज़िडेंट तैनात कर दिए। ये कंपनी के राजनीतिक या व्यावसायिक प्रतिनिधि होते थे। उनका काम कंपनी के हितों की रक्षा करना और उन्हें आगे बढ़ाना था। रेज़िडेंट के माध्यम से कंपनी के अधिकारी भारतीय राज्यों के भीतरी मामलों में भी दखल देने लगे थे।
“सहायक संधि”
- कंपनी ने सहायक संधि बंदोबस्त के जरिए रियासतों को अपने कब्जे में किया।
- जो रियासत इस बंदोबस्त को मान लेती थी उसे अपनी स्वतंत्र सेनाएँ रखने का अधिकार नहीं रहता था।
- उसे कंपनी की तरफ़ से सुरक्षा मिलती थी और “सहायक सेना” के रखरखाव के लिए वह कंपनी को पैसा देती थी।
- अगर भारतीय शासक रकम अदा करने में चूक जाते थे तो जुर्माने के तौर पर उनका इलाका कंपनी अपने कब्ज़े में कर लेती थी।
जब रिचर्ड वेलेज़ली गवर्नर-जनरल (1798-1805) था। उस समय (1801 में) अवध के नवाब “सहायक सेना” के पैसे देने में चूक गए थे जिस कारण उन्हें अपना आधा इलाका कंपनी को देना पड़ा। इसी तरह हैदराबाद के भी कई इलाके छीन लिए गए।
टीपू सुल्तान – “शेर-ए-मैसूर”
हैदर अली (शासनकाल 1761-1782) और उनके पुत्र टीपू सुल्तान (शासनकाल 1782-1799) जैसे शक्तिशाली शासकों के नेतृत्व में मैसूर काफ़ी ताकतवर हो चुका था।
➡ मैसूर रियासत के नियंत्रण में मालाबार तट पर होने वाला व्यापार था जहाँ से कंपनी काली मिर्च और इलायची ख़रीदती थी। 1785 में टीपू सुल्तान ने अपनी रियासत में पड़ने वाले बंदरगाहों से चंदन की लकड़ी, काली मिर्च और इलायची का निर्यात रोक दिया।
➡ सुल्तान ने स्थानीय सौदागरों को भी कंपनी के साथ कारोबार करने से रोक दिया था। टीपू सुल्तान ने भारत में रहने वाले फ्रांसीसी व्यापारियों से घनिष्ठ संबंध विकसित कर उनकी मदद से अपनी सेना का आधुनिकीकरण किया।
सुल्तान के इन कदमों की वजह से मैसूर के साथ अंग्रेज़ों की चार बार जंग हुई:
- पहला अंग्रेज़-मैसूर युद्ध (1767-1769)
- दूसरा अंग्रेज़-मैसूर युद्ध (1780-1784)
- तीसरा अंग्रेज़-मैसूर युद्ध (1790-1792)
- चौथा अंग्रेज़-मैसूर युद्ध (1799)
श्रीरंगपट्म की आख़िरी जंग में कंपनी को सफलता मिली। अपनी राजधानी की रक्षा करते हुए टीपू सुल्तान मारे गए और मैसूर का राजकाज पुराने वोडियार राजवंश के हाथों में सौंप दिया गया। इसके साथ ही मैसूर पर भी सहायक संधि थोप दी गई।
मराठों से लड़ाई
1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में हारने के बाद दिल्ली से देश का शासन चलाने का मराठों का सपना टूट गया। उन्हें कई राज्यों में बाँट दिया गया। इन राज्यों की बागडोर सिंधिया, होलकर, गायकवाड और भोंसले जैसे अलग-अलग राजवंशों के हाथों में थी।
➡ ये सारे सरदार एक पेशवा (सर्वोच्च मंत्री) के अंतर्गत एक कन्फ़ेडरेसी (राज्यमंडल) के सदस्य थे। पेशवा इस राज्य मंडल का सैनिक और प्रशासकीय प्रमुख होता था और पुणे में रहता था। 18वीं सदी के आखिर के दो प्रसिद्ध मराठा योद्धा और राजनीतिज्ञ महादजी सिंधिया और नाना फड़नीस थे।
- पहला अंग्रेज़-मराठा युद्ध 1775 – 1782 ई.
1782 में सालबाई संधि के साथ ख़त्म हुआ जिसमे कोई पक्ष नहीं जीत पाया।
- दूसरा अंग्रेज़-मराठा युद्ध 1803 – 1805 ई.
इसका नतीजा यह हुआ कि उड़ीसा और यमुना के उत्तर में स्थित आगरा व दिल्ली सहित कई भूभाग अंग्रेजों के कब्ज़े में आ गए।
- तीसरा अंग्रेज़-मराठा युद्ध 1817 – 1819 ई.
इस युद्ध में मराठों की ताकत को पूरी तरह खत्म कर दिया। पेशवा को पुणे से हटाकर कानपुर के पास बिठूर में पेंशन पर भेज दिया गया। अब विंध्य के दक्षिण में स्थित पूरे भूभाग पर कंपनी का नियंत्रण हो चुका था।
सर्वोच्चता का दावा
लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-1823 तक गवर्नर-जनरल) ने सर्वोच्चता की एक नई नीति के अंतर्गत अपने आप को भारतीय राज्यों से ऊपर बताया। अपने हितों की रक्षा के लिए वह भारतीय रियासतों का अधिग्रहण करने या उनको अधिग्रहण की धमकी देने का अधिकार अपने पास मानती थी।
➡ लेकिन जब अंग्रेजों ने कित्तूर (कर्नाटक में) के छोटे से राज्य को कब्ज़े में लेने का प्रयास किया तो रानी चेन्नम्मा ने हथियार उठा लिए और अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया।
- 1824 में उन्हें गिरफ़्तार किया गया और 1829 में जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई।
- चेन्नम्मा के बाद कित्तूर स्थित संगोली के एक गरीब चौकीदार रायन्ना ने यह प्रतिरोध जारी रखा।
- चौतरफ़ा समर्थन और सहायता से उन्होंने बहुत सारे ब्रिटिश शिविरों और दस्तावेज़ों को नष्ट कर दिया था।
- अंत में उन्हें भी अंग्रेज़ों ने पकड़कर 1830 में फाँसी पर लटका दिया।
➡ 1830 के दशक के अंत में ईस्ट इंडिया कंपनी रूस के प्रभाव से बहुत डरी हुई थी। इसलिए अब उत्तर-पश्चिमी भारत पर भी अपना कब्ज़ा चाहती थी। उन्होंने 1838 से 1842 के बीच अफगानिस्तान के साथ एक लंबी लड़ाई लड़ी और वहाँ अपना अप्रत्यक्ष कंपनी शासन स्थापित कर लिया। 1843 में सिंध भी कब्ज़े में आ गया।
➡ 1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद कंपनी ने पंजाब के रियासत के साथ दो लंबी लड़ाइयाँ लड़ी। और अंत में 1849 में अंग्रेजों ने पंजाब का भी अधिग्रहण कर लिया।
विलय नीति
लॉर्ड डलहौज़ी (1848-1856 के बीच गवर्नर-जनरल) ने विलय की नीति अपनाई। जिसके अंतर्गत अगर किसी शासक की मृत्यु हो जाती है और उसका कोई पुरुष वारिस नहीं है तो उसकी रियासत हड़प ली जाएगी। यानी कंपनी के भूभाग का हिस्सा बन जाएगी।
इस सिद्धांत के आधार पर एक के बाद एक कई रियासतें अंग्रेज़ों के हाथ में चली गई।
- सतारा (1848)
- संबलपुर (1850)
- उदयपुर (1852)
- नागपुर (1853)
- झाँसी (1854)
1856 में कंपनी ने अवध के नवाब पर “कुशासन” का आरोप लगाकर अवध को अपने नियंत्रण में ले लिया।
नए शासन की स्थापना
वॉरेन हेस्टिंगस (गवर्नर-जनरल 1773-1785) ने कंपनी की ताकत फैलाने में अहम भूमिका निभाई। उसके समय तक आते-आते कंपनी बंगाल, मुंबई, और मद्रास (प्रेज़िडेंसी-प्रशासकीय इकाइयाँ) तक सत्ता हासिल कर चुकी थी।
➡ हर एक प्रेज़िडेंसी का शासन गवर्नर के पास होता था। सबसे ऊपर गवर्नर-जनरल होता था। वॉरेन हेस्टिंगस ने कई प्रशासकीय और न्याय के क्षेत्र में सुधार किए। 1772 में एक नई न्याय व्यवस्था स्थापित की गई। जिसमें हर जिले में दो अदालतें一फौज़दारी अदालत और दीवानी अदालत थी।
➡ दीवानी अदालतों के मुखिया यूरोपीय ज़िला कलेक्टर होते थे। मौलवी और हिंदू पंडित उनके लिए भारतीय कानूनों की व्याख्या करते थे। फ़ौजदारी अदालतें अभी भी काज़ी और मुफ़्ती के ही अंतर्गत थीं लेकिन वे भी कलेक्टर की निगरानी में काम करते थे।
➡ ब्राह्मण पंडित धर्मशास्त्र की अलग-अलग शाखाओं के हिसाब से स्थानीय कानूनों की अलग-अलग व्याख्या कर देते थे। इसमें समरूपता लाने के लिए 1775 में 11 पंडितों को भारतीय कानूनों का एक संकलन तैयार किया। एन.बी. हालहेड ने इस संकलन का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। 1778 तक यूरोपीय न्यायाधीशों के लिए मुस्लिम कानूनों की भी एक संहिता तैयार कर ली गई थी।
1773 के रेग्युलेटिंग ऐक्ट के तहत एक नए सर्वोच्च न्यायालय, और कलकत्ता में अपीलीय अदालत一सदर निज़ामत अदालत की स्थापना की गई।
➡ भारतीय ज़िले में कलेक्टर सत्ता और संरक्षण का नया केंद्र बन गया था। उसका काम लगान और कर इकट्ठा करना तथा न्यायाधीशों, पुलिस अधिकारियों व दारोगा की मदद से ज़िले में कानून-व्यवस्था बनाए रखना था।
कंपनी की फ़ौज
मुगल फ़ौज मुख्य रूप से घुड़सवार और पैदल सेना थी। उन्हें तीरंदाज़ी और तलवारबाज़ी का प्रशिक्षण दिया जाता था। सेना में सवारों का दबदबा होने से पैदल सेना की ज़रूरत महसूस नहीं होती थी। ग्रामीण इलाकों में सशस्त्र किसानों की बड़ी संख्या थी। स्थानीय ज़मींदार मुग़लों को ज़रूरत पड़ने पर पैदल सिपाही मुहैया कराते थे।
कंपनी ने 18वीं सदी में अवध और बनारस जैसी रियासतों में किसानों को भर्ती करके पेशेवर सैनिक प्रशिक्षण दिया जाने लगा। अंग्रेज अपनी सेना को सिपॉय (सिपाही) आर्मी कहते थे।
➡ 1820 के दशक से युद्ध तकनीक बदलने के कारण कंपनी की सेना में घुड़सवार टुकड़ियों की जगह पैदल टुकड़ियाँ ज़्यादा महत्वपूर्ण होती जा रही थी। इसकी वजह यह थी कि ब्रिटिश साम्राज्य बर्मा, अफगानिस्तान और मिस्र में लड़ रहा था जहाँ सिपाही मस्केट (तोड़ेदार बंदूक) और मैचलॉक से लैस होते थे।
➡ 19वीं सदी की शुरुआत में कंपनी सिपाहियों को यूरोपीय ढंग का प्रशिक्षण, अभ्यास और अनुशासन सिखाने लगा। उनके जीवन को ज़्यादा नियंत्रित किया गया। उन्होंने पेशेवर सिपाहियों की सेना खड़ा करने के चक्कर में जाति और समुदाय की भावनाओं को नज़रअंदाज़ कर देते थे।
निष्कर्ष
ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारिक कंपनी से बढ़ते-बढ़ते एक भौगोलिक औपनिवेशिक शक्ति बन गई। 1857 तक भारतीय उपमहाद्वीप के 63% भूभाग और 78% आबादी पर कंपनी का सीधा शासन स्थापित हो चुका था। देश के शेष भूभाग और आबादी पर कंपनी का अप्रत्यक्ष प्रभाव था।
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अध्याय 4: आदिवासी, दीकु और एक स्वर्ण युग की कल्पना
अध्याय 5: जब जनता बग़ावत करती है 1857 और उसके बाद
अध्याय 6: “देशी जनता” को सभ्य बनाना राष्ट्र को शिक्षित करना
अध्याय 7: महिलाएँ, जाति एवं सुधार
अध्याय 8: राष्ट्रीय आंदोलन का संघटन : 1870 के दशक से 1947 तक
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