अध्याय 2: राजा और उनके राज्य
नए राजवंशों का उदय
उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में 7वीं सदी तक बड़े भूस्वामी और योद्धा-सरदार अस्तित्व में आ चुके थे। राजाओं द्वारा उन्हें मातहत या सामंत के रूप में माना जाता था। उनसे उपहार लाने, दरबार में हाज़िरी लगाने और सैन्य सहायता प्रदान करने की उम्मीद की जाती थी।
➡ अधिक सत्ता और संपदा हासिल करने पर सामंत अपने-आप को महासामंत, महामंडलेश्वर (पूरे मंडल का महान स्वामी) घोषित कर देते थे। कभी-कभी वे अपने स्वामी से स्वतंत्र होने का दावा भी करते थे।
उदाहरण:- 8वीं सदी के मध्य में एक राष्ट्रकूट प्रधान दंतीदुर्ग ने अपने चालुक्य स्वामी की अधीनता से इंकार कर दिया, उसे हराया और हिरण्यगर्भ नामक एक अनुष्ठान किया।
➡ ब्राह्मणों की मदद से इस अनुष्ठान को करने से याजक (जन्मना क्षत्रिय न होते हुए भी क्षत्रिय के रूप में दुबारा क्षत्रियत्व प्राप्त कर लेना) बन जाता था।
कुछ उद्यमी परिवारों के पुरुष जैसे:- कदंब मयूरशर्मण और गुर्जर-प्रतिहार हरिचंद्र ब्राहमण थे, जिन्होंने अपने परंपरागत पेशे को छोड़कर शस्त्र को अपनाया और क्रमश: कर्नाटक और राजस्थान में अपने राज्य स्थापित किए।
राज्यों में प्रशासन
कइयों राजाओं ने महाराजाधिराज (राजाओं के राजा), त्रिभुजन-चक्रवर्तिन (तीन भुवनों का स्वामी) आदि उपाधियाँ धारण कीं। वे अपने सामंतों और किसानों, व्यापारी तथा ब्राह्मणों के संगठनों के साथ अपनी सत्ता की साझेदारी करते थे।
- किसानों, पशुपालकों, कारीगरों से संसाधन इकट्ठे किए जाते थे और व्यापारियों से भी राजस्व लिया जाता था।
- ये संसाधन राजा की व्यवस्था का वित्तीय आधार बनकर, मंदिरों और दुर्गों के निर्माण और युद्धों को लड़ने में प्रयोग हुए।
- युद्धों में लूट की शक्ल में धन मिलने तथा ज़मीन और व्यापारिक मार्गों के प्रयोग की संभावनाएँ बनी।
- राजस्व-वसूली के लिए पदाधिकारियों की नियुक्ति प्रभावशाली परिवारों से की जाती थी। जो प्राय: वंशानुगत होती थी।
प्रशस्तियाँ और भूमि-अनुदान
ब्राह्मणों द्वारा रची प्रशस्तियों में शासक को शूरवीर, विजयी योद्धा के रूप में दर्शाया जाता था। ब्राह्मणों को राजाओं से भूमि अनुदान मिलते थे, जो ताम्र पत्रों पर अभिलिखित होते थे। यह भूमि पाने वाले को दिया था।
➡ 12वीं शताब्दी में कल्हण नामक रचनाकार ने संस्कृत में कश्मीर पर शासन करने वाले राजाओं का इतिहास ‘राजतरंगिणी’ में लिखा है।
- उसने अपना वृत्तांत लिखने के लिए शिलालेखों, दस्तावेज़ों, प्रत्यक्षदर्शियों के वर्णनों और पहले के इतिहासों समेत अनेक तरह के स्रोतों का इस्तेमाल किया है।
- वह अकसर शासकों और उनकी नीतियों के बारे में आलोचनात्मक रुख दिखलाता है।
त्रिपक्षीय संघर्ष
गुर्जर-प्रतिहार, राष्ट्रकूट और पाल वंशों के शासक सदियों तक कन्नौज के ऊपर नियंत्रण के लिए आपस में लड़ते रहे। इतिहासकारों ने इसे ‘त्रिपक्षीय संघर्ष’ कहा है।
➡ शासकों ने बड़े मंदिरों का निर्माण करवा कर अपनी सत्ता और संसाधनों का प्रदर्शन किया। जब भी वे एक-दूसरे के राज्यों पर आक्रमण करते तो मंदिरों को भी अपना निशाना बनाते, जो बहुत अधिक संपन्न होते थे।
- ग़ज़नी (अफ़गानिस्तान) का शासक महमूद, उसने धार्मिक पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर उपमहाद्वीप पर 17 बार (1000-1025 ई.) हमला किया। उसने संपन्न मंदिरों (गुजरात का सोमनाथ मंदिर) को निशाना बनाया। महमूद जो धन उठा ले गया, उसका बहुत बड़ा हिस्सा ग़ज़नी में एक वैभवशाली राजधानी के निर्माण में खर्च किया।
- चाहमान (चौहान) दिल्ली और अजमेर के आस-पास के क्षेत्र प्रशासन करते थे। उन्हें गुजरात के चालुक्यों और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गहड़वालों से टक्कर लेनी पड़ी। चाहमान शासक पृथ्वीराज तृतीय (1168-1192), जिसने सुल्तान मुहम्मद गोरी (अफ़गान शासक) को 1191 में हराया, लेकिन दूसरे ही साल 1192 में उसके हाथों हार गया।
चोल राज्य一नज़दीक से एक नज़र
उरैयूर से तंजावूर तक
कावेरी डेल्टा में मुट्टियार (छोटे-से मुखिया परिवार) की सत्ता थी। वे कांचीपुरम के पल्लव राजाओं के मातहत थे। उरइयार के चोलवंशीय प्राचीन मुखिया परिवार के विजयालय ने 9वीं सदी के मध्य में मुट्टियारों को हरा कर डेल्टा पर कब्ज़ा किया। उसने वहाँ तंजावूर शहर और निशुम्भसूदिनी देवी का मंदिर बनवाया।
- विजयालय के उत्तराधिकारियों ने दक्षिण (पांड्यन) और उत्तर (पल्ल्व) के इलाकों को जीतकर अपने राज्य का हिस्सा बना लिया।
- राजराज प्रथम (शक्तिशाली चोल शासक) 985 में राजा बना, उसने ज़्यादातर क्षेत्रों पर अपने नियंत्रण का विस्तार किया और साम्राज्य के प्रशासन का पुनर्गठन भी किया।
- राजराज के पुत्र राजेंद्र प्रथम ने उसकी नीतियों को जारी रखा और उसने गंगा घाटी, श्रीलंका तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों पर हमला भी किया। इन अभियानों के लिए उसने एक जलसेना भी बनाई।
भव्य मंदिर और कांस्य मूर्तिकला
राजराज और राजेंद्र प्रथम द्वारा बनवाए गए तंजावूर और गंगईकोंडचोलपुरम के बड़े मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला की दृष्टि से एक चमत्कार है।
- चोल मंदिर अपने आस-पास विकसित होने वाली बस्तियों और शिल्प-उत्पादन के केंद्र बन गए थे।
- ये मंदिर शासकों और अन्य लोगों द्वारा दी गई भूमि से संपन्न हो गए थे।
- इस भूमि की उपज पुरोहित, मालाकार, बावर्ची, मेहतर, संगीतकार, नर्तक आदि के निर्वाह करने में खर्च होती थी।
- ये मंदिर के आस-पास रहते और काम करते थे। मंदिर पूजा-आराधना के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के केंद्र भी थे।
चोल कांस्य प्रतिमाएँ संसार की सबसे उत्कृष्ट कांस्य प्रतिमाओं में गिनी जाती हैं। देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के साथ-साथ कुछ प्रतिमाएँ भक्तों की भी बनाई जाती थीं।
कृषि और सिंचाई
कावेरी नदी बंगाल की खाड़ी में मिलने से पहले कई छोटी-छोटी शाखाओं में बँट जाती है इस कारण किनारों पर उपजाऊ मिट्टी जमा होती रहती है, जो चावल की खेती के लिए बहुत उपयुक्त है।
तमिलनाडु के दूसरे हिस्सों में कृषि पहले ही विकसित हो चुकी थी, पर 5वीं या 6ठी सदी में आकर ही इस इलाके में बड़े पैमाने पर खेती शुरू हुई।
- खेती के लिए कुछ जंगलों को साफ़ किया गया। दूसरे इलाक़ों में ज़मीन को समतल किया गया।
- डेल्टा क्षेत्रों में बाढ़ को रोकने के लिए तटबंध बनाए गए।
- पानी को खेतों तक ले जाने के लिए नहरों का निर्माण हुआ। कई क्षेत्रों में एक साल में दो फ़सलें उगाई गई।
- कई जगहों पर फ़सलों की सिंचाई कृत्रिम रूप से करने के लिए कुँए खोदे गए।
- बारिश के पानी को इकट्ठा करने के लिए विशाल सरोवर बनाए गए।
साम्राज्य का प्रशासन
किसानों की बस्तियों को ‘उर’ कहते थे। इस तरह के गाँवों के समूह को ‘नाडु’ कहा जाता था। ग्राम परिषद और नाडु, न्याय करने और कर वसूलने जैसे कई प्रशासनिक कार्य करते थे।
➡ धनी किसानों का ‘नाडु’ के काम-काज में अच्छा-ख़ासा नियंत्रण था। उनमें से कई धनी भूस्वामियों को चोल राजाओं ने सम्मान के रूप में ‘मुवेंदवेलन’ (तीन राजाओं को अपनी सेवाएँ प्रदान करने वाला वेलन या किसान), ‘अरइयार’ (प्रधान) जैसी उपाधियाँ दी और उन्हें केंद्र में महत्वपूर्ण राजकीय पद सौंपे।
भूमि के प्रकार
चोल अभिलेखों में भूमि की विभिन्न कोटियों का उल्लेख मिलता है।
- वेल्लनवगाई —गैर-ब्राह्मण किसान स्वामी की भूमि
- ब्रह्मदेय—ब्राह्मणों को उपहार में दी गई भूमि
- शालाभोग—किसी विद्यालय के रखरखाव के लिए भूमि
- देवदान, तिरूनमट्टक्कनी—मंदिर को उपहार में दी गई भूमि
- पल्लिच्चंदम—जैन संस्थाओं को दान दी गई भूमि
➡ कावेरी घाटी और दक्षिण भारत के दूसरे हिस्सों में ढेरों ब्राह्मण बस्तियाँ अस्तित्व में आ गई। प्रत्येक ब्रह्मदेय की देख-रेख प्रमुख ब्राह्मण भूस्वामियों की एक सभा द्वारा कुशलतापूर्वक किया जाता था।
- इनके निर्णय, शिलालेखों में प्राय: मंदिरों की पत्थर की दीवारों पर, ब्यौरेवार दर्ज किए जाते थे। व्यापारियों के संघ (नगरम) भी शहरों में प्रशासनिक कार्य संपादित करते थे।
- तमिलनाडु के चिंगलपुट ज़िले के उत्तरमेरूर से प्राप्त अभिलेखों में ब्राह्मणों की सभा के संगठन का वर्णन है।
- सिंचाई के कामकाज, बाग-बगीचों, मंदिरों आदि की देख-रेख लिए सभा में विभिन्न समितियाँ होती थीं।
उत्तरमेरुर अभिलेख के अनुसार सभा के सदस्यता के लिए शर्त:-
- सभा की सदस्यता के लिए इच्छुक लोगों के पास भू-राजस्व वसूल सकने वाली भूमि होनी चाहिए।
- उनके पास अब घर होना चाहिए।
- उनकी उम्र 35 से 70 के बीच होनी चाहिए।
- उन्हें वेदों का ज्ञान होना चाहिए।
- उन्हें प्रशासनिक मामलों की अच्छी जानकारी होनी चाहिए और ईमानदार होना चाहिए।
- यदि कोई पिछले तीन सालों में किसी समिति का सदस्य रहा है तो वह किसी और समिति का सदस्य नहीं बन सकता।
- जिसने अपने और अपने संबंधियों के खाता जमा नहीं कराए हैं, वह चुनाव नहीं लड़ सकता।
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