विषय पाँच : यात्रियों के नज़रिए (समाज के बारे में उनकी समझ — लगभग 10वीं से 17वीं सदी तक)
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Toggleमहिलाओं और पुरुषों ने कार्य की तलाश में, प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए व्यापारियों, सैनिकों, पुरोहितों तीर्थयात्रियों के रूप में या फिर साहस की भावना से प्रेरित होकर यात्राएँ की।
- यात्राओं के दौरान भिन्न भौतिक प्रवेशों के संदर्भ में और लोगों की प्रथाओं, भाषाओं, आस्था तथा व्यवहारों को अपने वृत्तांतों में लिखा।
- दुर्भाग्य से महिलाओं द्वारा छोड़े गए वृत्तांत लगभग न के बराबर हैं।
- सुरक्षित मिले वृत्तांत अपनी विषयवस्तु के संदर्भ में अलग-अलग प्रकार के होते हैं जैसे:— दरबार की गतिविधियों से संबंधित, अन्य धार्मिक विषयों या स्थापत्य के तत्वों और स्मारकों पर केंद्रित।
- उदाहरण: 15वीं सदी में विजयनगर शहर का सबसे महत्वपूर्ण विवरण, अब्दुर रज़्ज़ाक समरकंदी (हेरात) से प्राप्त होता है।
अल-बिरूनी तथा किताब-उल-हिन्द
ख़्वारिज़्म से पंजाब तक
अल-बिरूनी का जन्म उज़्बेकिस्तान (ख़्वारिज़्म शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र) 973 में हुआ था। वह सीरियाई, फ़ारसी, हिब्रू तथा संस्कृत भाषाओं का ज्ञाता था।
- उसने पतंजलि के व्याकरण का अरबी में, और यूक्लिड के कार्यों का संस्कृत में अनुवाद किया।
- यूनानी भाषा से अनजान, उसने प्लेटो तथा अन्य यूनानी दार्शनिकों के कार्यों को अरबी अनुवादों के माध्यम से पढ़ा था।
- 1017 ई. में ख़्वारिज़्म पर आक्रमण के बाद सुल्तान महमूद यहाँ के कई विद्वानों तथा कवियों को अपने साथ अपनी राजधानी ग़ज़नी ले गया।
- अल-बिरूनी भी बंधक के रूप में ग़ज़नी आया, और अपनी मृत्यु तक (70 वर्ष) का जीवन यहीं बिताया।
➡ ग़ज़नी में ही अल-बिरूनी की भारत के प्रति रुचि विकसित हुई। क्योंकि 8वीं सदी से ही संस्कृत में रचित खगोल-विज्ञान, गणित और चिकित्सा संबंधी कार्यों का अरबी भाषा में अनुवाद होने लगा था।
- अल-बिरूनी ने ब्राह्मण पुरोहितों तथा विद्वानों के साथ कई वर्ष बिताए और संस्कृत, धर्म तथा दर्शन का ज्ञान प्राप्त किया।
- उसका वृत्तांत पश्चिम में सहारा रेगिस्तान से लेकर उत्तर में वोल्गा नदी तक फैले क्षेत्रों से संबंधित था।
किताब-उल-हिन्द
अल-बिरूनी की कृति किताब-उल-हिन्द (अरबी में) की भाषा सरल और स्पष्ट है। यह धर्म और दर्शन, त्यौहारों, खगोल-विज्ञान, कीमिया, रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं, सामाजिक-जीवन, भार-तौल तथा मापन विधियों, मूर्तिकला, कानून, मापतंत्र विज्ञान आदि विषयों के आधार पर 80 अध्यायों में विभाजित है।
- सामान्यत: अल-बिरूनी ने प्रत्येक अध्याय में एक विशिष्ट शैली जिसमें आरंभ में एक प्रश्न फिर संस्कृतवादी परंपराओं पर आधारित वर्णन और अंत में अन्य संस्कृतियों के साथ एक तुलना का प्रयोग किया है।
इब्न बतूता का रिहला
एक आरंभिक विश्व-यात्री
इब्न बतूता का वृत्तांत रिहला (अरबी में), 14वीं सदी में भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के विषय में बहुत ही प्रचुर तथा रोचक जानकारियाँ देता है।
- मोरक्को के इस यात्री का जन्म तैंजियर के सबसे सम्मानित और शिक्षित परिवार में हुआ था।
- अपने परिवार की परंपरा के अनुसार उसने कम उम्र में ही साहित्यिक तथा शास्त्ररूढ़ शिक्षा हासिल कर ली थी।
➡ इब्न बतूता पुस्तकों के स्थान पर यात्राओं से अर्जित अनुभव को ज्ञान का अधिक महत्वपूर्ण स्रोत मानता था।
- 1332-33 में भारत के लिए प्रस्थान करने से पहले वह मक्का की तीर्थ यात्राएँ और सीरिया, इराक, फारस, यमन, ओमान तथा पूर्वी अफ्रीका के कई तटीय व्यापारिक बंदरगाहों की यात्राएँ कर चुका था।
- वह 1333 में मध्य एशिया के रास्ते स्थलमार्ग से सिंध पहुँचा। वहाँ से मुल्तान और उच्छ के रास्ते होकर दिल्ली गया।
- मुहम्मद बिन तुग़लक ने उसकी विद्वता से प्रभावित होकर उसे दिल्ली का क़ाज़ी (न्यायाधीश) नियुक्त किया।
- कई वर्षों बाद विश्वास खोने पर कैद किया गया, बाद में गलतफहमी दूर होने पर उसे राजकीय सेवा में पुनर्स्थापित किया गया।
- 1342 ई. में मंगोल शासक के पास सुल्तान के दूत के रूप में चीन जाने का आदेश मिला।
- वह मध्य भारत के रास्ते मालाबार तट से मालद्वीप गया जहाँ 18 महीनों तक क़ाज़ी के पद पर रहने के बाद श्रीलंका गया।
- एक बार फिर से मालाबार तट तथा मालद्वीप गया और चीन जाने से पहले बंगाल तथा असम भी गया।
- फिर जहाज से सुमात्रा गया और वहाँ से चीनी बंदरगाह नगर जायतुन गया। बीजिंग तक की यात्रा करके 1347 में वापस घर के लिए निकल पड़ा।
➡ चीन के विषय में उसके वृत्तांत की तुलना मार्को पोलो (13वीं सदी के अंत में वेनिस से चीन और भारत की यात्रा की थी) के वृत्तांत से की जाती है।
- उसने नवीन संस्कृतियों, लोगों, आस्थाओं, मान्यताओं आदि के विषय में सावधानी तथा कुशलतापूर्वक दर्ज किया है।
- उस समय यात्रा करना बहुत कठिन तथा जोखिम भरा कार्य था। इब्न बतूता ने कई बार डाकुओं के समूहों द्वारा किए गए आक्रमण झेले थे।
- कारवाँ में चलने पर भी राजमार्गों के लूटेरों को रोका नहीं जा सका।
- मुल्तान से दिल्ली की यात्रा के दौरान उसके कारवाँ पर आक्रमण में उसके कई साथियों की जान चली गई जो जीवित बचे (इब्न बतूता भी) बुरी तरह से घायल हो गए थे।
जिज्ञासाओं का उपभोग
इब्न बतूता के मोरक्को वापस आने पर स्थानीय शासक ने निर्देश दिया कि उसकी कहानियों को दर्ज किया जाए। इब्न जुज़ाई को इब्न बतूता के श्रुतलेखों को लिखने के लिए नियुक्त किया गया था।
इब्न बतूता के पदचिन्हों पर
1400 से 1800 के बीच भारत आए यात्रियों ने फ़ारसी में कई यात्रा वृत्तांत लिखे। उसी समय भारत से मध्य एशिया, ईरान तथा ऑटोमन साम्राज्य की यात्रा करने वालों ने भी अपने अनुभव लिखे। इन लेखकों ने अल-बिरूनी और इब्न बतूता के पद चिन्हों का अनुसरण किया और कुछ ने इन पूर्ववर्ती लेखकों को भी पढ़ा। जैसे:—
- अब्दुर रज़्ज़ाक समरकंदी 1440 के दशक में दक्षिण भारत की यात्रा की थी।
- महमूद वली बल्खी 1620 के दशक में यात्राएँ की। कुछ समय के लिए सन्यासी बन गया था।
- शेख़ अली हाज़िन 1740 का दशक में उत्तर भारत की यात्रा की। वह भारत से निराश हुआ और घृणा करने लगा था।
फ्रांस्वा बर्नियर : एक विशिष्ट चिकित्सक
लगभग 1500 ई. में भारत में पुर्तगालियों के आने के बाद उनमें से कई लोगों ने भारतीय सामाजिक रीति-रिवाजों तथा धार्मिक प्रथाओं के विषय में वृत्तांत लिखे। जैसे:—
- जेसुइट रॉबर्टो नोबिली भारतीय ग्रंथों को यूरोपीय भाषाओं में अनुवादित किया।
- दुआर्ते बरबोसा दक्षिण भारत में व्यापार और समाज का एक विस्तृत विवरण लिखा।
- 1600 ई. के बाद भारत में आने वाले डच, अंग्रेज़ तथा फ्रांसीसी यात्रियों की संख्या बढ़ने लगी थी।
- फ्रांसीसी जौहरी ज्यौं-बैप्टिस्ट तैवर्नियर छह बार भारत की यात्रा की थी। वह विशेष रूप से भारतीय व्यापारिक स्थितियों से प्रभावित था और भारत की तुलना ईरान और ऑटोमन साम्राज्य से की थी।
- इतालवी चिकित्सक मनूकी कभी भी यूरोप वापस नहीं गए और भारत में ही बस गए।
➡ फ्रांस्वा बर्नियर (फ़्रांस से) एक चिकित्सक, राजनीतिक, दार्शनिक तथा इतिहासकार था। वह मुग़ल साम्राज्य में अवसरों की तलाश में आया था और 1656 से 1668 तक भारत रहकर मुग़ल दरबार से जुड़ा रहा।
- सम्राट शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दारा शिकोह के चिकित्सक के रूप में।
- मुग़ल दरबार के एक आर्मीनियाई अमीर दानिशमंद ख़ान के साथ एक बुद्धिजीवी तथा वैज्ञानिक के रूप में।
“पूर्व” और “पश्चिम” की तुलना
बर्नियर ने देश के कई भागों की यात्रा की और अपने लिखे विवरण की तुलना यूरोपीय स्थिति से कर विकास की तुलना में भारत को दयनीय बताया।
- उसने अपनी प्रमुख कृति को फ्रांस के शासक लुई ⅩⅣ को समर्पित किया था और कई अन्य कार्य प्रभावशाली अधिकारियों और मंत्रियों को पत्रों के रूप में लिखे थे।
- बर्नियर के कार्य फ्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुए और अगले 5 वर्षों के भीतर अंग्रेज़ी, डच, जर्मन तथा इतालवी भाषाओं में इनका अनुवाद हो गया।
- 1670 से 1725 के बीच उसका वृत्तांत फ्रांसीसी में आठ बार पुनर्मुद्रित हो चुका था और 1684 तक यह तीन बार अंग्रेज़ी में पुनर्मुद्रित हुआ था।
एक अपरिचित संसार की समझ अल-बिरूनी तथा संस्कृतवादी परंपरा
समझने में बाधाएँ और उन पर विजय
यात्रियों ने उपमहाद्वीप में जो भी देखा उसकी तुलना उन्होंने अपने परिचित प्रथाओं से किया। अल-बिरूनी ने कई अवरोधों की चर्चा की जो उसके अनुसार समझ में बाधक थे। जैसे:—
- भाषा : संस्कृत, अरबी और फ़ारसी से इतनी भिन्न थी कि विचारों सिद्धांतों को एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवादित करना आसान नहीं था।
- धार्मिक अवस्था और प्रथा में भिन्नता
- अभिमान
➡ इन समस्याओं की जानकारी होने पर भी, अल-बिरूनी लगभग पूरी तरह से ब्राह्मणों द्वारा रचित कृतियों पर आश्रित रहा। उसने भारतीय समाज को समझने के लिए अक्सर वेदों, पुराणों, भागवदगीता, पतंजलि की कृतियों तथा मनुस्मृति आदि से अंश उद्धत किए।
अल-बिरूनी का जाति व्यवस्था का विवरण
अल-बिरूनी ने लिखा कि प्राचीन फ़ारस में चार सामाजिक वर्गों को मान्यता थी:—
- घुड़सवार और शासक वर्ग
- भिक्षु, अनुष्ठानिक पुरोहित तथा चिकित्सक
- खगोल शास्त्री तथा वैज्ञानिक
- कृषक तथा शिल्पकार
➡ वह ये दिखाना चाहता था कि ये सामाजिक वर्ग केवल भारत तक ही सीमित नहीं थे और दर्शाया कि इस्लाम में सभी लोगों को समान माना जाता था उसमें भिन्नताएँ केवल धार्मिकता के पालन में थीं।
- जाति व्यवस्था के संबंध में ब्राह्मणवादी व्याख्या को मानने के बावजूद, उसने अपवित्रता की मान्यता को अस्वीकार किया।
- उसने लिखा कि हर वह वस्तु जो अपवित्र हो जाती है, अपनी पवित्रता की मूल स्थिति को पुनः प्राप्त कर सकती है।
- सूर्य हवा को स्वच्छ करता है और समुद्र में नमक पानी को गंदा होने से बचाता है यदि ऐसा नहीं होता तो पृथ्वी पर जीवन असंभव होता।
अल-बिरूनी ने जाति व्यवस्था के विषय में ब्राह्मणों के दृष्टिकोण से लिखा है। लेकिन अंत्यज से अपेक्षा की जाती थी कि वे किसानों और ज़मींदारों के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध करें।
इब्न बतूता तथा अनजाने को जानने की उत्कंठा
14वीं सदी में इब्न बतूता के दिल्ली आने के समय तक पूरा उपमहाद्वीप एक वैश्विक संचार तंत्र का हिस्सा बन चुका था जो पूर्व में चीन से लेकर पश्चिम में उत्तर-पश्चिमी अफ़्रीका तथा यूरोप तक फैला हुआ था।
- उसने स्वयं इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर यात्राएँ की
- पवित्र पूजास्थलों को देखा
- विद्वान लोगों तथा शासकों के साथ समय बिताया
- कई बार क़ाज़ी के पद पर रहा
- शहरी केन्द्रों की विश्ववादी संस्कृति का उपभोग किया
इनमें अपनी धर्मनिष्ठता के लिए प्रसिद्ध लोगों की (निर्दयी तथा दयावान राजा), और सामान्य पुरुषों-महिलाओं तथा उनके जीवन की कहानियाँ सम्मिलित थीं।
नारियल तथा पान
इब्न बतूता ने नारियल और पान, जिनसे उसके पाठक पूरी तरह से अपरिचित थे, का वर्णन किया है।
इब्न बतूता और भारतीय शहर
इब्न बतूता ने उपमहाद्वीप के शहरों को आवश्यक इच्छा, साधन तथा कौशल वाले लोगों के लिए व्यापक अवसरों से भरपूर पाया था।
- उसके वृत्तांत से प्रतीत होता है कि अधिकांश शहरों में भीड़-भाड़ वाली सड़कें तथा चमक-दमक वाले रंगीन बाज़ार थे जो विविध प्रकार की वस्तुओं से भरे रहते थे।
- उसने दिल्ली को एक बड़ा शहर, विशाल आबादी वाला तथा भारत में सबसे बड़ा बताया है। दौलताबाद (महाराष्ट्र) आकार में दिल्ली को चुनौती देता था।
- बाज़ार आर्थिक विनिमय के साथ सामाजिक तथा आर्थिक गतिविधियों के केंद्र भी थे।
- अधिकांश बाज़ारों में एक मस्जिद तथा एक मंदिर होता था और कुछ में तो नर्तकों, संगीतकारों तथा गायकों के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए स्थान भी थे।
➡ इतिहासकारों ने इसके वृत्तांत का प्रयोग यह तर्क देने में किया है कि शहर अपनी संपत्ति का एक बड़ा भाग गाँवों से अधिशेष के अधिग्रहण से प्राप्त करते थे।
- उसने पाया कि भारतीय कृषि, मिट्टी के उपजाऊपन के कारण अधिक उत्पादनकारी था। इससे वर्ष में दो फसलें उगाना संभव था।
➡ व्यापार तथा वाणिज्य एशियाई तंत्रों से जुड़ा हुआ था। भारतीय माल की मध्य तथा दक्षिण-पूर्व एशिया, दोनों में बहुत माँग थी जिससे शिल्पकारों तथा व्यापारियों को भारी मुनाफ़ा होता था।
- भारतीय कपड़ों (सूती, महीन मलमल, रेशम, ज़री तथा साटन) की अत्यधिक माँग थी।
- उसने बताया कि महीन मलमल की कई किस्में इतनी अधिक महँगी थीं कि उन्हें अमीर वर्ग के तथा बहुत धनी लोग ही पहन सकते थे।
संचार की एक अनूठी प्रणाली
व्यापारियों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य ने व्यापारिक मार्गों पर सराय तथा विश्राम गृह स्थापित किए थे। डाक प्रणाली से लंबी दूरी तक सूचना भेजना, उधार प्रेषित करना, अल्प सूचना पर माल भेजना भी संभव हुआ।
- सिंध से दिल्ली की यात्रा में 50 दिन लगते थे वहीं गुप्तचरों की खबरें सुल्तान तक इस डाक व्यवस्था के माध्यम से सिर्फ 5 दिनों में पहुँच जाती थीं।
इब्न बतूता भारत में दो प्रकार की डाक व्यवस्था का वर्णन करता है:—
अश्व डाक व्यवस्था (उलुक) : हर चार मील की दूरी पर स्थापित राजकीय घोड़ों द्वारा चालित होती थी।
पैदल डाक व्यवस्था : प्रति मील तीन अवस्थान (दावा) होते थे।
- हर तीन मील पर घनी आबादी वाला गाँव जिसके बाहर तीन मंडप, जहाँ लोग दो हाथ लंबी एक छड़ (ताँबे की घंटियाँ लगी) लिए तैयार रहते थे।
- संदेशवाहक के शहर पहुँचते ही मौजूद व्यक्ति पत्र लेकर छड़ी के साथ दौड़ना शुरू कर देता था।
- यह प्रक्रिया मंजिल तक पहुँचने तक चलती रहती थी।
- यह व्यवस्था से अश्व डाक व्यवस्था से अधिक तीव्र था। इसका प्रयोग अक्सर खुरासान के फलों के परिवहन के लिए होता था।
बर्नियर तथा “अपविकसित” पूर्व
बर्नियर का ग्रंथ “ट्रैवल्स इन द मुग़ल एम्पायर अपने गहन प्रेक्षण, आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि तथा गहन चिंतन के लिए उल्लेखनीय है।
- वह यूरोप की श्रेष्ठता को रेखांकित करते हुए निरंतर मुग़लकालीन भारत की तुलना तत्कालीन यूरोप से करता रहा।
- उसने जो भिन्नताएँ महसूस कीं उन्हें भी क्रमबद्ध किया, जिससे भारत, पश्चिमी दुनिया को निम्न कोटि का प्रतीत हो।
भूमि स्वामित्व का प्रश्न
बर्नियर के अनुसार भारत और यूरोप के बीच मूल भिन्नताओं में से एक भारत में निजी भूस्वामित्व का अभाव था।
- उसका निजी स्वामित्व के गुणों में दृढ़ विश्वास और भूमि पर राजकीय स्वामित्व को राज्य तथा उसके निवासियों, दोनों के लिए हानिकारक माना।
- उसे लगा कि मुग़ल साम्राज्य में सम्राट सारी भूमि का स्वामी था जो अपने अमीरों के बीच बाँटता था।
- इसके अर्थव्यवस्था और समाज के लिए अनर्थकारी परिणाम होते थे।
- इस प्रकार का अवबोधन 16वीं तथा 17वीं सदी के अधिकांश यात्रियों के वृत्तांतों में मिलता है।
- इस प्रकार निजी भूस्वामित्व के अभाव में बेहतर भूधारकों के वर्ग के उदय को रोका जो भूमि के रखरखाव के प्रति सजग रहते।
- इस कारण कृषि का समान रूप से विनाश, किसानों का असीम उत्पीड़न तथा समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवरत पतन की स्थिति उत्पन्न हुई।
➡ लेकिन एक भी सरकारी मुग़ल दस्तावेज़ अंकित नहीं करता कि राज्य ही भूमि का एकमात्र स्वामी था। 16वीं सदी में अबुल फ़ज़्ल भूमि राजस्व को “राजत्व का पारिश्रमिक” बताता है जो राजा द्वारा अपनी प्रजा को सुरक्षा प्रदान करने के बदले की गई माँग प्रतीत होती है न कि अपने स्वामित्व वाली भूमि पर लगान।
- संभव है कि यूरोपीय यात्री ऐसी माँगों को लगान मानते थे क्योंकि भूमि राजस्व की माँग अक्सर बहुत अधिक होती थी।
- लेकिन यह न तो लगान था, न ही भूमिकर, बल्कि उपज पर लगने वाला कर था।
➡ बर्नियर के विवरणों ने 18वीं सदी से पश्चिमी विचारकों को प्रभावित किया। उदाहरण: फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू ने उसके वृत्तांत का प्रयोग प्राच्य निरंकुशवाद के सिद्धांत को विकसित करने में किया।
- जिसके अनुसार एशिया में शासक अपनी प्रजा के ऊपर प्रभुत्व रखते थे, जिसे दासता और गरीबी की स्थितियों में रखा जाता था।
- इसका आधार यह था कि सारी भूमि पर राजा का स्वामित्व था तथा निजी संपत्ति अस्तित्व में नहीं थी।
- 19वीं सदी में कार्ल मार्क्स ने तर्क दिया कि भारत में उपनिवेशवाद से पहले अधिशेष का अधिग्रहण राज्य द्वारा होता था।
- इससे बड़ी संख्या में स्वायत्त तथा समतावादी ग्रामीण समुदायों से बना समाज का उदभव हुआ। इन ग्रामीण समुदायों पर राजकीय दरबार का नियंत्रण होता था।
➡ परंतु 16वीं और 17वीं सदी में ग्रामीण समाज में बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक विभेद था।
- बड़े ज़मींदार, जो भूमि पर उच्चाधिकारों का उपभोग करते थे
- अस्पृश्य भूमिविहीन श्रमिक (बलाहार)
- इन दोनों के बीच में बड़ा किसान था जो किराए के श्रम का प्रयोग कर माल उत्पादन करता था
- छोटे किसान, जो मुश्किल से निर्वहन लायक उत्पादन कर पाते थे
एक अधिक जटिल सामाजिक सच्चाई
वह कहता है कि शिल्पकारों के पास अपने उत्पादों को बेहतर बनाने का कोई प्रोत्साहन नहीं था क्योंकि मुनाफ़े का अधिग्रहण राज्य कर लेता था। इसलिए उत्पादन हर जगह पतनोन्मुख था।
- पूरे विश्व से बड़ी मात्रा में बहुमूल्य धातुएँ भारत में आती थीं क्योंकि उत्पादों का सोने और चाँदी के बदले निर्यात होता था।
- एक समृद्ध व्यापारिक समुदाय लंबी दूरी के विनिमय में संलग्न था।
- 17वीं सदी में जनसंख्या का लगभग 15% भाग नगरों में रहता था। यह पश्चिमी यूरोप की नगरीय जनसंख्या के अनुपात से अधिक था।
- बर्नियर मुग़लकालीन शहरों को “शिविर नगर” कहता है जो अपने अस्तित्व और बने रहने के लिए राजकीय शिविर पर निर्भर थे।
- राजकीय दरबार के आने पर अस्तित्व में आते थे और कहीं चले जाने पर तेज़ी से पतनोन्मुख हो जाते थे।
- सभी प्रकार के नगर अस्तित्व में थे: उत्पादन केंद्र, व्यापारिक नगर, बंदरगाह नगर, धार्मिक केंद्र, तीर्थ स्थान आदि।
- इनका अस्तित्व समृद्ध व्यापारिक समुदायों तथा व्यावसायिक वर्गों के अस्तित्व का सूचक है।
- व्यापारी अक्सर मज़बूत सामुदायिक अथवा बंधुत्व के संबंधों से जुड़े होते थे और अपनी जाति तथा व्यावसायिक संस्थाओं के माध्यम से संगठित रहते थे।
- पश्चिमी भारत में ऐसे समूहों को महाजन और उनके मुखिया को सेठ कहा जाता था।
- अहमदाबाद में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया (नगर सेठ) द्वारा होता था।
- अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग जैसे चिकित्सक, अध्यापक, अधिवक्ता (वकील), चित्रकार, वास्तुविद, संगीतकार, सुलेख सम्मिलित थे।
- कई राजकीय प्रश्नय पर आश्रित थे, कई अन्य संरक्षकों या भीड़भाड़ वाले बाज़ार में आम लोगों की सेवा द्वारा जीवनयापन करते थे।
महिलाएँ : दासियाँ, सती तथा श्रमिक
लिखित वृत्तांत छोड़े गए यात्री सामान्यता पुरुष थे जिन्हें उपमहाद्वीप में महिलाओं की स्थिति का विषय रुचिकर और जिज्ञासापूर्ण लगता था। वे सामाजिक पक्षपात को सामान्य परिस्थिति मान लेते थे।
उदाहरण : बाज़ारों में दास किसी भी अन्य वस्तु की तरह खुले आम बेचे जाते थे।
➡ इब्न बतूता ने सिंध पहुँच कर मुहम्मद बिन तुग़लक के लिए भेंटस्वरूप “घोड़े, ऊँट तथा दास” खरीदे। मुल्तान पहुँचकर उसने गवर्नर को किशमिश के बादाम के एक दास और घोड़ा भेंट के रूप में दिए।
➡ इब्न बतूता के विवरण से प्रतीत होता है कि दासों में काफ़ी विभेद था। सुलतान की सेवा में कार्यरत कुछ दासियाँ संगीत और गायन में निपुण थीं।
- सुलतान अपने अमीरों पर नज़र रखने के लिए दसियों को भी नियुक्त करता था।
- दासों को सामन्यत: घरेलू श्रम के लिए किया जाता था।
- इब्न बतूता ने इनकी सेवाओं को, पालकी (डोले) में पुरुषों और महिलाओं को ले जाने में अपरिहार्य पाया।
- दासों की कीमत, विशेषकर घरेलू श्रम की दासियों की कीमत बहुत कम थी। अधिकांश परिवार एक या दो को रखते ही थे।
➡ बर्नियर ने सती प्रथा के बारे में लिखा कि कुछ महिलाएँ प्रसन्नता से मृत्यु को गले लगा लेती थीं, अन्य को मरने के लिए बाध्य किया जाता था।
- महिलाओं का जीवन सती प्रथा के अलावा कृषि श्रम तथा कृषि के अलावा होने वाले उत्पादन, दोनों में महत्वपूर्ण था।
- व्यापारिक परिवारों से आने वाली महिलाएँ व्यापारिक गतिविधियों में हिस्सा लेती थीं।
- संभव है कि महिलाओं को उनके घरों के खास स्थानों पर सीमित करके नहीं रखा जाता था।
कुछ यात्री जिन्होंने वृत्तांत छोड़े
973-1048 — अल बिरूनी (उज़्बेकिस्तान से)
1254-1323 — मार्को पोलो (इटली से)
1304-77 — इब्न बतूता (मोरक्को से)
1413-82 — अब्दुल अल-रज़्ज़ाक समरक़ंदी (समरकंद से)
1466-72 (भारत में बिताए वर्ष) — अफानासी निकितिच निकितिन (रूस से)
1518 (भारत की यात्रा) — दूरते बारबोसा, मृत्यु 1521 (पुर्तगाल से)
1562 (मृत्यु का वर्ष) — सयदी अली रेइस (तुर्की से)
1536-1600 — अंतोनियो मानसेरेते (स्पेन से)
1626-31 (भारत में बिताए वर्ष) — महमूद वली बलख़ी (बल्ख़ से)
1600-67 — पीटर मुंडी (इंग्लैंड से)
1605-89 — ज्यौं बैप्टिस्ट तैवर्नियर (फ़्रांस से)
1620-88 — फ्रांस्वा बर्नीयर (फ़्रांस से)
Class 12 History Chapter 5 Notes PDF Download In Hindi
भाग — 1
विषय एक : ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ (हड़प्पा सभ्यता)
विषय दो : राजा, किसान और नगर (आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
विषय तीन : बंधुत्व, जाति तथा वर्ग (आरंभिक समाज — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
विषय चार : विचारक, विश्वास और इमारतें (सांस्कृतिक विकास — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
भाग — 2
विषय छ: : भक्ति–सूफी परंपराएँ (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ — लगभग 8वीं से 18वीं सदी तक)
विषय सात : एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर (लगभग 14वीं से 16वीं सदी तक)
विषय आठ : किसान, ज़मींदार और राज्य (कृषि समाज और मुगल साम्राज्य — लगभग 16वीं और 17वीं सदी)
भाग — 3
विषय नौ : उपनिवेशवाद और देहात (सरकारी अभिलेखों का अध्ययन)
विषय दस : विद्रोही और राज (1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान)
विषय ग्यारह : महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन (सविनय अवज्ञा और उससे आगे)
विषय बारह : संविधान का निर्माण (एक नए युग की शुरुआत)
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