अध्याय बारह : संविधान का निर्माण (एक नए युग की शुरुआत)
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Toggleस्वतंत्रता के समय भारत एक विशाल और विविधतापूर्ण के साथ गहरे तौर पर बिखरा हुआ देश था। ऐसे में देश की एकजुटता और प्रगति के लिए एक विस्तृत, गहन विचार-विमर्श पर आधारित और सावधानीपूर्वक सूत्रबद्ध किया गया संविधान ज़रूरी था।
➡ 26 जनवरी 1950 को अस्तित्व में आया भारतीय संविधान दुनिया का सबसे लंबा संविधान है।
- इसने अतीत और वर्तमान के घावों पर मरहम लगाने और विभिन्न वर्गों, जातियों व समुदाओं में बँटे भारतीयों को एक साझा राजनीतिक प्रयोग में शामिल करने में मदद दी है।
- लंबे समय से चली आ रही ऊँच-नीच और अधीनता की संस्कृति में लोकतांत्रिक संस्थानों को विकसित करने का भी प्रयास किया है।
➡ संविधान को दिसंबर 1946 से नवंबर 1949 के बीच सूत्रबद्ध किया गया। इस दौरान संविधान सभा में इसके मसविदे के एक-एक भाग पर लंबी चर्चाएँ चलीं।
- संविधान सभा के कुल 11 सत्र हुए जिनमें 165 दिन बैठकों में गए।
- सत्रों के बीच विभिन्न समितियाँ और उपसमितियाँ मसविदे को सुधारने और सँवारने का काम करती थीं।
उथल-पुथल का दौर
संविधान निर्माण से पहले के साल काफी उथल-पुथल वाले थे। 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, स्वतंत्रता पाने के लिए सुभाष चंद्र बोस का प्रयास, 1946 में बम्बई तथा अन्य शहरों में रॉयल इंडियन नेवी के सिपाहियों का विद्रोह आदि लोगों को बार-बार आंदोलित कर रहा था।
- 40 के दशक के आखिरी सालों में देश के विभिन्न भागों में मजदूरों और किसानों के आंदोलन हो रहे थे।
- इसके विपरीत कांग्रेस और मुस्लिम लीग द्वारा धार्मिक सौहार्द्र और सामाजिक सामंजस्य स्थापित करने की कोशिशें नाकामयाब हो रही थी।
- अगस्त 1946 में कलकत्ता की हिंसा के कारण उत्तरी और पूर्वी भारत में दंगे-फसाद और हत्याओं का लंबा सिलसिला शुरू हो गया था।
- इसके साथ ही देश विभाजन के कारण असंख्यक लोग एक जगह से दूसरी जगह जाने लगे।
- अंग्रेज़ों द्वारा भारत छोड़ने पर नवाबों और राजाओं की संवैधानिक स्थिति बहुत अजीब हो गई थी।
संविधान सभा का गठन
1945-46 की सर्दियों में भारत के प्रांतों में चुनाव के बाद प्रांतीय संसदों ने संविधान सभा के सदस्यों को चुना।
- प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने सामान्य चुनाव क्षेत्रों में भारी जीत प्राप्त की और मुस्लिम लीग को अधिकांश आरक्षित मुस्लिम सीटें मिल गईं।
- लेकिन लीग ने संविधान सभा का बहिष्कार उचित समझकर एक अन्य संविधान बना कर पाकिस्तान की माँग को जारी रखा।
- शुरु में समाजवादी भी इसे अंग्रेज़ों की बनाई हुई संस्था मानती थी जिसका स्वायत्त होना असंभव था।
➡ इन सभी कारणों से संविधान सभा के 82% सदस्य कांग्रेस पार्टी के ही सदस्य थे। परंतु सभी कांग्रेस सदस्य एकमत नहीं थे।
- कई समाजवाद से प्रेरित थे तो कई अन्य ज़मींदारी के हिमायती थे।
- कुछ सांप्रदायिक दलों के करीब थे लेकिन कई पक्के धर्मनिर्पेक्ष।
➡ संविधान सभा में जब बहस होती थी तो विभिन्न पक्षों की दलीलें अख़बारों में भी छपती थी और तमाम प्रस्तावों पर सार्वजनिक रूप से बहस चलती थी।
- इस तरह प्रेस में होने वाली इस आलोचना और जवाबी आलोचना से किसी मुद्दे पर बनने वाली सहमति या असहमति पर गहरा असर पड़ता था।
- सामूहिक सहभागिता बनाने के लिए जनता के सुझाव भी आमंत्रित किए जाते थे।
- कई भाषाई अल्पसंख्यक अपनी मातृभाषा की रक्षा की माँग करते थे।
- धार्मिक अल्पसंख्यक अपने विशेष हित सुरक्षित करवाना चाहते थे।
- दलित जाति-शोषण के अंत की माँग करते हुए सरकारी संस्थानों में आरक्षण चाहते थे।
सभा में सांस्कृतिक अधिकारों एवं सामाजिक न्याय के कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर चल रही सार्वजनिक चर्चाओं पर बहस हुई।
मुख्य आवाज़ें
संविधान सभा में 300 सदस्य थे। इनमें से 6 सदस्यों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इनमें से तीन (जवाहर लाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल और राजेंद्र प्रसाद) कांग्रेस के सदस्य थे।
- एक निर्णायक प्रस्ताव “उद्देश्य प्रस्ताव” और भारत का राष्ट्रीय ध्वज (केसरिया, सफ़ेद और गहरे हरे रंग की तीन बराबर चौड़ाई वाली पट्टियों का तिरंगा झंडा जिसके बीच में गहरे नीले रंग का चक्र होगा) नेहरू जी ने पेश किया था।
- पटेल जी ने कई रिपोर्टों के प्रारूप लिखने में और कई परस्पर विरोधी विचारों के बीच सहमति पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
- राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे जिनकी ज़िम्मेदारी थी कि सभा में चर्चा रचनात्मक दिशा ले और सभी सदस्यों को अपनी बात कहने का मौका मिले।
- प्रख्यात विधिवेत्ता और अर्थशास्त्री बी.आर.अंबेडकर को स्वतंत्रता के समय महात्मा गाँधी की सलाह पर केंद्रीय विधि मंत्री का पद सँभालने का न्यौता मिलने पर उन्होंने संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में काम किया।
- उनके साथ दो अन्य वकील के.एम.मुंशी (गुजरात) और अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर (मद्रास) थे। जिन्होंने संविधान के प्रारूप पर महत्वपूर्ण सुझाव दिए।
इन 6 सदस्यों को दो प्रशासनिक अधिकारियों ने महत्वपूर्ण सहायता दी।
- बी.एन.राव: भारत सरकार के संवैधानिक सलाहकार जिन्होंने अन्य देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं का गहन अध्ययन करके कई चर्चा पत्र तैयार किए थे।
- एस.एन. मुखर्जी: इनकी भूमिका मुख्य योजनाकार की थी। वे जटिल प्रस्तावों को स्पष्ट वैधिक भाषा में व्यक्त करने की क्षमता रखते थे।
➡ संविधान के प्रारूप को पूरा करने में कुल मिलाकर 3 वर्ष लगे और इस दौरान चर्चाओं के मुद्रित रिकॉर्ड 11 भारी-भरकर खंडों में प्रकाशित हुए।
- संविधान सभा के सदस्यों ने इन मुद्दों पर अपने विविध दृष्टिकोण पेश किए। जैसे: देश का भावी स्वरूप, भारतीय भाषाओं, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ और नागरिकों के नैतिक मूल्य कैसे होने चाहिए आदि।
संविधान सभा की प्रमुख समितियाँ एवं उनके अध्यक्षों की सूची
समितियों का नाम — अध्यक्ष का नाम
- नियम समिति — राजेंद्र प्रसाद
- संघ शक्ति समिति — पंडित जवाहरलाल नेहरू
- संघ संविधान समिति — पंडित जवाहरलाल नेहरू
- प्रांतीय संविधान समिति — वल्लभभाई पटेल
- संचालन समिति — राजेंद्र प्रसाद
- प्रारूप समिति — डॉ भीमराव अंबेडकर
- झंडा समिति — जे.बी. कृपलानी
- राज्य समिति — पंडित जवाहरलाल नेहरू
- परामर्श समिति — सरदार वल्लभभाई पटेल
- सर्वोच्च न्यायालय समिति — एस. वरदाचार्य
- मूल अधिकार उपसमिति — जे.बी. कृपलानी
- अल्पसंख्यक उपसमिति — एच.सी. मुखर्जी
- संविधान समीक्षा आयोग — एम.एन. वेंकटांचलैया
संविधान की दृष्टि
13 दिसंबर 1946 को जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा के सामने “उद्देश्य प्रस्ताव” पेश किया जिसमें स्वतंत्र भारत के संविधान के मूल आदर्शों की रूपरेखा और संविधान का कार्य आगे बढ़ाने वाला फ्रेमवर्क सुझाया गया था।
- इसमें भारत को एक “स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य” घोषित किया; नागरिकों को न्याय, समानता व स्वतंत्रता का आश्वासन दिया; अल्पसंख्यकों, पिछड़े व जनजातीय क्षेत्रों एवं दमित व अन्य पिछड़े वर्गों के लिए पर्याप्त रक्षात्मक प्रावधान किए।
- अमेरिकी और फ़्रांसीसी क्रांति का हवाला देते हुए नेहरू जी भारत में संविधान निर्माण के इतिहास को मुक्ति व स्वतंत्रता के एक लंबे ऐतिहासिक संघर्ष का हिस्सा बताते हैं।
- किंतु वह कहते हैं कि हमारे लोकतंत्र की रूपरेखा हमारे बीच होने वाली चर्चा से ही उभरती है।
- भारत में शासन की व्यवस्था “हमारे लोगों के स्वभाव के अनुरूप और उनको स्वीकार्य होनी चाहिए।”
- पश्चिम की उपलब्धियों और विफलताओं से सबक लेना ज़रूरी है लेकिन भारतीय संविधान का उद्देश्य लोकतंत्र के उदारवादी विचारों तथा आर्थिक न्याय के समाजवादी विचारों का एक-दूसरे में समावेश और भारतीय संदर्भ में इन विचारों की रचनात्मक व्याख्या होनी चाहिए।
लोगों की इच्छा
संविधान सभा के कम्युनिस्ट सदस्य सोमनाथ लाहिड़ी संविधान सभा को अंग्रेज़ों की बनाई हुई और अंग्रेज़ों की योजना को साकार करने वाला मानते थे।
- उन्होंने सदस्यों तथा आम भारतीयों से आग्रह किया कि वे साम्राज्यवादी शासन के प्रभाव से खुद को पूरी तरह आज़ाद करें।
➡ नेहरू जी ने स्वीकार किया कि ज़्यादातर राष्ट्रवादी नेता एक भिन्न प्रकार की संविधान सभा चाहते थे। परंतु उनका कहना था कि उनके पास जनता की ताकत है जो सभा को शक्ति प्रदान कर रही थी।
- संविधान सभा स्वतंत्रता के आंदोलनों में हिस्सा लेने वाले लोगों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का साधन मानी जा रही थी।
➡ लोकतंत्र, समानता तथा न्याय जैसे आदर्श 19वीं सदी से भारत में सामाजिक संघर्षों के साथ गहरे तौर पर जुड़ चुके थे।
- जैसे: बाल विवाह का विरोध, विधवा विवाह का समर्थन, विवेकानंद द्वारा हिंदू धर्म में सुधार, महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले द्वारा दमित जातियों की पीड़ा पर सवाल, कम्युनिस्टों तथा सोशलिस्टों द्वारा मज़दूरों और किसानों को एकजुट करना आदि।
➡ प्रतिनिधित्व की माँग बढ़ने से अंग्रेज़ों को चरणबद्ध ढंग से संवैधानिक सुधार करने पड़े। प्रांतीय सरकारों में भारतीयों की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए कई कानून (1909, 1919 और 1935) पारित किए गए।
- 1919 में कार्यपालिका को आंशिक रूप से प्रांतीय विधायिका के प्रति उत्तरदायी बनाया गया।
- 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के अंतर्गत उसे लगभग पूरी तरह विधायिका के प्रति उत्तरदायी बना दिया गया।
- इसके तहत 1937 के चुनाव में 11 में से 8 प्रांतो में कांग्रेस की सरकार बनी।
अधिकारों का निर्धारण
अपने उद्घाटन भाषण में नेहरू जी ने “जनता की इच्छा” का हवाला देकर कहा था कि संविधान निर्माताओं को “जनता के दिलों में समायी आकांक्षाओं और भावनाओं” को पूरा करना है।
- आज़ादी की उम्मीद पैदा होने से विभिन्न समूह अलग-अलग तरह से अपनी इच्छाएँ व्यक्त करने लगे थे।
- इन सभी परस्पर विरोधी विचारों के बीच किसी समाधान पर पहुँचना और एक आम सहमति पर पहुँचना ज़रूरी था।
पृथक निर्वाचिका की समस्या
27 अगस्त 1947 को मद्रास के बी. पोकर बहादुर ने पृथक निर्वाचिका बनाए रखने के पक्ष में थे।
- उनके अनुसार अल्पसंख्यक के सब जगह होने के कारण उन्हें चाह कर भी हटा नहीं सकते।
- इसलिए ऐसा राजनीतिक ढाँचा हो, जिसके भीतर अल्पसंख्यक भी औरों के साथ सदभाव से रह सकें।
- उनको लगता था कि मुसलमानों की ज़रूरतों को गैर-मुसलमान अच्छी तरह नहीं समझ सकते; न ही अन्य समुदायों के लोग उनका कोई सही प्रतिनिधि चुन सकते हैं।
➡ पृथक निर्वाचिका की हिमायत में दिए गए बयान से ज़्यादातर राष्ट्रवादी भड़क गए। इसके बाद बहसों में इस माँग के खिलाफ तरह-तरह के तर्क दिए गए।
- उन्हें लग रहा था कि पृथक निर्वाचिका की व्यवस्था लोगों को बाँटने के लिए अंग्रेज़ों की चाल थी।
- विभाजन के कारण तो राष्ट्रवादी नेता पृथक निर्वाचिका के प्रस्ताव पर और भड़कने लगे थे।
- उन्हें निरंतर गृहयुद्ध, दंगों और हिंसा की आशंका दिखाई देती थी।
➡ सरदार पटेल की राय में इस माँग ने एक समुदाय को दूसरे समुदाय से भिड़ा दिया, राष्ट्र के टुकड़े कर दिए, रक्तपात को जन्म दिया और देश के विभाजन का कारण बनी।
➡ गोविंद वल्लभ पंत ने ऐलान किया यह प्रस्ताव न केवल राष्ट्र के लिए बल्कि अल्पसंख्यकों के लिए भी खतरनाक है।
- उनके अनुसार यह माँग अल्पसंख्यकों को स्थायी रूप से अलग-अलग कर देगी, उन्हें कमज़ोर बना देगी और शासन में उन्हें प्रभावी हिस्सेदारी नहीं मिल पाएँगी।
➡ राजनीतिक एकता और राष्ट्र की स्थापना के लिए प्रत्येक व्यक्ति को राज्य के नागरिक के साँचे में ढाल कर राष्ट्र के भीतर समाहित करना था।
- संविधान नागरिकों को अधिकार देगा परंतु नागरिकों को भी राज्य के प्रति अपनी निष्ठा का वचन लेना था।
➡ सारे मुसलमान भी पृथक निर्वाचिका की माँग के समर्थन नहीं थे। उदाहरण : बेगम ऐज़ाज़ रसूल को लगता था कि पृथक निर्वाचिका आत्मघाती साबित होगी क्योंकि इससे अल्पसंख्यक बहुसंख्यकों से कट जाएँगे।
“केवल इस प्रस्ताव से काम चलने वाला नहीं है”
उद्देश्य प्रस्ताव का स्वागत करते हुए किसान आंदोलन के नेता और समाजवादी विचारों वाले एन.जी. रंगा के अनुसार असली अल्पसंख्यक गरीब और दबे-कुचले लोग (आदिवासी भी) थे।
- उन्होंने कहा कि संविधानसम्मत अधिकारों को लागू करना चाहिए ताकि गरीबों को जीने का, पूर्ण रोजगार का अधिकार; सभा, सम्मेलन करने; संगठन बनाने का अधिकार मिल सके।
- ऐसी परिस्थितियाँ बनाई जाए जहाँ संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का जनता प्रभावी ढंग से प्रयोग कर सके।
➡ उद्देश्य प्रस्ताव का स्वागत करते हुए जयपाल सिंह ने कहा कि आदिवासी कबीले संख्या की दृष्टि से अल्पसंख्यक नहीं है लेकिन उन्हें संरक्षण की आवश्यकता है।
- उन्हें उनके घर से बेदखल कर दिया गया, उनके जंगलों तथा चारागाहों से वंचित कर दिया गया और नए घरों की तलाश में भागने के लिए मजबूर किया गया।
- उन्हें आदिम और पिछड़ा मानते हुए शेष समाज हिराकत की नज़र से देखता है।
- वह पृथक निर्वाचिका के हक में नहीं थे लेकिन उनको भी लगता था कि विधायिका में आदिवासियों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था ज़रूरी है।
संविधान सभा में महिला सदस्यों की संख्या सूची
सभा की स्त्री — सदस्य रजिस्टर पर हस्ताक्षर करने की तारीख — संविधान सभा क्षेत्र
- अम्मू स्वामीनाथन —9 दिसंबर 1946— मद्रास/साधारण
- दक्षियनी वेलायुधन —9 दिसंबर 1946— मद्रास/साधारण
- बेगम ऐज़ाज़ रसूल —14 जुलाई 1947— संयुक्त प्रांत/मुस्लिम
- दुर्गाबाई देशमुख —9 दिसंबर 1946— मद्रास/साधारण
- हंस जीवराज मेहता —9 दिसंबर 1946— मुंबई/साधारण
- कमला चौधरी —9 दिसंबर 1946— संयुक्त प्रांत/साधारण
- लीला रॉय —9 दिसंबर 1946— पश्चिम बंगाल/साधारण
- मालती चौधरी —9 दिसंबर 1946— उड़ीसा/साधारण
- पूर्णिमा बनर्जी —9 दिसंबर 1946— संयुक्त प्रांत/साधारण
- राजकुमारी अमृत कौर —21 दिसंबर 1946— केंद्रीय प्रांत और बरार/साधारण
- रेणुका रे —14 जुलाई 1947— पश्चिम बंगाल/साधारण
- सरोजिनी नायडू —9 दिसंबर 1946— बिहार/साधारण
- सुचेता कृपलानी —9 दिसंबर 1946— संयुक्त प्रांत/साधारण
- विजयलक्ष्मी पंडित —17 दिसंबर 1946— संयुक्त प्रांत/साधारण
- एनी मैस्करीन —29 दिसंबर 1948— ट्रावणकोर और कोचीन संघ
“हमें हज़ारों साल तक दबाया गया है”
दमित जातियों के कुछ सदस्यों का आग्रह था कि “अस्पृश्यों” (अछूतों) की समस्या को केवल संरक्षण और बचाव के ज़रिए हल नहीं किया जा सकता।
- उसके लिए जाति विभाजित समाज के सामाजिक कायदे-कानूनों और नैतिक मूल्य मान्यताओं को बदलना होगा।
- जिन्होंने उनकी सेवाओं और श्रम का इस्तेमाल किया परंतु सामाजिक तौर पर उन्हें खुद से दूर रखा।
- न तो उनसे घुले-मिले, न उनके साथ कभी खाना खाया और न ही उन्हें मंदिरों में जाने दिया।
➡ मद्रास के सदस्य जे. नागप्पा ने कहा कि आबादी में उनका हिस्सा 20-25% है। उनकी पीड़ा का कारण समाज व राजनीति में हाशिए पर रखा जाना था। उनके पास न तो शिक्षा पहुँची और न ही शासन में हिस्सेदारी मिली।
- अंततः संविधान सभा ने सुझाव दिया कि अस्पृश्यता का उन्मूलन किया जाए, हिंदू मंदिरों को सभी जातियों के लिए खोल दिया जाए और निचली जातियों को विधायिकाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाए।
राज्य की शक्तियाँ
संविधान के मसविदे में विषयों की तीन सूचियाँ बनाई गई थीं:—
- केंद्रीय सूची: इसके विषय केवल केंद्र सरकार के अधीन थे। जैसे खनिज पदार्थ तथा प्रमुख उद्योग, अनुच्छेद 356 में गवर्नर की सिफारिश पर केंद्र सरकार को राज्य सरकार के सारे अधिकार प्राप्त, सीमा शुल्क तथा कंपनी कर से होने वाली सारी आय
- राज्य सूची: इसके विषय केवल राज्य सरकारों के अंतर्गत थे। जैसे राज्य स्तरीय शुल्क से होने वाली आय, वे ज़मीन और संपत्ति कर, बिक्री कर तथा बोतलबंद शराब पर अलग से कर वसूल सकते थे।
- समवर्ती सूची: इसके विषय केंद्र और राज्य, दोनों की साझा ज़िम्मेदारी थी।
आय कर और आबकारी शुल्क में होने वाली आय राज्य और केंद्र सरकारों के बीच बाँट दी गई।
“केंद्र बिखर जाएगा”
राज्यों के अधिकारों की सबसे शक्तिशाली हिमायत मद्रास के सदस्य के. सन्तनम ने पेश की।
- उन्होंने कहा कि अगर केंद्र के पास ज़रूरत से ज़्यादा ज़िम्मेदारियाँ होंगी तो वह प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाएगा। उसके कुछ दायित्वों में कमी करने से और उन्हें राज्यों को सौंप देने से केंद्र ज़्यादा मजबूत हो सकता है।
- राज्यों के लिए उनका मानना था कि शक्तियों का मौजूदा वितरण उनको पंगु बना देगा।
- राजकोषीय प्रावधान प्रांतों को खोखला कर देगा क्योंकि भूराजस्व के अलावा ज़्यादातर कर केंद्र सरकार के अधिकार में थे और पैसा न होने पर राज्यों में विकास परियोजनाएँ नहीं चल पाएँगी।
➡ प्रांतों के बहुत सारे सदस्यों ने ज़ोर लगाया कि समवर्ती सूची और केंद्रीय सूची में कम से कम विषयों को रखा जाए। उड़ीसा के एक सदस्य ने चेतावनी दी कि संविधान में शक्तियों के बेहिसाब केंद्रीकरण के कारण “केंद्र बिखर जाएगा।”
“आज हमें एक शक्तिशाली सरकार की आवश्यकता है”
प्रांतों के लिए अधिक शक्तियों की माँग से सभा में तीखी प्रतिक्रियाएँ आने लगी।
- अंबेडकर 1935 की गवर्नमेंट एक्ट में बने केंद्र से भी ज़्यादा शक्तिशाली केंद्र चाहते थे।
- गोपालस्वामी अय्यर ने ज़ोर देकर कहा कि “केंद्र ज़्यादा से ज़्यादा मजबूत होना चाहिए।”
- संयुक्त प्रांत के सदस्य बालकृष्ण शर्मा के अनुसार देश के हित में योजना बनाने, उपलब्ध आर्थिक संसाधनों को जुटाने, उचित शासन व्यवस्था स्थापित करने और देश को विदेशी आक्रमण से बचाने के लिए एक शक्तिशाली केंद्र का होना ज़रूरी है।
➡ विभाजन से पहले कांग्रेस ने प्रांतों को काफी स्वायत्तता देने पर अपनी सहमति व्यक्त की थी। परंतु बँटवारे के बाद ज़्यादातर राष्ट्रवादियों की राय बदल चुकी थी।
- उस जमाने में हुई घटनाओं से केंद्रीयतावाद को बढ़ावा मिला जिसे अब अफरा-तफरी पर अंकुश लगाने तथा देश के आर्थिक विकास योजना बनाने के लिए और भी ज़रूरी माना जाने लगा।
राष्ट्र की भाषा
30 के दशक तक कांग्रेस ने मान लिया था कि हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा का दर्ज़ा दिया जाए। क्योंकि हिंदी तथा उर्दू के मेल से बनी हिंदुस्तानी भारतीय जनता के बहुत बड़े हिस्से की भाषा थी और यह विविध संस्कृतियों के आदान-प्रदान से समृद्ध हुई थी।
- समय बिताने के साथ इसमें नए-नए शब्द तथा अर्थ समाते गए और विभिन्न क्षेत्रों के बहुत सारे लोग इसे समझने लगे।
- लेकिन 19वीं सदी के आखिर से एक भाषा के रूप हिंदुस्तानी धीरे-धीरे बदल रही थी।
- सांप्रदायिक टकराव गहराने से हिंदी और उर्दू एक दूसरे से दूर जा रही थी।
- फ़ारसी तथा अरबी मूल के सारे शब्दों को हटाकर हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बनाने की कोशिश और उर्दू फ़ारसी के नज़दीक हो रही थी।
- इस कारण भाषा भी धार्मिक पहचान की राजनीति का हिस्सा बन गई।
हिंदी की हिमायत
संविधान सभा के एक शुरुआती सत्र में संयुक्त प्रांत के कांग्रेसी सदस्य आर.वी. धुलेकर द्वारा हिंदी को संविधान निर्माण की भाषा के रूप में इस्तेमाल करने की बात पर सदन में हंगामा हो गया कि सभा के सभी सदस्य हिंदी नहीं समझते।
- जवाहरलाल नेहरू के हस्तक्षेप से शांति बहाल हुई लेकिन भाषा का सवाल अगले 3 साल तक बार-बार कार्रवाइयों में बाधा डालता रहा।
- संविधान सभा की भाषा समिति ने सुझाव दिया कि देवनागरी लिपि में लिखी हिंदी भारत की राजकीय भाषा होगी।
- उनका मानना था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए हमें धीरे-धीरे आगे बढ़ना होगा।
- पहले 15 साल तक सरकारी कामों में अंग्रेज़ी का इस्तेमाल जारी रहेगा।
- प्रत्येक प्रांत को अपने कामों के लिए कोई एक क्षेत्रीय भाषा चुनने का अधिकार होगा।
धुलेकर हिंदी को राजभाषा नहीं बल्कि राष्ट्रभाषा घोषित करना चाहते थे। परंतु समिति ने हिंदी को राजभाषा कहकर विभिन्न पक्षों की भावनाओं को शांत करने और सर्वस्वीकृत समाधान पेश करने का प्रयास किया था।
वर्चस्व का भय
श्रीमती दुर्गाबाई ने सदन को बताया कि दक्षिण में हिंदी का विरोध बहुत ज़्यादा है। इसके बावजूद बहुत सारे अन्य सदस्यों के साथ उन्होंने भी महात्मा गाँधी के आह्वान का पालन किया, दक्षिण में हिंदी का प्रचार जारी रखा, विरोध का सामना किया, हिंदी के स्कूल खोले और कक्षाएँ चलायीं।
➡ बम्बई के सदस्य श्री शंकरराम देव हिंदुस्तानी को राष्ट्र की भाषा के रूप में स्वीकार कर चुके थे परंतु उनका कहना था कि कोई ऐसा कदम न उठाया जाए जिससे उनके भीतर संदेह पैदा हो या उनकी आकांक्षाओं को बल मिले।
➡ मद्रास के श्री टी.ए. रामलिंगम चेट्टियार ने कहा कि जो भी किया जाए, एहतियात के साथ किया जाए। आक्रामक होकर हिंदी का कोई भला नहीं हो पाएगा।
निष्कर्षत:, भारतीय संविधान गहन विवादों और परिचर्चाओं से गुज़रते हुए बना। उसके कई प्रावधान लेन-देन की प्रक्रिया की ज़रिए बनाए गए।
➡ संविधान का एक केंद्रीय अभिलक्षण वयस्क मताधिकार था। दूसरा महत्वपूर्ण अभिलक्षण था धर्मनिरपेक्षता पर बल।
- धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25-28)
- सांस्कृतिक व शैक्षिक अधिकार (अनुच्छेद 29, 30)
- समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14, 16, 17)
➡ राज्य ने सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार की गारंटी दी और उन्हें हितैषी संस्थाएँ बनाए रखने का अधिकार भी दिया।
- राज्य ने अपने आप को विभिन्न धार्मिक समुदायों से दूर रखने की कोशिश की और अपने स्कूलों व कॉलेजों में अनिवार्य धार्मिक शिक्षा पर रोक लगा दी।
- रोज़गार में धार्मिक भेद-भाव को अवैध ठहराया।
- धार्मिक समुदायों से जुड़े सामाजिक सुधार कार्यक्रमों के लिए कुछ कानूनी गुंजाइश रखी गई। इस तरह अस्पृश्यता पर कानूनी रोक लग पाई।
काल — रेखा
1945
- 26 जुलाई — ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार सत्ता में आती है
- दिसंबर-जनवरी — भारत में आम चुनाव
1946
- 16 मई — कैबिनेट मिशन अपनी संवैधानिक योजना की घोषणा करती है
- 16 जून — मुस्लिम लीग कैबिनेट मिशन के संवैधानिक योजना पर स्वीकृति देती है
- 16 जून — कैबिनेट मिशन केंद्र में अंतरिम सरकार के गठन का प्रस्ताव पेश करता है
- 16 अगस्त — मुस्लिम लीग द्वारा “प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस” का ऐलान
- 2 सितंबर — कांग्रेस अंतिम सरकार का गठन करती है जिसमें नेहरू को उपराष्ट्रपति बनाया जाता है
- 13 अक्टूबर — मुस्लिम लीग अंतिम सरकार में शामिल होने का फैसला लेती है
- 3-6 दिसंबर — ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली कुछ भारतीय नेताओं से मिलते हैं। इन वार्ताओं का कोई नतीजा नहीं निकलता
- 9 दिसंबर — संविधान सभा के अधिवेशन शुरू हो जाते हैं
1947
- 29 जनवरी — मुस्लिम लीग संविधान सभा को भंग करने की माँग करती है
- 16 जुलाई — अंतरिम सरकार की आखिरी बैठक
- 11 अगस्त — जिन्ना को पाकिस्तान के संविधान सभा का अध्यक्ष निर्वाचित किया जाता है
- 14 अगस्त — पाकिस्तान की स्वतंत्रता : कराची में जश्न
- 14-15 अगस्त मध्यरात्रि — भारत में स्वतंत्रता का जश्न
1949
- दिसंबर — संविधान पर हस्ताक्षर
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भाग — 1
विषय एक : ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ (हड़प्पा सभ्यता)
विषय दो : राजा, किसान और नगर (आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
विषय तीन : बंधुत्व, जाति तथा वर्ग (आरंभिक समाज — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
विषय चार : विचारक, विश्वास और इमारतें (सांस्कृतिक विकास — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
भाग — 2
विषय पाँच : यात्रियों के नज़रिए (समाज के बारे में उनकी समझ — लगभग 10वीं से 17वीं सदी तक)
विषय छ: : भक्ति–सूफी परंपराएँ (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ — लगभग 8वीं से 18वीं सदी तक)
विषय सात : एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर (लगभग 14वीं से 16वीं सदी तक)
विषय आठ : किसान, ज़मींदार और राज्य (कृषि समाज और मुगल साम्राज्य — लगभग 16वीं और 17वीं सदी)
भाग — 3
विषय नौ : उपनिवेशवाद और देहात (सरकारी अभिलेखों का अध्ययन)
विषय दस : विद्रोही और राज (1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान)
विषय ग्यारह : महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन (सविनय अवज्ञा और उससे आगे)
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