अध्याय दस : विद्रोही और राज (1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान)
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Toggleविद्रोह का ढर्रा
जैसे-जैसे विद्रोह की ख़बर एक शहर से दूसरे शहर में पहुँचती गई वैसे-वैसे सिपाही हथियार उठाते गए। हर छावनी में विद्रोह का घटनाक्रम लगभग एक जैसा था।
सैन्य विद्रोह कैसे शुरू हुए
सिपाहियों ने कई जगह शाम के समय पर तोप का गोला दाग कर तो कहीं बिगुल बजाकर विद्रोह का संकेत दिया।
- सबसे पहले उन्होंने शस्त्रागार पर क़ब्ज़ा किया और सरकारी ख़ज़ाने को लूटा।
- इसके बाद जेल, सरकारी ख़ज़ाने, टेलीग्राफ़ दफ़्तर, रिकॉर्ड रूम, बंगलों, तमाम सरकारी इमारतों पर हमला कर सारे रिकॉर्ड जलाते चले गए।
- हिंदुओं और मुसलमानों, तमाम लोगों को एकजुट होने और फ़िरंगियों का सफाया करने के लिए हिंदी, उर्दू, फ़ारसी में अपीलें जारी करने लगे।
- विद्रोह में आम लोगों के शामिल होने पर हमलों का दायरा फैल गया।
- लखनऊ, कानपुर और बरेली जैसे बड़े शहरों में साहूकार और अमीर भी विद्रोहियों के गुस्से का शिकार बनने लगे। किसान इन लोगों को उत्पीड़क और अंग्रेज़ों का पिट्ठू मानते थे।
- ज़्यादातर जगह अमीरों के घर-बार लूट का तबाह कर दिए गए। मई-जून के महीनों में अंग्रेज़ अपनी ज़िंदगी और घर-बार बचाने में लगे थे।
- एक ब्रिटिश अफ़सर ने लिखा, ब्रिटिश शासन “ताश के क़िले की तरह बिखर गया।”
संचार के माध्यम
विद्रोहियों की योजना और समन्वय की वजह से अलग-अलग स्थानों पर विद्रोह के ढर्रे में समानता थी और विभिन्न छावनियों के सिपाहियों के बीच अच्छा संचार बना हुआ था।
- उदाहरण : विद्रोह के दौरान अवध मिलिट्री पुलिस के कैप्टेन हियर्से की सुरक्षा का ज़िम्मा भारतीय सिपाहियों पर था।
- जहाँ कैप्टेन हियर्से तैनात था वहीं 41वीं नेटिव इन्फेंट्री भी तैनात थी।
- इन्फेंट्री ने हियर्से को मारने या फिर उनके हवाले करने को कहा। पर मिलिट्री पुलिस ने इनकार कर हर रेजीमेंट के देशी अफ़सरों की एक पंचायत बुलाई।
➡ इतिहासकार चार्ल्स बॉल ने लिखा कि ये पंचायतें रात को कानपुर सिपाही लाइनों में जुट कर सामूहिक रूप से कुछ फ़ैसले ज़रूर लेते थे। क्योंकि वे सभी लाइनों में रहते और उनकी जीवनशैली एक जैसी (प्राय: एक ही जाति) थी। ये सिपाही अपने विद्रोह के कर्ताधर्ता ख़ुद ही थे।
नेता और अनुयायी
मेरठ के सिपाहियों ने सबसे पहले दिल्ली जाकर मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र से विद्रोह का नेतृत्व करने की दरख़्वास्त की। कोई चारा न बचने पर ही वे नाममात्र का नेता बनने को तैयार हुए।
- कानपुर में सिपाहियों और शहर के लोगों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के उत्तराधिकारी नाना साहिब के सामने बग़ावत की बागडोर संभालने के सिवा कोई और विकल्प नहीं छोड़ा था।
- झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई को आम जनता के दबाव में बग़ावत का नेतृत्व सँभालना पड़ा।
- अवध में लोगों ने नवाब वाजिद अली शाह के युवा बेटे बिरजिस क़द्र को अपना नेता घोषित कर दिया।
➡ विद्रोह का संदेश आम पुरुषों एवं महिलाओं के ज़रिए और कुछ स्थानों पर धार्मिक लोगों के ज़रिए भी फैल रहा था।
- मेरठ से आई ख़बर में हाथी पर सवार एक फ़क़ीर को देखा गया जिससे सिपाही बार-बार मिलने जाते थे।
- लखनऊ में बहुत सारे धार्मिक नेता और स्वयंभू पैगंबर-प्रचारक ब्रिटिश राज को नेस्तनाबूद करने का अलख जगा रहे थे।
- शाह मल ने उत्तर प्रदेश में बड़ौत परगना के गाँव वालों को संगठित किया।
- छोटा नागपुर (सिंहभूम) के एक आदिवासी काश्तकार ने गोनू इलाके के कोल आदिवासियों का नेतृत्व सँभाला हुआ था।
अफ़वाहें और भविष्यवाणियाँ
मेरठ से दिल्ली आने वाले सिपाहियों ने बहादुर शाह को गाय और सुअर की चर्बी का लेप लगे एन्फ़ील्ड राइफ़ल के कारतूसों के बारे में बताया जिन्हें मुँह से लगाने पर उनकी जाति और मज़हब, भ्रष्ट हो जाएँगे।
- अंग्रेज़ों के लाख समझाने पर भी यह अफ़वाह उत्तर भारत की छावनियों में जंगल की आग की तरह फैल गई।
- एक और अफ़वाह कि अंग्रेज़ों ने बाजार में मिलने वाले आटे में गाय और सुअर की हड्डियों का चूरा मिलवा दिया है।
- शहरों और छावनियों में सिपाहियों और आम लोगों ने आटे को छूने से इनकार कर दिया।
- किसी बड़ी कार्रवाई के आहवान को इस भविष्यवाणी से और बल मिला कि प्लासी की जंग के 100 साल पूरा होते ही 23 जून 1857 को अंग्रेज़ी राज ख़त्म हो जाएगा।
➡ उत्तर भारत के विभिन्न भागों में गाँव-गाँव में चपातियाँ बाँटी जा रही थी। इसका मतलब और मक़सद न उस समय स्पष्ट था और ना आज स्पष्ट है। लेकिन संभव है कि लोग इसे किसी आने वाली उथल-पुथल का संकेत मान रहे थे।
लोग अफ़वाहों में विश्वास क्यों कर रहे थे?
अफ़वाह तब फैलती जब लोगों के ज़हन में गहरे दबे डर और संदेह अफ़वाहों में नज़र आने लगते है।
➡ इन अफ़वाहों को 1820 के दशक से अंग्रज़ों द्वारा अपनाई गई नीतियों के संदर्भ में समझा जा सकता है।
- गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकार पश्चिमी शिक्षा, विचारों और संस्थानों के ज़रिए भारतीय समाज को सुधारने के लिए नीतियाँ लागू कर रही थी।
- भारतीय समाज के कुछ तबकों की मदद से उन्होंने अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय (पश्चिमी विज्ञान और उदार कलाओं की पढ़ाई) स्थापित किए।
- सती प्रथा को खत्म करने (1829) तथा हिंदू विधवा विवाह को वैधता देने के लिए क़ानून बनाए।
- शासकीय दुर्बलता और दत्तकता को अवैध घोषित कर देने जैसे बहानों के ज़रिए अंग्रेज़ों ने अवध, झाँसी और सतारा जैसी रियासतों को क़ब्ज़े में ले लिया।
- वहाँ उन्होंने अपने ढंग की शासन व्यवस्था, क़ानून, भूमि विवादों के निपटारे की अपनी पद्धति और भूराजस्व वसूली की अपनी व्यवस्था लागू की।
उत्तर भारत के लोगों पर इन सब कार्यवाइयों का गहरा असर पड़ा और ऐसे हालात में अफ़वाहें रातोंरात फैलने लगी।
अवध में विद्रोह
1851 में गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध की रियासत के बारे में कहा था “ये गिलास फल एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।” 1856 में इस रियासत को औपचारिक रूप से ब्रिटिश साम्राज्य का अंग घोषित कर दिया गया।
- 1801 से अवध में सहायक संधि थोप दी गई थी। जिसके अनुसार नवाब अपनी सेना ख़त्म कर दे, रियासत में अंग्रेज़ टुकड़ियों की तैनाती की जाए और दरबार में मौजूद ब्रिटिश रेज़ीडेंट की सलाह पर काम करे।
- इस तरह नवाब क़ानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए अंग्रेज़ों पर निर्भर थे। अब विद्रोही मुखियाओं और ताल्लुक़दारों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं था।
सहायक संधि
लॉर्ड वेलेज़्ली द्वारा 1798 में तैयार की गई एक व्यवस्था थी। संधि करने वालों को कुछ शर्तें माननी पड़ती थी जैसे:—
(क) अंग्रेज़ अपने सहयोगी की बाहरी और आंतरिक चुनौतियों से रक्षा करेंगे।
(ख) सहयोगी पक्ष के भूक्षेत्र में एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी तैनात रहेगी।
(ग) सहयोगी पक्ष को इस टुकड़ी के रख-रखाव की व्यवस्था करनी होगी।
(घ) सहयोगी पक्ष न तो किसी और शासक के साथ संधि कर सकेगा और न ही अंग्रेज़ों की अनुमति के बिना किसी युद्ध में हिस्सा लेगा।
➡ अवध की ज़मीन नील और कपास की खेती के लिए मुफ़ीद थी इसलिए इस पर क़ब्ज़े में अंग्रेज़ों की दिलचस्पी बढ़ती जा रही थी। 1850 के दशक की शुरुआत तक वे मराठा भूमि, दोआब, कर्नाटक, पंजाब और बंगाल आदि हिस्सों पर क़ब्ज़ा कर चुके थे और अंततः 1856 में अवध पर क़ब्ज़ा किया।
“देह से जान जा चुकी थी।”
अवध के नवाब वाजिद अली शाह अच्छी तरह शासन नहीं चला रहे थे यह कहकर उन्हें गद्दी से हटा कर कलकत्ता निष्कासित कर दिया गया था।
- जब वे लखनऊ से विदा ले रहे थे तो बहुत सारे लोग विलाप करते हुए कानपुर तक उनके पीछे गए थे।
- इस भावनात्मक उथल-पुथल को भौतिक क्षति के अहसास से और बल मिला।
- नवाब को हटाए जाने से दरबार और उसकी संस्कृति भी ख़त्म हो गई।
- संगीतकारों, नर्तकों, कवियों, कारीगरों, बावर्चियों, नौकरों, सरकारी कर्मचारियों और बहुत सारे लोगों की रोज़ी-रोटी जाती रही।
फ़िरंगी राज का आना और एक दुनिया का ख़ात्मा
अवध में विभिन्न प्रकार की पीड़ाओं ने राजकुमारों, ताल्लुकदारों, किसानों और सिपाहियों को एक-दूसरे से जोड़ दिया था।
- वे सभी फिरंगी राज के आगमन को विभिन्न अर्थों में दुनिया के ख़ात्मे के रूप में देख रहे थे।
- 1857 के विद्रोह में तमाम भावनाएँ और मुद्दे, परंपराएँ एवं निष्ठाएँ अभिव्यक्त हो रही थी।
➡ अवध के समूचे देहात में ताल्लुक़दारों की जागीरें और क़िले थे। वे नवाब की संप्रभुता को स्वीकार कर राजस्व चुकाते थे।
- बड़े ताल्लुक़दारों के पास 12,000 पैदल सिपाही और छोटे-मोटे ताल्लुक़दारों के पास 200 सिपाहियों की टुकड़ी होती थी।
- अवध पर क़ब्ज़े के बाद अंग्रेज़ों ने ताल्लुक़दारों की सेनाएँ भंग कर दी और उनके दुर्ग नष्ट कर दिए।
- 1856 में एकमुश्त बंदोबस्त के नाम से ब्रिटिश भूराजस्व व्यवस्था लागू की गई।
- इसके अनुसार ताल्लुक़दार बिचौलिए थे जिनके पास ज़मीन का मालिकाना नहीं था। उन्होंने बल और धोखाधड़ी के ज़रिए अपना प्रभुत्व स्थापित किया हुआ था।
- इसमें ताल्लुक़दारों को उनकी ज़मीनों से बेदखल किया जाने लगा। पहले ताल्लुक़दारों के पास अवध के 67% गाँव थे जो घटकर 38% रह गए।
➡ ब्रिटिश भूराजस्व अधिकारियों का मानना था कि ताल्लुक़दारों को हटाकर ज़मीन असली मालिकों को देने से किसानों के शोषण में कमी आएगी और राजस्व में इजाफ़ा होगा।
- मगर राजस्व में इजाफ़ा तो हुआ लेकिन किसानों के बोझ में कमी नहीं आई।
- अधिकारियों को जल्द समझ आया कि कुछ स्थानों पर राजस्व माँग में 30 से 70% तक इजाफ़ा हो गया था।
➡ ताल्लुक़दारों की सत्ता छिनने से एक पूरी सामाजिक व्यवस्था भंग हो गई। ताल्लुक़दार किसानों से तरह-तरह से पैसे तो वसूलते थे लेकिन बुरे वक़्त में उनकी मदद भी करते थे।
- अब कठिन वक़्त या फ़सल खराब होने पर राजस्व माँग में कमी की कोई गारंटी नहीं थी और तीज त्यौहारों पर क़र्जा या मदद मिलने की भी कोई उम्मीद नहीं थी।
➡ 1857 के दौरान अवध में ताल्लुक़दारों और किसानों ने ही लड़ाई की बागडोर सँभाली थी। बहुत सारे ताल्लुक़दार लखनऊ जाकर बेगम हज़रत महल (नवाब की पत्नी) के खेमे में शामिल हो गए। कुछ बेगम की पराजय के बाद भी उनके साथ डटे रहे।
➡ बहुत सारे किसान अवध के गाँवों से फौज में भर्ती हुए थे। जो दशकों से कम वेतन और वक़्त पर छुट्टी न मिलने के कारण असंतुष्ट थे।
- 1820 के दशक में अंग्रेज़ अफ़सर सिपाहियों के साथ दोस्ताना ताल्लुक़ात रखते, उनकी मौजमस्ती में शामिल होते, उनके साथ मल्ल-युद्ध करते तथा तलवारबाज़ी करते और शिकार पर जाते थे।
- उनमें से बहुत सारे हिंदुस्तानी बोलते और यहाँ के रीति-रिवाजों व संस्कृति से वाकिफ़ थे। उनमें अफ़सर की कड़क और अभिवावक का स्नेह, दोनों निहित थे।
- 1840 के दशक में अफ़सरों में श्रेष्ठता का भाव पैदा होने लगा और वे सिपाहियों को कमतर नस्ल का मानने लगे।
- वे उनकी भावनाओं की फ़िक्र किए बिना गाली-गलौज और शारीरिक हिंसा करने लगे।
- इस तरह सिपाहियों और अफ़सरों के बीच फ़ासला बढ़ता गया। भरोसे की जगह संदेह ने ले ली।
➡ बंगाल आर्मी के सिपाहियों में से बहुत सारे अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों से भर्ती होकर आए थे। बहुत सारे ब्राह्मण या “ऊँची जाति” के थे।
- अवध को “बंगाल आर्मी की पौधशाला” कहा जाता था।
- कारतूसों के बारे में सिपाहियों का भय, छुट्टियों के बारे में उनकी शिकायतें, बढ़ते दुर्व्यवहार और नस्ली गाली-गलौज के प्रति बढ़ता असंतोष गाँवों में भी दिखने लगा था।
- अफ़सरों की अवज्ञा करने और हथियार उठाने पर गाँवों से उनके भाई-बिरादर भी आ जुटते थे।
विद्रोही क्या चाहते थे?
अंग्रेज़ विद्रोहियों को अहसानफ़रामोश और बर्बर लोगों का झुंड मानते थे। वे विद्रोहियों की आवाज़ को दबा देना चाहते थे।
- विद्रोहियों में ज़्यादातर सिपाही और आम लोग थे जो पढ़े-लिखे नहीं थे।
- उनके नज़रिए को समझने के लिए कुछ घोषणाएँ व इश्तहार (अपने विचारों का प्रसार तथा लोगों को विद्रोह में शामिल करने के लिए जारी किए) है।
1857 को रचने के लिए इतिहासकारों को बहुत हद तक तथा मजबूरन, अंग्रेज़ों के दस्तावेज़ों पर निर्भर रहना पड़ता है। परंतु इन स्त्रोतों से अंग्रेज़ अफ़सरों की सोच का पता चलता है विद्रोही क्या चाहते थे इसके बारे में नहीं।
एकता की कल्पना
1857 में विद्रोहियों द्वारा जारी की गई घोषणाओं में, जाति और धर्म का भेद किए बिना समाज के सभी तबकों का आह्वान किया जाता था।
- मुस्लिम राजकुमारों या नवाबों की तरफ़ से या उनके नाम पर जारी की गई घोषणाओं में हिंदुओं की भावनाओं का भी ख़्याल रखा जाता था।
- इश्तहारों में अंग्रेज़ों से पहले के हिंदू-मुस्लिम अतीत की ओर संकेत कर मुग़ल साम्राज्य के तहत विभिन्न समुदायों के सहअस्तित्व का गौरवगान किया जाता था।
- बहादुर शाह के नाम से जारी की गई घोषणा में मुहम्मद और महावीर, दोनों की दुहाई देते हुए जनता से इस लड़ाई में शामिल होने का आह्वान किया गया।
- अंग्रेज़ शासन ने दिसंबर 1857 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्थित बरेली के हिंदुओं को मुसलमानों के ख़िलाफ़ भड़काने के लिए ₹50,000 खर्च किए। मगर उनकी यह कोशिश कामयाब नहीं हुई।
उत्पीड़न के प्रतीकों के ख़िलाफ़
- घोषणाओं में ब्रिटिश राज (फ़िरंगी राज) से संबंधित हर चीज़ को पूरी तरह खारिज किया जा रहा था।
- देशी रियासतों पर क़ब्ज़े और समझौतों का उल्लंघन करने के लिए अंग्रेज़ों की निंदा की जाती थी।
- लोगों ने इस बात पर गुस्सा दिखाया कि ब्रिटिश भूराजस्व व्यवस्था ने बड़े-छोटे भूस्वामियों को ज़मीन से बेदख़ल कर दिया और विदेशी व्यापार ने दस्तकारों और बुनकरों को तबाह कर डाला।
- उद्घोषणाएँ यह डर व्यक्त करती थी कि अंग्रेज़, हिंदूओं और मुसलमानों की जाति और धर्म को नष्ट करने पर तुले हैं और वे लोगों को ईसाई बनाना चाहते हैं। इस डर की वजह से लोग चल रही अफ़वाहों पर भरोसा करने लगे थे।
वैकल्पिक सत्ता की तलाश
ब्रिटिश शासन ध्वस्त हो जाने के बाद दिल्ली, कानपुर और लखनऊ जैसे स्थानों पर विद्रोहियों ने एक प्रकार की सत्ता और शासन संरचना स्थापित करने का प्रयास किया परंतु यह प्रयोग ज़्यादा समय तक चल नहीं पाया था।
- इन कोशिशों से पता चलता है कि विद्रोही नेता 18वीं सदी की पूर्व-ब्रिटिश दुनिया को पुनर्स्थापित करना चाहते थे।
- इन नेताओं ने पुरानी दरबारी संस्कृति का सहारा लिया
- विभिन्न पदों पर नियुक्तियाँ की
- भूराजस्व वसूली और सैनिकों के वेतन के भुगतान का इंतज़ाम किया
- लूटपाट बंद करने के हुक्मनामे जारी किए
- अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ युद्ध जारी रखने की योजनाएँ भी बनाई गई
- सेना की कमान श्रृंखला तय की गई
- इन सारे प्रयासों में विद्रोही 18वीं सदी के मुग़ल जगत से प्रेरणा ले रहे थे।
दमन
1857 के मौजूद विवरणों से साफ़ हो जाता है कि विद्रोह को कुचलना अंग्रेज़ों के लिए आसान नहीं था।
- उत्तर भारत को दोबारा जीतने के लिए टुकड़ियों को रवाना करने से पहले अंग्रेज़ों ने उपद्रव शांत करने के लिए फ़ौजियों की आसानी के लिए कई क़ानून पारित (मई और जून 1857) कर दिए थे।
- इन क़ानूनों ज़रिए उत्तर भारत में मार्शल लॉ लागू करने के साथ फ़ौजी अफ़सरों तथा आम अंग्रेज़ों को भी ऐसे हिंदुस्तानियों पर मुक़दमा चलाने और उनको सज़ा देने का अधिकार दिया गया जिन पर विद्रोह में शामिल होने का शक था।
➡ अंग्रेज़ों ने ब्रिटेन से मँगाई गई नयी टुकड़ियों की मदद से कलकत्ते और पंजाब, दोनों तरफ़ से दिल्ली की ओर कूच किया।
- दिल्ली को क़ब्ज़े में लेने की अंग्रेज़ों की कोशिश जून 1857 से शुरू होकर सितंबर के आखिर में जाकर पूरी हुई।
- दोनों तरफ़ से जमकर हमले में दोनों पक्षों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। इस वजह से पूरे उत्तर भारत के विद्रोही राजधानी को बचाने के लिए दिल्ली आ पहुँचे।
- अंग्रेज़ों को एहसास हुआ कि उनका सामना सैनिक विद्रोह के साथ जन-समर्थन से भी था।
- उदाहरण : अवध में फॉरसिथ (एक अंग्रेज़ अफ़सर) का अनुमान था कि कम से कम तीन-चौथाई व्यस्क पुरुष आबादी विद्रोह में शामिल थी।
- इस इलाक़े को मार्च 1858 में जाकर ही अंग्रेज़ अपने नियंत्रण में ले पाए।
➡ अंग्रेज़ो ने सैनिक ताकत का भयानक पैमाने पर इस्तेमाल के साथ बड़े ज़मींदारों को आश्वासन दिया कि उन्हें उनकी जागीरें लौंटा दी जाएँगीं।
- विद्रोही ज़मींदारों को ज़मीन से बेदख़ल कर दिया गया और वफ़ादार को ईनाम दिए गए।
- बहुत सारे ज़मींदार अंग्रेज़ों से लड़ते-लड़ते मारे गए या भाग कर नेपाल चले गए जहाँ उनकी बीमारी व भूख से मौत हो गई।
विद्रोह की छवियाँ
- औपनिवेशिक प्रशासक और फ़ौजी अपनी चिट्ठियों, डायरियों, आत्मकथाओं और सरकारी इतिहासों में अपने-अपने ब्योरे दर्ज कर गए हैं।
- असंख्यक मेमों और नोट्स, परिस्थितियों के आकलन एवं विभिन्न रिपोर्टों के ज़रिए भी हम सरकारी सोच और अंग्रेज़ों के बदलते रवैये को समझ सकते हैं।
- ये दस्तावेज़ हमें अफ़सरों के भीतर मौजूद भय और बैचेनी तथा विद्रोहियों के बारे में उनकी सोच का पता देते हैं।
➡ ब्रिटिश अख़बारों और पत्रिकाओं में सैनिक विद्रोहियों को हिंसापूर्वक छापा जाता था। जो जनता की भावनाओं को भड़काती तथा प्रतिशोध और सबक सिखाने की माँगों को हवा देती थीं।
- अंग्रेज़ों और भारतीयों द्वारा तैयार की गई तसवीरें सैनिक विद्रोह का एक महत्वपूर्ण रिकॉर्ड रही है।
- इस विद्रोह के बारे में कई चित्र, पेंसिल से बने रेखकांन, उत्कीर्ण चित्र, पोस्टर, कार्टून, और बाज़ार-प्रिंट उपलब्ध हैं।
रक्षकों का अभिनंदन
अंग्रेज़ों द्वारा बनाई तस्वीरों में अंग्रेज़ों को बचाने और विद्रोहियों को कुचलने वाले अंग्रेज़ नायकों का गुणगान किया गया है।
उदाहरण: 1859 में टॉमस जोन्स बार्कर द्वारा बनाया गया चित्र “रिलीफ़ ऑफ़ लखनऊ”।
- विद्रोही टुकड़ियों द्वारा लखनऊ पर घेरा डालने पर लखनऊ के कमिश्नर हेनरी लॉरेंस ने ईसाइयों को इकट्ठा कर बेहद सुरक्षित रेज़ीडेंसी में पनाह ली।
- लॉरेंस के मरने के बाद कर्नल इंगलिस के नेतृत्व में रेज़ीडेंसी सुरक्षित रहा।
- 25 सितंबर को जेम्स ऑट्रम और हेनरी हेवलॉक ने वहाँ पहुँचकर विद्रोहियों को तितर-बितर कर ब्रिटिश टुकड़ियों को नई मजबूती दी।
- 20 दिन बाद भारत में ब्रिटिश टुकड़ियों का नया कमांडर कॉलिन कैम्पबेल ने सेना के साथ पहुँचकर ब्रिटिश रक्षकसेना को घेरे से छुड़ाया।
अंग्रेज़ों के बयानों में लखनऊ की घेराबंदी उत्तरजीविता, बहादुराना प्रतिरोध और ब्रिटिश सत्ता की निर्विवाद विजय की कहानी बन गई।
इस तरह के चित्रों से अंग्रेज़ जनता में अपनी सरकार के प्रति भरोसा पैदा होता था और लगता था कि विद्रोह खत्म होकर अंग्रेज़ों की जीत हो चुकी हैं।
अंग्रेज़ औरतें तथा ब्रिटेन की प्रतिष्ठा
भारत में औरतों और बच्चों के साथ हुई हिंसा की कहानियों को पढ़कर ब्रिटेन की जनता प्रतिशोध तथा सबक सिखाने, मासूम औरतों की इज़्ज़त बचाने, बच्चों की सुरक्षा करने की माँग करने लगी।
कलाकारों ने सदमे और पीड़ा की अपनी चित्रात्मक अभिव्यक्तियों के ज़रिये इन भावनाओं को आकार प्रदान किया।
उदाहरण: जोज़ेफ़ नोएल पेटन ने सैनिक विद्रोह के 2 साल बाद “इन मेमोरियम” बनाई।
- इसमें भीषण हिंसा नहीं, सिर्फ़ एक इशारा है जो दर्शक की कल्पना को झिंझोड़कर उसमें ग़ुस्से और बेचेनी का भाव पैदा करती है।
- इसमें विद्रोहियों को हिंसक और बर्बर बताया गया है।
अन्य रेखाचित्रों व पेंटिंग्स में औरतों को विद्रोहियों के हमले से अपने बचाव के रूप में दर्शाया गया है।
प्रतिशोध और सबक़
ब्रिटेन में ग़ुस्से और सकते के माहौल ने बदले की माँग को बुलंद किया। विद्रोह के बारे में प्रकाशित चित्रों एवं ख़बरों ने हिंसक दमन और प्रतिशोध को लाज़िम और वाजिब बना दिया।
- विद्रोह से आतंकित अंग्रेज़ों को लगता था कि उन्हें अपनी अपराजयता का प्रदर्शन करना ही चाहिए।
- एक तसवीर में न्याय की एक रूपकात्मक स्त्री जिसके एक हाथ में तलवार दूसरे हाथ में ढाल है चेहरे पर भयानक गुस्सा और बदला लेने की तड़प दिखाई देती है।
- वह सिपाहियों को अपने पैरों तले कुचल रही है जबकि भारतीय औरतों और बच्चों की भीड़ भय से काँप रही है।
- इनके अलावा भी ब्रिटिश प्रेस में असंख्य दूसरी तसवीरें और कार्टून थे जो निर्मम दमन तथा हिंसक प्रतिशोध की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहे थे।
दहशत का प्रदर्शन
विद्रोहियों को तोपों के मुहाने पर बाँधकर उड़ा दिया गया या फ़ाँसी पर लटका दिया। इन सज़ाओं की तसवीरें आम पत्र-पत्रिकाओं के ज़रिये दूर-दूर तक पहुँच रही थीं।
दया के लिए कोई जगह नहीं
- प्रतिशोध के लिए शोर मचने के समय पर नर्म सुझाव मज़ाक का पात्र बन रहे थे।
- गवर्नर-जनरल कैनिंग द्वारा नर्मी और दया भाव से सिपाहियों की वफ़ादारी हासिल करने की माँग ने ब्रिटिश प्रेस में उसका मज़ाक उड़ाया।
राष्ट्रवादी दृश्य कल्पना
- 20वीं सदी में राष्ट्रवादी आंदोलन को 1857 के घटनाक्रम से प्रेरणा मिल रही थी।
- इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में देश के हर तबके के लोगों ने साम्राज्यवादी शासन के ख़िलाफ़ मिलकर लड़ाई लड़ी थी।
- इतिहास लेखन की तरह कला और साहित्य ने भी 1857 की स्मृति को जीवित रखने में योगदान दिया।
➡ विद्रोह के नेताओं को देश को रणस्थल की तरफ़ ले जाने वाले नायकों के रूप में पेश किया जाता था। उन लोगों को दमनकारी साम्राज्यवादी शासन के ख़िलाफ़ उत्तेजित करते चित्रित किया जाता था।
- रानी झाँसी को मर्दाना रूप में जो दुश्मनों का पीछा करते हुए और ब्रिटिश सिपाहियों को मौत की नींद सुलाते हुए आगे बढ़ रही है।
- इन तसवीरों से उन्हें बनाने वाले चित्रकार के एहसासों का पता चलता है।
➡ इन चित्रों और कार्टूनों के माध्यम से हम उसकी तारीफ़ या आलोचना करने वालों के बारे में जान सकते है।
- ब्रिटेन में छप रहे चित्रों में उत्तेजित जनता विद्रोहियों को भयानक बर्बरता के साथ कुचल डालने के लिए आवाज़ उठा रही थी।
- दूसरी तरफ़ भारतीय राष्ट्रवादी चित्र हमारी राष्ट्रवादी कल्पना को निर्धारित करने में मदद कर रहे थे।
काल — रेखा
- 1801 — अवध में वेलेज़ली द्वारा सहायक संधि लागू की गई
- 1856 — नवाब वाजिद अली शाह को गद्दी से हटाया गया, अवध का अधिग्रहण
- 1856-57 — अंग्रेज़ों द्वारा अवध में एकमुश्त लगान बंदोबस्त लागू
1857
- 10 मई — मेरठ में “सैनिक विद्रोह”
- 11-12 मई — दिल्ली रक्षकसेना में विद्रोह : बहादुर शाह सांकेतिक नेतृत्व स्वीकार करते हैं
- 20-27 मई — अलीगढ़, इटावा, मैनपुरी, एटा में सिपाही विद्रोह
- 30 मई — लखनऊ में विद्रोह
- मई-जून — सैनिक विद्रोह एक व्यापक जन विद्रोह में बदल जाता है
- 30 जून — चिनहाट के युद्ध में अंग्रेज़ों की हार होती है
- 25 सितंबर — हेवलॉक और ऑट्रम के नेतृत्व में अंग्रेज़ों की टुकड़ियाँ लखनऊ रेज़ीडेंसी में दाख़िल होती हैं
1858
- जून — युद्ध में रानी झाँसी की मृत्यु
- जुलाई — युद्ध में शाह मल की मृत्यु
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भाग — 1
विषय एक : ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ (हड़प्पा सभ्यता)
विषय दो : राजा, किसान और नगर (आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
विषय तीन : बंधुत्व, जाति तथा वर्ग (आरंभिक समाज — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
विषय चार : विचारक, विश्वास और इमारतें (सांस्कृतिक विकास — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
भाग — 2
विषय पाँच : यात्रियों के नज़रिए (समाज के बारे में उनकी समझ — लगभग 10वीं से 17वीं सदी तक)
विषय छ: : भक्ति–सूफी परंपराएँ (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ — लगभग 8वीं से 18वीं सदी तक)
विषय सात : एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर (लगभग 14वीं से 16वीं सदी तक)
विषय आठ : किसान, ज़मींदार और राज्य (कृषि समाज और मुगल साम्राज्य — लगभग 16वीं और 17वीं सदी)
भाग — 3
विषय नौ : उपनिवेशवाद और देहात (सरकारी अभिलेखों का अध्ययन)
विषय ग्यारह : महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन (सविनय अवज्ञा और उससे आगे)
विषय बारह : संविधान का निर्माण (एक नए युग की शुरुआत)
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