विषय आठ : किसान, ज़मींदार और राज्य (कृषि समाज और मुग़ल साम्राज्य — लगभग 16वीं-17वीं सदी)
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Toggle16वीं-17वीं सदी के दौरान हिंदुस्तान में करीब 85 फ़ीसदी लोग गाँवों में रहते थे। छोटे खेतिहर और भूमिहर संभ्रांत के कृषि उत्पादन से जुड़ने के कारण उनके बीच सहयोग, प्रतियोगिता और संघर्ष के रिश्ते बने और इन रिश्तों के ताने-बाने से गाँव का समाज बना।
- मुग़ल राज्य का आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा कृषि उत्पादन से आता था।
- राज्य के नुमाइंदे राजस्व निर्धारित करके, राजस्व वसूलते और हिसाब रखकर ग्रामीण समाज पर काबू रखने की कोशिश करते थे।
- कई फ़सलें बिक्री के लिए उगाई जाती थीं, इसलिए व्यापार, मुद्रा और बाज़ार के गाँव में घुसने से खेती वाले इलाके शहर से जुड़ गए।
किसान और कृषि उत्पादन
खेतिहर समाज की बुनियादी इकाई गाँव थी जिसमें किसान रहते थे। किसान साल भर फ़सल की पैदावार और कृषि-आधारित उत्पादन (शक्कर, तेल आदि) में काम करते थे।
- लेकिन सूखी ज़मीन के विशाल हिस्सों से पहाड़ियों वाले इलाके पर खेती के मुक़ाबले ज़्यादा खेती मैदानी इलाकों के उपजाऊ ज़मीनों पर होती थी। इसके अलावा, भूखंड का एक बहुत बड़ा हिस्सा जंगलों से घिरा था।
स्त्रोतों की तलाश
खेतों में काम करने वाले किसान अपने बारे में खुद नहीं लिखते थे। इसलिए 16वीं-17वीं सदी के कृषि इतिहास को समझने के लिए मुग़ल दरबार की निगरानी में लिखे गए ऐतिहासिक ग्रंथ व दस्तावेज़ मुख्य स्त्रोत हैं।
सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथों में से एक था अबुल फ़ज़्ल की आइन-ए-अकबरी।
- इसमें खेतों के नियमित जुताई की तसल्ली करने के लिए,
- राज्य के नुमाइंदों द्वारा करों की उगाही के लिए,
- राज्य व ग्रामीण ज़मींदारों (सत्तापोशों) के बीच के रिश्तों के नियमन के लिए,
- राज्य द्वारा किए गए इंतज़ाम का लेखा-जोखा आदि बड़ी सावधानी से पेश किया गया है।
➡ आइन का मुख्य उद्देश्य अकबर के साम्राज्य को ऐसा दिखाना था जहाँ एक मज़बूत सत्ताधारी वर्ग सामाजिक मेल-जोल बना कर रखता था।
- लेखक के अनुसार, मुग़ल राज्य के खिलाफ़ कोई बगावत या किसी भी किस्म की स्वायत्त सत्ता की दावेदारी का असफल होना पहले ही तय था।
➡ 17वीं व 18वीं सदी के गुजरात, महाराष्ट्र तथा राजस्थान के दस्तावेज़ (सरकार की आमदनी की विस्तृत जानकारी) और ईस्ट इंडिया कंपनी के दस्तावेज़ (पूर्वी भारत में कृषि-संबंधों का उपयोगी खाका) किसानों, ज़मींदारों और राज्य के बीच तने झगड़ों को दर्ज करते हैं और यह समझने में मदद करते है कि किसान राज्य को कैसे देखते तथा उन्हें राज्य से कैसे न्याय की उम्मीद थी।
किसान और उनकी ज़मीन
मुग़ल काल के भारतीय-फ़ारसी स्रोत किसान के लिए रैयत (बहुवचन, रिआया) या मुज़रियान शब्द का प्रयोग करते थे। साथ ही, किसान या आसामी शब्द भी मिले है।
17वीं सदी के स्रोत दो किस्म के किसानों की चर्चा करते हैं:—
- खुद-काश्त : ये उन्हीं गाँवों में रहते थे जिनमें उनकी ज़मीन थीं।
- पाहि-काश्त : वे खेतिहर थे जो दूसरे गाँवों से ठेके पर खेती करने आते थे। लोग अपनी मर्ज़ी और मजबूरी से भी पाहि काश्त बनते थे।
➡ उत्तर भारत के एक औसत किसान के पास एक जोड़ी बैल और दो हल से ज़्यादा कुछ नहीं होता था ज़्यादातर के पास उससे भी कम।
- गुजरात में 6 एकड़ ज़मीन वाले किसानों को समृद्ध माना जाता था।
- बंगाल में एक औसत किसान की ज़मीन की ऊपरी सीमा 5 एकड़ थी 10 एकड़ ज़मीन वाले आसामी को अमीर समझा जाता था।
सिंचाई और तकनीक
ज़मीन की बहुतायत, मज़दूरों की मौजूदगी और किसानों की गतिशीलता की वजह से कृषि का लगातार विस्तार हुआ।
- खेती का प्राथमिक उद्देश्य लोगों का पेट भरना था, इसलिए चावल, गेहूँ, ज्वार आदि फ़सलें ज़्यादा उगाई जाती थीं।
- प्रति वर्ष 40 इंच या उससे ज़्यादा बारिश वाले इलाकों में चावल और कम तथा कमतर बारिश वाले इलाकों में गेहूँ व ज्वार-बाजरे की खेती होती थी।
➡ मानसून भारतीय कृषि की रीढ़ था, आज भी है। लेकिन अतिरिक्त पानी की ज़रूरत वाले फ़सलों के लिए सिंचाई के कृत्रिम उपाय बनाने पड़े।
- उत्तर भारत में राज्य ने कई नयी नहरें व नाले खुदवाए और कई पुरानी नहरों की मरम्मत करवाई जैसे शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान पंजाब में शाह नहर।
➡ किसान खेती करने के लिए लोहे के फाल लगे हल का प्रयोग करते थे। यह मिट्टी को ज़्यादा गहरे नहीं खोदते थे जिस कारण तेज़ गर्मी के महीनों में नमी बची रहती थी।
- बीज बोने के लिए बैलों के जोड़े के सहारे खींचे जाने वाले बरमे के प्रयोग से ज़्यादा बीजों को हाथ से छिड़क कर बोंने का रिवाज प्रचलित था।
- मिट्टी की गुड़ाई-निराई के लिए लकड़ी के मूठ वाले लोहे के पतले धार काम में लाए जाते थे।
फ़सलों की भरमार
मौसम के दो चक्रों के दौरान खेती की जाती थी: खरीफ़ (पतझड़ में) और रबी (वसंत में)। सूखे इलाकों तथा बंजर ज़मीन को छोड़कर ज़्यादातर जगहों पर साल में दो फ़सलें और बारिश या सिंचाई की व्यवस्था वाले इलाकों में साल में तीन फ़सलें उगाई जाती थीं।
- आइन के अनुसार दोनों मौसम मिलाकर, मुग़ल प्रांत आगरा में 39 किस्म की फ़सलें, दिल्ली प्रांत में 43 फ़सलें और बंगाल में सिर्फ चावल की 50 किस्में पैदा होती थीं।
- स्रोतों में जिन्स-ए-कामिल (सर्वोत्तम फ़सलें) जैसे कपास और गन्ने का ज़िक्र मिलता है। मुग़ल राज्य को इनसे ज़्यादा कर मिलता था।
- मध्य भारत और दक्कनी पठार में कपास उगाई जाती थी, बंगाल अपनी चीनी के लिए मशहूर था। तिलहन (जैसे सरसों) और दलहन भी नकदी फ़सलें थीं।
➡ 17वीं सदी में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से कई नई फ़सलें भारतीय उपमहाद्वीप पहुँची।
- मक्का भारत में अफ्रीका और स्पेन के रास्ते आया।
- टमाटर, आलू, मिर्च, अनानास और पपीता नयी दुनिया से लाई गईं।
ग्रामीण समुदाय
किसान की अपनी ज़मीन पर व्यक्तिगत मिल्कियत होती थी। वे एक सामूहिक ग्रामीण समुदाय का हिस्सा थे। जिसके तीन घटक थे खेतिहर किसान, पंचायत और गाँव का मुखिया (मुक़द्दम या मंडल)।
जाति और ग्रामीण माहौल
- जाति और अन्य जाति जैसे भेदभावों की वजह से खेतिहर किसान कई समूहों में बँटे थे।
- खेतों की जुताई या मज़दूरी का काम नीच समझे जाने वाले लोग करते थे।
- गाँव की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे ही समूहों का था।
- इनके पास सबसे कम संसाधन और जाति व्यवस्था की पाबंदियों से बँधे हुए थे।
- इनकी हालत आधुनिक भारत में दलितों की तरह थी।
- मुसलमान समुदायों में हलालख़ोरान जैसे नीच कामों से जुड़े समूह गाँव से बाहर ही रह सकते थे।
- बिहार में मल्लाहज़ादाओं (नाविकों के पुत्र) की तुलना दासों से की जाती थी।
- समाज के निचले तबकों में जाति, गरीबी और सामाजिक हैसियत के बीच सीधा रिश्ता था।
- 17वीं सदी में मारवाड़ में लिखी गई एक किताब राजपूतों की चर्चा किसानों के रूप में करती है।
- इसके अनुसार जाट भी किसान थे लेकिन जाति व्यवस्था में उनकी जगह राजपूतों के मुक़ाबले नीची थी।
- 17वीं सदी में राजपूत होने का दावा वृंदावन इलाके में गौरव समुदाय ने किया, फिर भी वे ज़मीन की जुताई के काम में लगे थे।
- पशुपालन और बागबानी में बढ़ते मुनाफ़े की वजय से अहीर, गुज्जर तथा माली जैसी जातियाँ सामाजिक सीढ़ी में ऊपर उठीं।
- पूर्वी इलाकों में, पशुपालक तथा मछुआरी जातियाँ (सदगोप व कैवर्त) किसानों की सामाजिक स्थिति पाने लगीं।
पंचायतें और मुखिया
गाँव की पंचायत में बुज़ुर्गों का जमावड़ा होता था। वे गाँव के महत्वपूर्ण लोग थे, जिनकी अपनी संपत्ति के पुश्तैनी अधिकार होते थे।
- कई जातियों वाले गाँवों में, पंचायत में भी विविधता पाई जाती थी। इसमें गाँव के अलग-अलग संप्रदायों और जातियों की नुमाइंदगी होती थी सिवाय छोटे-मोटे या नीच खेतिहर मज़दूरों के।
➡ पंचायत का सरदार एक मुखिया होता था जिसे मुक़द्दम या मंडल कहते थे। मुखिया का चुनाव गाँव के बुज़ुर्गों की आम सहमति से होता था। इसके बाद इसकी मंज़ूरी ज़मींदार से लेनी पड़ती थी।
- गाँव के बुज़ुर्गों का उस पर जब तक भरोसा था वह अपने ओहदे पर बना रहता था।
- गाँव के आमदनी व खर्चे का हिसाब-किताब पटवारी की मदद से बनवाना मुखिया का मुख्य काम था।
- पंचायत का खर्चा गाँव के आम ख़जाने (हर व्यक्ति का योगदान) से चलता था।
- इससे समय-समय पर गाँव का दौरा करने वाले कर अधिकारियों की ख़ातिरदारी भी की जाती थी।
- बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदाओं से निपटने के लिए, सामुदायिक कार्यों (जैसे मिट्टी के छोटे-मोटे बाँध बनाना या नहर खोदना) के लिए कोष का इस्तेमाल होता था।
- पंचायत गाँव में रहने वाले अलग-अलग समुदायों के लोगों पर निगरानी रखती थी ताकि वे अपनी जाति की हदों में रहे।
- पंचायत को जुर्माना लगाने और समुदाय से निष्कासित करने जैसे गंभीर दंड देने के अधिकार थे।
➡ ग्राम पंचायत के अलावा गाँव में हर जाति की अपनी पंचायत होती थी। राजस्थान में जाति पंचायतें अलग-अलग जातियों के लोगों के बीच
- दीवानी के झगड़ों का निपटारा करती,
- ज़मीन से जुड़े दावेदारियों के झगड़े सुलझाती,
- शादियाँ जातिगत मानदंडों के मुताबिक हो तय करती,
- गाँव के आयोजन में किसको तरजीह दी जाए तय करती थी।
➡ फ़ौजदारी न्याय को छोड़कर ज़्यादातर मामलों में राज्य जाति पंचायत के फ़ैसलों को मानता था। पश्चिम भारत (राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे प्रांतों) के दस्तावेज़ों में निचले तबके के लोगों द्वारा दी गई अर्ज़ियाँ है जिनमें पंचायत से ऊँची जातियों या राज्य के अधिकारियों के ख़िलाफ़ ज़बरन कर उगाही या बेगार वसूली की शिकायत की गई है।
- निचली जाति के किसानों और राज्य के अधिकारियों या स्थानीय ज़मींदारों के बीच झगड़ों में पंचायत के फ़ैसले अलग-अलग मामलों में अलग-अलग हो सकते थे।
- अत्यधिक कर की माँगों के मामले में पंचायत समझौते का सुझाव देती थी।
- समझौते न होने पर किसान विरोध का रास्ता अपनाते थे जैसे गाँव छोड़कर भाग जाना।
ग्रामीण दस्तकार
अंग्रेज़ी शासन के शुरुआती वर्षों में किए गए गाँव के सर्वेक्षण और मराठाओं के दस्तावेज़ बताते हैं कि गाँव में दस्तकार काफ़ी तादाद में रहते थे।
- कई समूह किसानी और दस्तकारी दोनों किस्म के काम करते थे।
- खेती के काम से फ़ुरसत के समय खेतिहर दस्तकारी का काम करते थे जैसे रँगरेज़ी, कपड़े पर छपाई, मिट्टी के बरतनों को पकाना, खेती के औज़ारों को बनाना या उनकी मरम्मत करना।
➡ कुम्हार, लोहार, बढ़ई, नाई, और सुनार जैसे ग्रामीण दस्तकार अपनी सेवाओं के बदले गाँव के लोगों से फ़सल का एक हिस्सा या ज़मीन का एक टुकड़ा पाते थे। कभी-कभी वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय होता था।
- महाराष्ट्र में ऐसी ज़मीन दस्तकारों की मीरास या वतन बन गई जिस पर दस्तकारों का पुश्तैनी अधिकार होता था।
- 18वीं सदी के स्रोत बताते हैं कि बंगाल में ज़मींदार उनकी सेवाओं के बदले लोहारों, बढ़ई और सुनारों तक को रोज़ का भत्ता और खाने के लिए नकदी देते थे। इस व्यवस्था को जजमानी कहते थे।
एक “छोटा गणराज्य”?
19वीं सदी के कुछ अंग्रेज़ अफ़सरों के अनुसार (छोटा गणराज्य) भारतीय गाँव के लोग सामूहिक स्तर पर भाईचारे के साथ संसाधनों और श्रम का बँटवारा करते थे।
- लेकिन संपत्ति के व्यक्तिगत मिल्कियत होती थी।
- जाति और जेंडर के नाम पर समाज में गहरी विषमताएँ थीं।
- कुछ ताकतवर लोगों को न्याय करने का अधिकार था।
- वह गाँव के मसलों पर फ़ैसले लेकर कमज़ोर वर्गों का शोषण करते थे।
- गाँवों और शहरों के बीच व्यापार की वजह से गाँवों में भी नगद के रिश्ते फैल चुके थे।
मुग़लों की केंद्रीय इलाकों में कर की गणना और वसूली; दस्तकारों की मज़दूरी या पूर्व भुगतान; कपास, रेशम या नील जैसे व्यापारिक फ़सलें पैदा करने वालों आदि को भुगतान नकद ही होता था।
कृषि समाज में महिलाएँ
मर्द खेत जोतते व हल चलाते थे और महिलाएँ बुआई, निराई और कटाई के साथ पकी फ़सलों का दाना निकलने का काम करती थीं।
- छोटी-छोटी ग्रामीण इकाइयों का और किसान की व्यक्तिगत खेती के विकास से लिंग बोध में फ़र्क करना मुमकिन नहीं था।
- फिर भी पश्चिमी भारत में, राजस्वला महिलाओं को हल या कुम्हार का चाक छूने की इजाज़त नहीं थी; बंगाल में अपने मासिक-धर्म के समय महिलाएँ पान के बागान में नहीं घुस सकती थीं।
➡ सूत कातने, बरतन बनाने के लिए मिट्टी को साफ़ करने तथा गूँधने, और कपड़ों पर कढ़ाई जैसे दस्तकारी के काम महिलाओं के श्रम पर निर्भर थे। किसान और दस्तकार महिलाएँ खेतों में काम करने के साथ नियोक्ताओं के घरों पर और बाज़ारों में भी जाते थे।
➡ समाज श्रम पर निर्भर होने के कारण महिलाओं को महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखा जाता था। किसान और दस्तकार समाज के ग्रामीण संप्रदायों में शादी के लिए दुल्हन की कीमत अदा की जाती थी न कि दहेज की। तलाकशुदा महिलाएँ और विधवाएँ कानूनन शादी कर सकती थीं।
- महिलाओं की प्रजनन शक्ति की अहमियत के कारण काबू खोने के डर से घर का मुखिया मर्द होता था।
- इस तरह महिला पर परिवार और समुदाय के मर्दों का काबू होता था।
- बेवफ़ाई के शक पर ही महिलाओं को भयानक दंड दिए जाते थे।
- राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र आदि पश्चिमी भारत के इलाकों से दस्तावेज़ों में महिलाओं द्वारा न्याय और मुआवज़े की उम्मीद से ग्राम पंचायत को भेजे गए दरख्वास्त मिले है।
- मर्दों की बेवफ़ाई हमेशा दंडित नहीं होती थी। लेकिन राज्य और ऊँची जाति के लोग ये सुनश्चित करते थे कि परिवार के भरण-पोषण का इंतज़ाम हो जाए।
- दस्तावेज़ों में दरख्वास्त देने वाली महिलाओं के नाम की गृहस्थी के मर्द/मुखिया की माँ, बहन या पत्नी के रूप में मिलता है।
➡ भूमिहर भद्रजनों में महिलाओं को पुश्तैनी संपत्ति का हक़ मिला हुआ था। उदाहरण: पंजाब में महिलाएँ पुश्तैनी संपत्ति के विक्रेता के रूप में ग्रामीण ज़मीन के बाज़ार में सक्रिय हिस्सेदारी रखती थीं।
- हिंदू, मुस्लिम महिलाएँ उत्तराधिकार में मिली ज़मींदारी को बेचने अथवा गिरवी रखने के लिए स्वतंत्र थीं।
- बंगाल में 18वीं सदी की सबसे बड़ी और मशहूर राजशाही की ज़मींदारी जिसकी कर्ता-धर्ता एक स्त्री थी।
जंगल और कबीले
बसे हुए गाँवों के परे
ग्रामीण भारत में जंगल या झाड़ियों वाले इलाके झारखंड सहित पूरे पूर्वी भारत, मध्य भारत, उत्तरी क्षेत्र, दक्षिणी भारत का पश्चिमी घाट और दक्कन के पठारों में फैले हुए थे। जंगलों के फैलाव का औसत करीब 40 फ़ीसदी था।
- जंगल में रहने वालों के लिए जंगली शब्द का मतलब था कि जंगल के उत्पादों, शिकार और स्थानांतरीय खेती से लोग अपना गुज़ारा करते थे।
- उदाहरण: भीलों में, बसंत के मौसम में जंगल के उत्पाद इकट्ठे किए जाते, गर्मियों में मछली पकड़ी जाती, मानसून के महीनों में खेती की जाती, और शरद के महीना में शिकार किया जाता था।
- एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहना इन जंगलों में रहने वाले कबीलों की एक खासियत थी।
जंगलों में घुसपैठ
राज्य को सेना के लिए हाथी जंगलवासियों से पेशकश के रूप में मिलती थी। दरबारी इतिहासकारों के अनुसार शिकार अभियान के नाम पर बादशाह अपने विशाल साम्राज्य के कोने-कोने का दौरा करके लोगों की समस्याओं और शिकायतों पर व्यक्तिगत रूप से गौर करता था। दरबारी कलाकारों के चित्रों में शिकार का विषय बार-बार आता है।
- वाणिज्यिक खेती का असर, जंगलवासियों की ज़िंदगी पर भी पड़ा। जंगल के उत्पाद जैसे शहद, मधुमोम और लाक की बहुत माँग थी।
- 17वीं सदी में लाख जैसी वस्तुएँ भारत से समुद्र पार निर्यात होती थी।
- हाथी पकड़े और बेचे जाते थे। व्यापार के तहत वस्तुओं की अदला-बदली भी होती थी।
- कुछ कबीले भारत और अफ़गानिस्तान के बीच होने वाले ज़मीनी व्यापार में लगे थे, जैसे पंजाब का लोहानी कबीला। वे पंजाब के गाँवों और शहरों के बीच होने वाले व्यापार में भी लगे थे।
- ग्रामीण समुदाय के बड़े आदमियों की तरह कबीलों के भी सरदार होते थे।
- कई सरदार ज़मींदार तो कुछ राजा बन गए।
- उन्होंने अपने ही खानदान के लोगों को सेना में भर्ती किया; या फिर अपने यह भाई-बंधुओं से सैन्य सेवा की माँग की।
- सिंध इलाके की कबिलाई सेनाओं में 6000 घुड़सवार और 7000 पैदल सिपाही होते थे।
- असम में, अहोम राजाओं के अपने पायक (ज़मीन के बदले सैनिक सेवा देने वाले) होते थे।
- अहोम राजाओं ने जंगली हाथी पकड़ने पर अपना एकाधिकार कर रखा था।
इतिहासकारों के अनुसार नए इलाकों की खेतिहर समुदायों द्वारा इस्लाम कबूल करने के पीछे सूफ़ी संतों की एक बड़ी भूमिका थी।
ज़मींदार
मुग़ल भारत में ज़मींदार की कमाई खेती से आने पर भी वे कृषि उत्पादन में सीधे हिस्सेदार नहीं थे। वे अपनी ज़मीन के मालिक और ग्रामीण समाज में ऊँची हैसियत रखने वाले थे। इसके पीछे दो कारण थे:—
- जाति
- राज्य को कुछ खास किस्म की सेवाएँ देना
➡ ज़मींदारों की समृद्धि की वजह थी उनकी विस्तृत व्यक्तिगत ज़मीन जिसे मिल्कियत (संपत्ति) कहते थे। इस ज़मीन पर ज़मींदार के निजी इस्तेमाल के लिए खेती दिहाड़ी के मज़दूर या पराधीन मज़दूर द्वारा होती थी।
- ज़मींदार अपनी मर्ज़ी से इन ज़मीनों को बेच, किसी और के नाम कर, या गिरवी रख सकते थे।
- वे राज्य की ओर से कर वसूलते थे जिसके बदले उन्हें वित्तीय मुआवज़ा मिलता था।
- ज़्यादातर ज़मींदारों के पास अपने किले और अपनी सैनिक टुकड़ियाँ (घुड़सवारों, तोपखाने और पैदल सिपाहियों के जत्थे) होती थी।
ज़मींदारी को पुख्ता होने से रोकने के लिए कई तरीके अपनाए जाते थे:—
- नयी ज़मीनों को बसाकर
- अधिकारों के हस्तांतरण के ज़रिए
- राज्य के आदेश से या फिर खरीद कर
इस कारण निचली जातियों के लोग भी ज़मींदारों के दर्जे में दाखिल हो सकते थे। राजपूतों और जाटों ने उत्तर भारत में ज़मीन पर अपना नियंत्रण पुख्ता किया। मध्य और दक्षिण-पश्चिम बंगाल में किसान-पशुचारियों (सदगोप) ने ताकतवर ज़मींदारियाँ खड़ी कीं।
➡ ज़मींदारों ने खेती लायक ज़मीनों को बसाने में और खेतिहरों को खेती के साजो-सामान व उधार देने देखकर बसने में मदद की।
- ज़मींदारी की खरीद फ़रोख्त से गाँवों के मौद्रिकरण की प्रक्रिया में तेज़ी आई।
- ज़मींदार शोषण करने वाला तबका था, लेकिन किसानों से उनके रिश्तों में पारस्परिकता, पैतृकवाद और संरक्षण का पुट था।
भू-राजस्व प्रणाली
भू-राजस्व के इंतज़ामात में दो चरण थे:—
- कर निर्धारण (जमा)
- वास्तविक वसूली (हासिल)
➡ अमील-गुज़ार (राजस्व वसूलने वाले) के कामों की सूची में अकबर ने हुक्म दिया के उसे खेतिहर नक़द भुगतान करे, और फ़सलों में भुगतान का विकल्प भी खुला रखे।
- राजस्व निर्धारित करते समय राज्य अपना हिस्सा ज़्यादा रखने की कोशिश करता था।
- मगर स्थानीय हालात की वजह से कभी-कभी इतनी वसूली कर पाना संभव नहीं होता था।
- हर प्रांत में जुती हुई ज़मीन और जोतने लायक ज़मीन की नपाई की गई।
- अकबर के बाद के बादशाहों ने भी ज़मीन की नपाई जारी रखें।
- 1665 ई. में, औरंगज़ेब ने अपने राजस्व कर्मचारियों को निर्देश दिया कि हर गाँव में खेतिहरों की संख्या का सालाना हिसाब रखा जाए।
- इसके बावजूद सभी इलाक़ों (जैसे जंगलों के हिस्से) की नपाई नहीं हुई।
चाँदी का बहाव
16वीं व 17वीं सदी में सत्ता और संसाधनों पर अपनी पकड़ मजबूत बनाने में ये साम्राज्य कामयाब रहे: मिंग (चीन में), सफ़ावी (ईरान में), ऑटोमन (तुर्की में) और मुग़ल (भारतीय उपमहाद्वीप में)।
- इन साम्राज्यों की राजनीतिक स्थिरता ने चीन से लेकर भूमध्य सागर तक ज़मीनी व्यापार का जाल बिछाने में मदद की।
- यूरोप के साथ एशिया के (भारत के) व्यापार में काफ़ी विस्तार हुआ।
- लगातार बढ़ते व्यापार के साथ, भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं का भुगतान करने के लिए एशिया में भारी मात्रा में चाँदी आई।
- 16वीं-18वीं सदी के बीच भारत में धातु मुद्रा (चाँदी के रुपए) की उपलब्धि में अच्छी स्थिरता बनी रही।
- अर्थव्यवस्था में मुद्रा संचार और सिक्कों की ढलाई में अभूतपूर्व विस्तार के साथ नकदी कर उगाहने में आसानी हुई।
अबुल फ़ज़्ल की आइन-ए-अकबरी
आइन-ए-अकबरी को 1598 ई. में 5 संशोधनों के बाद पूरा किया गया। अबुल फ़ज़्ल की अकबरनामा जिसे तीन जिल्दों में रचा गया।
- पहली दो जिल्दों में ऐतिहासिक दास्तान है।
- तीसरी जिल्द (आइन-ए-अकबरी) में दरबार, प्रशासन और सेना का संगठन; राजस्व के स्रोत और अकबरी साम्राज्य के प्रांतों का भूगोल; लोगों के साहित्यिक, सांस्कृतिक व धार्मिक रिवाज आदि की चर्चा की गई है।
➡ इसके अलावा इन सूबों के बारे में पेचीदे और आँकड़ेबद्ध सूचनाएँ बारीकी के साथ दिए गए हैं। आइन अकबर के शासन के दौरान मुग़ल साम्राज्य के बारे में सूचनाओं की खान है। पर इसमें क्षेत्रों के बारे में केंद्र का नज़रिया मिलता है।
आइन पाँच भागों (दफ्तर) का संकलन है जिसके पहले तीन भाग प्रशासन का विवरण देते हैं।
1. मंज़िल-आबादी : शाही घर-परिवार और उसके रख-रखाव के बारे में।
2. सिपह-आबादी : सैनिक व नागरिक प्रशासन और नौकरों की व्यवस्था के बारे में है। इसमें शाही अफ़सरों (मनसबदार), विद्वानों, कवियों और कलाकारों की संक्षिप्त जीवनियाँ शामिल हैं।
3. मुल्क-आबादी : यह साम्राज्य व प्रांतों के वित्तीय पहलुओं तथा राजस्व की दरों के आँकड़ों की विस्तृत जानकारी देने के बाद 12 प्रांतों का बयान देता है।
- इसमें सांख्यिकी सूचनाएँ तफ़सील से दी गई है, जिसमें सूबों और उनकी तमाम प्रशासनिक व वित्तीय इकाइयों (सरकार, परगना और महल) के भौगोलिक, स्थलाकृतिक और आर्थिक रेखाचित्र भी शामिल है।
- हर प्रांत और उसकी अलग-अलग इकाइयों की कुल मापी गई ज़मीन और निर्धारित राजस्व (जमा) भी दी गई हैं।
सूबों के नीचे की इकाई सरकारों के बारे में विस्तार से बताती है।
- परगनात/महल
- क़िला
- अराज़ी और जमीन-ए-पाईमूद (मापे गए इलाके)
- नकदी (नक़द निर्धारित राजस्व)
- सुयूरग़ल (दान में दिया गया राजस्व अनुदान)
- ज़मींदार
- ,8. ज़मींदारों की जातियाँ, उनके घुड़सवार, पैदल सिपाही व हाथी सहित उनके फ़ौज की जानकारी
4 और 5 किताबें : भारत के लोगों के मज़हबी, साहित्यिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों के बारे में है; इसके आखिर में अकबर के “शुभ वचनों” का एक संग्रह भी है।
➡ अबुल फ़ज़्ल ने मौखिक बयानों को तथ्य के रूप में किताब में शामिल करने से पहले, अन्य स्रोतों से उसकी असलियत और सच्चाई की पुष्टि करने की कोशिश की थी।
- सांख्यिकी वाले खंडों में सभी आँकड़ों को अंको के साथ शब्दों में भी लिखा गया ताकि बाद की प्रतियों में नकल की गलतियाँ कम से कम हों।
इतिहासकार आइन का अध्ययन करने के बाद कुछ समस्याओं के बारे में बताते है।
- जोड़ करने में कई ग़लतियाँ पाई गई है। पर यह आँकड़ों की सच्चाई को कम नहीं करती।
- इसके संख्यात्मक आँकड़ों में विषमताएँ हैं।
➡ कई सूबों के लिए ज़मींदारों की जाति के मुतलिक सूचनाएँ संकलित की गई है। पर बंगाल और उड़ीसा के लिए ऐसी सूचनाएँ मौजूद नहीं है।
- सूबों से लिए गए राजकोषीय आँकड़े बड़ी तफ़सील से हैं। पर उन्हीं इलाकों से कीमतों और मज़दूरी अच्छे से दर्ज़ नहीं है।
- कीमतों और मज़दूरी की दरों की विस्तृत सूची सिर्फ़ राजधानी आगरा या उसके इर्द-गिर्द के इलाकों से ली गई है।
- इन सीमाओं के बावजूद, आइन एक असामान्य व अनोखा दस्तावेज़ है।
मुग़ल साम्राज्य के इतिहास के मुख्य पड़ाव
- 1526 — दिल्ली के सुल्तान, इब्राहिम लोदी को पानीपत में हराकर बाबर पहला मुग़ल बादशाह बना।
- 1530-40 — हुमायूँ के शासन का पहला चरण
- 1540-55 — शेरशाह से हार कर हुमायूँ सफ़ावी दरबार में प्रवासी बनकर रहता है।
- 1555-56 — हुमायूँ खोए हुए राज्य को फिर से हासिल करता है।
- 1556-1605 — अकबर का शासन काल
- 1605-27 — जहाँगीर का शासन काल
- 1628-58 — शाहजहाँ का शासन काल
- 1658-1707 — औरंगज़ेब का शासन काल
- 1739 — नादिरशाह भारत पर आक्रमण करके दिल्ली को लूटता है।
- 1761 — अहमद शाह अब्दाली पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों को हराता है।
- 1765 — बंगाल के दीवानी अधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिए जाते हैं।
- 1857 — अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र को अंग्रेज़ गद्दी से हटा के देश निकाला देकर रंगून भेज देते हैं।
Class 12 History Chapter 8 Notes PDF Download In Hindi
भाग — 1
विषय एक : ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ (हड़प्पा सभ्यता)
विषय दो : राजा, किसान और नगर (आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
विषय तीन : बंधुत्व, जाति तथा वर्ग (आरंभिक समाज — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
विषय चार : विचारक, विश्वास और इमारतें (सांस्कृतिक विकास — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
भाग — 2
विषय पाँच : यात्रियों के नज़रिए (समाज के बारे में उनकी समझ — लगभग 10वीं से 17वीं सदी तक)
विषय छ: : भक्ति–सूफी परंपराएँ (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ — लगभग 8वीं से 18वीं सदी तक)
विषय सात : एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर (लगभग 14वीं से 16वीं सदी तक)
भाग — 3
विषय नौ : उपनिवेशवाद और देहात (सरकारी अभिलेखों का अध्ययन)
विषय दस : विद्रोही और राज (1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान)
विषय ग्यारह : महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन (सविनय अवज्ञा और उससे आगे)
विषय बारह : संविधान का निर्माण (एक नए युग की शुरुआत)
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