विषय चार : विचारक, विश्वास और इमारतें (सांस्कृतिक विकास — 600 ई.पू. से 600 ई. तक)
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Toggle600 ई.पू. से 600 ई. तक के विचारों और विश्वासों को जानने के लिए इतिहासकार बौद्ध, जैन और ब्राह्मण ग्रंथों के साथ इमारतों और अभिलेखों जैसे स्रोतों का भी इस्तेमाल करते हैं।
साँची की एक झलक
फ्रांसीसियों ने साँची के पूर्वी तोरणद्वार को फ्रांस के संग्रहालय में प्रदर्शित करने के लिए और अंग्रज़ों ने भी शाहजहाँ बेगम से इजाज़त माँगी। परंतु वे प्लास्टर प्रतिकृतियों से ही संतुष्ट हो गए। इस प्रकार मूल कृति भोपाल राज्य में अपनी जगह पर ही रही।
- भोपाल के शासकों, शाहजहाँ बेगम और उनकी उत्तराधिकारी सुल्तानजहाँ बेगम, ने इस स्थल के रख-रखाव के लिए धन का अनुदान दिया।
- सुल्तानजहाँ बेगम ने वहाँ एक संग्रहालय और अतिथिशाला बनाने के लिए योगदान दिया।
- जॉन मार्शल ने साँची पर लिखे महत्वपूर्ण ग्रंथों को सुल्तानजहाँ को समर्पित किया।
- उपर्युक्त पुस्तकों के विभिन्न खंडों के प्रकाशन में भी सुल्तानजहाँ बेगम ने अनुदान दिया।
- स्तूप पर किसी रेल ठेकेदार या निर्माता की नज़र न पड़ने पर यह बचा रहा।
पृष्ठभूमि : यज्ञ और विवाद
ईसा पूर्व प्रथम सहस्त्राब्दि के काल में अन्य चिंतकों का उदभव हुआ जैसे:—
- ईरान — जरथुस्त्र
- चीन — खुंगस्ती
- यूनान — सुकरात, प्लेटो और अरस्तु
- भारत — महावीर, बुद्ध और अन्य चिंतक
वे जीवन के रहस्यों और इंसानों तथा विश्व व्यवस्था के बीच रिश्ते को समझने की कोशिश कर रहे थे। इसी समय गंगा घाटी में नए राज्य तथा शहर उभरे। वे सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में हो रहे बदलावों को समझने की कोशिश कर रहे थे।
यज्ञों की परंपरा
- चिंतन, धार्मिक विश्वास और व्यवहार की कई धाराएँ प्राचीन युग से ही चली आ रही थीं।
- ऋग्वेद (1500-1000 ई.पू.) से पूर्व वैदिक परंपरा की जानकारी मिलती है, जो अग्नि, इंद्र, सोम आदि कई देवताओं की स्तुति का संग्रह है।
- यज्ञों के समय इन स्रोतों का उच्चारण किया जाता था और लोग मवेशी, बेटे, स्वास्थ्य, लंबी आयु आदि के लिए प्रार्थना करते थे।
- शुरू-शुरू में यज्ञ सामूहिक रूप से, फिर बाद में (लगभग 1000-500 ई.पू.) कुछ यज्ञ घरों के मालिकों द्वारा किए जाते थे।
- राजसूय और अश्वमेध जैसे जटिल यज्ञ सरदार और राजा किया करते थे। इनके अनुष्ठान के लिए उन्हें ब्राह्मण पुरोहितों पर निर्भर रहना पड़ता था।
नए प्रश्न
उपनिषदों (छठी सदी ई.पू.) में पाई गई विचारधाराओं से पता चलता है कि लोग जीवन का अर्थ, मृत्यु के बाद जीवन की संभावना और पुनर्जन्म के बारे में जानने के लिए उत्सुक थे।
वाद-विवाद और चर्चाएँ
बौद्ध ग्रंथों में 64 संप्रदायों या चिंतन परंपराओं का उल्लेख मिलता है। इससे हमें जीवंत चर्चाओं और विवादों की झाँकी मिलती है।
- शिक्षक एक जगह से दूसरी जगह घूम-घूम कर अपने दर्शन या विश्व के विषय में अपनी समझ को लेकर एक-दूसरे से तथा सामान्य लोगों से तर्क-वितर्क करते थे।
- ये चर्चाएँ कुटागारशलाओं या ऐसे उपवनों में होती थीं जहाँ घुमक्कड़ मनीषी ठहरा करते थे।
- महावीर और बुद्ध ने वेदों के प्रभुत्व पर सवाल उठाए, और माना है कि जीवन के दुखों से मुक्ति का प्रयास हर व्यक्ति स्वयं कर सकता था।
लौकिक सुखों से आगे : महावीर का संदेश
जैनों के मूल सिद्धांत (छठी सदी ई.पू. में) वर्धमान महावीर के जन्म से पहले ही उत्तर भारत में प्रचलित थे क्योंकि महावीर से पहले 23 तीर्थंकर (शिक्षक) हो चुके थे।
- जैन दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा यह है कि संपूर्ण विश्व प्राणवान (पत्थर, चट्टानों और जल में भी जीवन) है।
- इंसानों, जानवरों, पेड़-पौधों और कीड़े-मकोड़ों को न मारना जैन दर्शन का केंद्र बिंदु है। इस अहिंसा के सिद्धांत ने संपूर्ण भारतीय चिंतन परंपरा को प्रभावित किया है।
➡ जैन मान्यता के अनुसार कर्म के द्वारा निर्धारित जन्म और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति के लिए त्याग और तपस्या की ज़रूरत होती है। इसलिए मुक्ति के लिए विहारों में निवास करना एक अनिवार्य नियम बन गया।
जैन साधु और साध्वी 5 व्रत करते थे:—
- हत्या न करना
- चोरी नहीं करना
- झूठ न बोलना
- ब्रह्मचर्य
- धन संग्रह न करना
जैन धर्म का विस्तार
धीरे-धीरे जैन धर्म भारत के कई हिस्सों में फैल गया। जैन विद्वानों ने प्राकृत, संस्कृत, तमिल जैसी अनेक भाषाओं में काफ़ी साहित्य का सृजन किया।
- इन ग्रंथों की पांडुलिपियाँ मंदिरों से जुड़े पुस्तकालयों में संरक्षित हैं।
- जैन तीर्थंकरों के उपासकों द्वारा बनवाई गई मूर्तियाँ भारतीय उपमहाद्वीप के कई हिस्सों में पाई गई हैं।
बुद्ध और ज्ञान की खोज
सैकड़ों वर्षों के दौरान बुद्ध के संदेश पूरे उपमहाद्वीप में और उसके बाद मध्य एशिया, चीन, कोरिया, जापान, श्रीलंका, म्याँमार, थाइलैंड और इंडोनेशिया तक फैल गए।
- बौद्ध ग्रंथों का बहुत परिश्रम से संपादन, अनुवाद और विश्लेषण के कारण हम बुद्ध की शिक्षाओं को जानते हैं।
- इतिहासकारों ने उनके जीवन के बारे में चरित्र लेखन से जानकारी इकट्ठी की। इनमें से कई ग्रंथ बुद्ध के जीवन काल से लगभग 100 वर्षों के बाद लिखे गए।
➡ सिद्धार्थ (बुद्ध) शाक्य कबीले के सरदार के बेटे थे। उन्हें महल में सब सुखों के बीच बड़ा किया गया था। एक दिन वह रथाकार को मनाकर शहर घूमने निकले। जहाँ उन्हें एक वृद्ध, एक बीमार और एक लाश को देखकर गहरा सदमा पहुँचा। उन्हें अनुभूति हुई कि मनुष्य के शरीर का क्षय और अंत निश्चित है।
- फिर एक संन्यासी को देखा जिसे बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु से कोई परेशानी नहीं थी। सिद्धार्थ, संन्यास का रास्ता अपनाकर महल त्याग कर सत्य की खोज में निकल गए।
- साधना के कई मार्गों का अन्वेषण कर अंत में एक दिन ध्यान करते हुए ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके बाद से उन्हें बुद्ध के नाम से जाना जाने लगा। बाकी जीवन उन्होंने धर्म या सम्यक जीवनयापन की शिक्षा दी।
बुद्ध की शिक्षाएँ
बुद्ध की शिक्षाओं को सुत्त पिटक में दी गई कहानियों के आधार पर पुनर्निर्मित किया गया है। कुछ कहानियाँ अलौकिक शक्तियों का वर्णन और कुछ कहानियाँ विवेक और तर्क के आधार पर समझाने का प्रयास करती है।
- बौद्ध दर्शन के अनुसार विश्व अनित्य और लगातार बदल रहा है।
- यह आत्माविहीन है क्योंकि यहाँ कुछ भी स्थायी या शाश्वत नहीं है।
- इस क्षणभंगुर दुनिया में दुख मनुष्य के जीवन का अंतर्निहित तत्व है।
- घोर तपस्या और विषयासक्ति (लोगों के प्रति लगाव) के बीच मध्यम मार्ग अपनाकर मनुष्य दुनिया के दुखों से मुक्ति पा सकता है।
- बौद्ध धर्म की प्रारंभिक परंपराओं में भगवान का होना या न होना अप्रासंगिक था।
- बुद्ध मानते थे कि समाज का निर्माण इंसानों ने किया था न कि ईश्वर ने।
- इसलिए उन्होंने राजाओं और गृहपतियों को दयावान और आचारवान होने की सलाह दी।
- जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति, आत्म-ज्ञान और निर्वाण व्यक्ति के हस्तक्षेप और सम्यक कर्म से संभव है।
- निर्वाण का मतलब था अहं और इच्छा का खत्म हो जाना जिससे गृहत्याग करने वालों के दुख के चक्र का अंत हो सकता था।
बुद्ध के अनुयायी
बुद्ध के शिष्यों के लिए संघ की स्थापना की गई। ये श्रमण एक सादा जीवन बिताते थे जिनके पास जीवनयापन के लिए अत्यावश्यक चीज़ों के अलावा कुछ नहीं होता था। जैसे: भोजन दान पाने के लिए एक कटोरा।
- शुरू में सिर्फ़ पुरुष ही संघ में सम्मिलित हो सकते थे, बाद में महिलाओं को भी अनुमति मिली। बुद्ध की उपमाता महाप्रजापति गोतमी संघ में आने वाली पहली भिक्खुनी बनीं।
- कई स्त्रियाँ धम्म की उपदेशिकाएँ बन गईं। आगे चलकर वे थेरी (निर्वाण प्राप्त कर लिया हो) बनी।
- बुद्ध के अनुयायी में राजा, धनवान, गृहपति और सामान्य जन कर्मकार, दास, शिल्पी, सभी शामिल थे। संघ में आने पर सभी को बराबर माना जाता था।
- संघ की संचालन पद्धति गणों और संघों की परंपरा पर आधारित थी। इसके तहत लोग बातचीत के माध्यम से एकमत होने की कोशिश करते थे। यदि इस तरह एकमत न हो तो मतदान द्वारा निर्णय लिया जाता था।
➡ उस युग में लोग समकालीन धार्मिक प्रथाओं से असंतुष्ट थे और तेज़ी से हो रहे सामाजिक बदलावों के कारण बुद्ध के जीवन काल में और उनकी मृत्यु के बाद भी बौद्ध धर्म तेज़ी से फैला।
- बौद्ध शिक्षाओं ने जन्म के आधार पर श्रेष्ठता की बजाय अच्छे आचरण तथा मूल्यों को और खुद से छोटे तथा कमज़ोर लोगों की तरफ़ मित्रता तथा करुणा के भाव को महत्व दिया।
बौद्ध ग्रंथ का संरक्षण
बुद्ध चर्चा और बातचीत करते हुए मौखिक शिक्षा देते थे। जिसे महिलाएँ और पुरुष (शायद बच्चे भी) सुनते थे। बुद्ध की मृत्यु के बाद (पाँचवीं-चौथी सदी ई.पू.) उनके शिष्यों ने ज्येष्ठों (ज़्यादा वरिष्ठ श्रमणों) की एक सभा वेसली (बिहार-वैशाली) में बुलाकर उनकी शिक्षाओं का संकलन किया।
इन संग्रहों को त्रिपिटक (तीन टोकरियाँ) कहा जाता है।
- विनय पिटक : संघ या बौद्ध मठों में रहने वाले लोगों के लिए नियमों का संग्रह।
- सुत्त पिटक : बुद्ध की शिक्षाएँ
- अभिधम्म पिटक : दर्शन से जुड़े विषय
हर पिटक के अंदर कई ग्रंथों पर टीकाएँ बाद के युगों में बौद्ध विद्वानों द्वारा लिखा गया।
➡ बौद्ध धर्म के श्रीलंका में फैलने पर दीपवंश (द्वीप का इतिहास) और महावंश (महान इतिहास) लिखा गया। इनमें से कई रचनाओं में बुद्ध की जीवनी लिखी गई है। पुराने ग्रंथ पालि और बाद के युगों के ग्रंथ संस्कृत में लिखे गए थे।
- बौद्ध धर्म के पूर्व एशिया में फैलने पर फा-शिएन और श्वैन त्सांग जैसे तीर्थयात्री बौद्ध ग्रंथों की खोज में चीन से भारत आए।
- हिंदुस्तान से बौद्ध शिक्षक भी बुद्ध की शिक्षाओं को प्रसार करने के लिए कई पुस्तकें अपने साथ ले गए।
- पालि, संस्कृत, चीनी और तिब्बती भाषाओं में लिखें ग्रंथों से आधुनिक अनुवाद तैयार किए गए हैं।
स्तूप
प्राचीन काल से ही खास वनस्पति स्थान, अनूठी चट्टानें या विस्मयकारी प्राकृतिक सौंदर्य आदि स्थलों को पवित्र माना जाता था। ऐसे कुछ स्थलों पर एक छोटी-सी वेदी (चैत्य) भी बनी रहती थीं।
बौद्ध साहित्य में कई चैत्यों की चर्चा है इसमें बुद्ध के जीवन से जुड़ी जगहों का भी वर्णन है:—
- लुम्बिनी — जन्म स्थल
- बोधगया — ज्ञान की प्राप्ति
- सारनाथ — प्रथम उपदेश दिया
- कुशीनगर — निब्बान प्राप्त हुआ
धीरे-धीरे ये सारी जगहें पवित्र बन गईं। अशोक ने लुम्बिनी की अपनी यात्रा की याद में एक स्तंभ बनवाया था।
महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल
- लुम्बिनी (नेपाल के कपिलवस्तु में)
- श्रावस्ती (उत्तर प्रदेश के उत्तर-पूर्वी भाग में राप्ती नदी के किनारे)
- कुशीनगर (उत्तर प्रदेश)
- सारनाथ (उत्तर प्रदेश)
- बराबर (बिहार)
- बोधगया (बिहार)
- भरहुत (मध्य प्रदेश में सतना जिले में स्थित एक गाँव)
- साँची (मध्य प्रदेश के रायसेन ज़िले में स्थित एक छोटा नगर)
- अजंता (महाराष्ट्र)
- नासिक (महाराष्ट्र)
- जुन्नार (महाराष्ट्र के पुणे ज़िले में स्थित एक नगर)
- कार्ले (महाराष्ट्र के पुणे जिले में)
- अमरावती (महाराष्ट्र)
- नागार्जुनकोंडा (आंध्र प्रदेश के गुंटूर ज़िले में नागार्जुन सागर के पास)
स्तूपों का निर्माण क्यों किया जाता था?
पवित्र जगहों पर बुद्ध से जुड़े कुछ अवशेष (उनकी अस्थियाँ या उनके द्वारा प्रयुक्त सामान) गाड़ दिए जाते थे। इन टीलों को स्तूप कहते थे।
- स्तूप बनाने की परंपरा बुद्ध से पहले की रही होगी, लेकिन वह बौद्ध धर्म से जुड़ गई।
- अशोकावदान बौद्ध ग्रंथ के अनुसार अशोक ने बुद्ध के अवशेषों के हिस्से हर महत्वपूर्ण शहर में बाँटकर उनके ऊपर स्तूप बनाने का आदेश दिया।
- दूसरी सदी ई.पू. तक भरहुत, साँची और सारनाथ जैसी जगहों पर स्तूप बनाए जा चुके थे।
स्तूपों का निर्माण कैसे हुआ?
- स्तूपों की वेदिकाओं और स्तंभों पर मिले अभिलेखों से इन्हें बनाने और सजाने के लिए दिए गए दान का पता चलता है।
- कुछ दान राजाओं के द्वारा (जैसे सातवाहन वंश के राजा), तो कुछ दान शिल्पकारों तथा व्यापारियों की श्रेणियों और भिक्खुओं तथा भिक्खुनियों द्वारा दिए गए थे।
- उदाहरण: साँची के एक तोरणद्वार का हिस्सा हाथी दाँत का काम करने वाले शिल्पकारों के दान से बनाया गया था।
स्तूप की संरचना
- स्तूप (टीला) एक गोलार्ध मिट्टी का टीला, जिसे बाद में अंड कहा गया।
- अंड के ऊपर एक हर्मिका, यह छज्जे जैसा ढाँचा देवताओं के घर का प्रतीक था।
- हार्मिका से एक मस्तूल निकलता था जिसे यष्टि कहते थे जिस पर एक छत्री लगी होती थी।
- टीले के चारों ओर एक वेदिका, जो पवित्र स्थल को सामान्य दुनिया से अलग करती थी।
- साँची और भरहुत के प्रारंभिक स्तूप बिना अलंकरण के है, जिसमें सिर्फ़ पत्थर की वेदिकाएँ और तोरणद्वार हैं।
- ये पत्थर की वेदिकाएँ किसी बाँस के या काठ के घेरे के समान थीं और चारों दिशाओं में खड़े तोरणद्वार पर खूब नक्काशी की गई थी।
- बाद में स्तूप के टीले पर भी अलंकरण और नक्काशी की जाने लगी।
अमरावती और पेशावर में शाह जी की ढेरी में स्तूपों में ताख और मूर्तियाँ उत्कीर्ण करने की कला के उदाहरण मिलते हैं।
स्तूपों की खोज : अमरावती और साँची की नियति
1796 में एक स्थानीय राजा जो मंदिर बनाना चाहते थे, उन्हें अमरावती के स्तूप के अवशेष मिल गए। उन्हें इस छोटी सी पहाड़ी में खजाने की संभावना लगी। कुछ वर्षों बाद कॉलिन मैकेंज़ी को यहाँ कई मूर्तियाँ मिली। जिसका चित्रांकन भी किया, पर रिपोर्टें कभी नहीं छपी।
1854 में गुंटूर (आंध्र प्रदेश) के कमिश्नर अमरावती से कई मूर्तियाँ और उत्कीर्ण पत्थर जमा कर मद्रास ले गए। वे पश्चिमी तोरणद्वार को खोज कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अमरावती का स्तूप बोद्धों का सबसे विशाल और शानदार स्तूप था।
➡ 1850 के दशक में अमरावती के उत्कीर्ण कुछ पत्थर कलकत्ता में एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल, तो कुछ मद्रास में इंडिया ऑफिस और कुछ लंदन तक पहुँच गए।
- वस्तुत: इस इलाके का हर नया अधिकारी पहले के अधिकारियों की तरह कुछ मूर्तियाँ उठा ले जाता था।
- पुरातत्ववेत्ता एच.एच. कोल का मानना था कि संग्रहालयों में असली कृतियों की जगह प्लास्टर प्रतिकृतियाँ ही रखी जानी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से अमरावती का महाचैत्य अब सिर्फ एक छोटा सा टीला रह गया।
साँची का स्तूप कई कारणों से बच गया और आज भी बचा हुआ है:
- शायद अमरावती की खोज थोड़ी पहले हो गई थी तब विद्वानों इस पुरातात्विक अवशेष को संरक्षित करने के महत्व को समझ नहीं पाए थे।
- 1818 में साँची की खोज के समय इसके तीन तोरणद्वार खड़े थे, चौथा वहीं गिरा हुआ था और टीला भी अच्छी हालत में था। तब तोरणद्वार पेरिस या लंदन जाने से बच गए।
मूर्तिकला
लोगों को स्तूपों की मूर्तियाँ खूबसूरत और मूल्यवान लगीं। इसलिए वे उन्हें अपने साथ ले गए।
पत्थर में गढ़ी कथाएँ
- कला इतिहासकार ने अध्ययन के बाद साँची की इस मूर्तिकला को वेसान्तर जातक से लिया गया एक दृश्य बताया है।
- इसमें एक दानी राजकुमार के बारे में है जिसने अपना सब कुछ एक ब्राह्मण को सौंप कर स्वयं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ जंगल में रहने चला गया।
उपासना के प्रतीक
- बौद्धचरित लेखन के अनुसार एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति हुई।
- कई प्रांभिक मूर्तिकारों ने बुद्ध को मानव रूप में न दिखाकर उनकी उपस्थिति प्रतिकों के माध्यम से दर्शाया।
- रिक्त स्थान बुद्ध के ध्यान की दशा तथा स्तूप महापरिनिब्बान के प्रतीक बन गए।
- बुद्ध द्वारा सारनाथ में दिए पहले उपदेश का प्रतीक चक्र था।
लोक परंपराएँ
साँची में उत्कीर्ण एक स्त्री मूर्ति को संस्कृत भाषा में वर्णित शालभंजिका की मूर्ति माना है। इसके सिर्फ छूने से वृक्षों में फूल और फल होने लगते थे।
- बौद्ध धर्म में आने वाले लोगों ने बुद्ध-पूर्व और बौद्ध धर्म से इतर दूसरे विश्वासों, प्रथाओं और धारणाओं से बौद्ध धर्म को समृद्ध किया।
- जानवरों जैसे हाथी, घोड़े, बंदर और गाय-बैल के ख़ूबसूरत उत्कीर्णन पाए गए है।
- साँची में जातकों से ली गई जानवरों की कई कहानियाँ है।
- हाथी शक्ति और ज्ञान के प्रतीक माने जाते थे।
- इन प्रतीकों में कमल दल और हाथियों के बीच एक महिला के ऊपर जल छिड़क रहे हैं। इतिहासकार उन्हें बुद्ध की माँ माया से जोड़ते हैं तो दूसरे इतिहासकार लोकप्रिय देवी गजलक्ष्मी (सौभाग्य लाने वाली देवी) मानते हैं।
- स्तंभों पर सर्पों को देखकर इतिहासकार जेम्स फर्गुसन ने बौद्ध साहित्य से अनभिज्ञ साँची को वृक्ष और सर्प पूजा का केंद्र माना था।
नयी धार्मिक परंपराएँ
महायान बौद्ध मत का विकास
प्रारंभिक बौद्ध मत में निब्बान के लिए व्यक्तिगत प्रयास को विशेष महत्व दिया गया था। परंतु धीरे-धीरे एक मुक्तिदाता की कल्पना से बोधिसत्त की अवधारणा उभरने लगी।
- बोधिसत्तों को परम करूणामय जीव माना गया जो अपने सत्यार्थों से पुण्य कमाते और दूसरों की सहायता करते थे।
- बुद्ध और बोधिसत्तों की मूर्तियों की पूजा इस परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग बन गई। इस नयी परंपरा को महायान और पुरानी परंपरा को हीनयान के नाम से जाना गया।
पौराणिक हिंदू धर्म का उदय
वैष्णव और शिव परंपराओं के अंतर्गत एक विशेष देवता की पूजा को महत्व और आराधना में उपासना तथा ईश्वर के बीच प्रेम तथा समर्पण का रिश्ता माना जाता था इसे भक्ति कहते हैं।
- वैष्णववाद में 10 अवतारों की कल्पना है। माना जाता है कि पापियों के बढ़ते प्रभाव के चलते दुनिया में अव्यवस्था और नाश की स्थिति पर विश्व की रक्षा के लिए भगवान अलग-अलग रूपों में अवतार लेकर लेते थे।
- अलग-अलग अवतार देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में लोकप्रिय थे।
- कई अवतारों को मूर्तियों के रूप में दिखाया गया है।
- शिव को उनके प्रतीक लिंग और कई बार मनुष्य के रूप में भी दिखाया गया है।
- देवताओं की खूबियों और प्रतिकों को उनके शिरोवस्त्र, आभूषण, आयुधों और बैठने की शैली से इंकित किया जाता था।
- इन मूर्तियों को समझने के लिए इतिहासकारों को इनसे जुड़ी कहानियों से परिचित होना पड़ता है।
- कई कहानियाँ प्रथम सहस्राब्दि के मध्य से ब्राह्मणों द्वारा रचित पुराणों में पाई जाती हैं।
- पुजारी, व्यापारी और सामान्य स्त्री-पुरुष के एक से दूसरी जगह आते-जाते हुए विश्वासों और अवधारणाओं के आदान-प्रदान के साथ ज़्यादातर कहानियाँ विकसित हुईं।
- उदाहरण: वासुदेव-कृष्ण मथुरा के महत्वपूर्ण देवता थे जिनकी पूजा देश के दूसरे इलाकों में भी फैल गई।
मंदिरों का बनाया जाना
देवी-देवताओं की मूर्तियाँ रखने के लिए शुरू में एक चौकोर कमरे (गर्भगृह) के रूप में मंदिर बनाया गया।इसमें एक दरवाज़ा था, जिससे उपासक मूर्ति की पूजा करने के लिए अंदर जा सकता था।
- धीरे-धीरे गर्भगृह के ऊपर एक ऊँचा ढाँचा बनाया जाने लगा जिसे शिखर कहा गया।
- मंदिर की दीवारों पर भित्ति चित्र उत्कीर्ण किए जाते थे।
- बाद के युगों में मंदिरों के साथ विशाल सभास्थल, ऊँची दीवारें और तोरण भी जुड़ गए। जल आपूर्ति का इंतज़ाम भी किया जाने लगा।
➡ शुरू के मंदिरों को पहाड़ियों को काटकर कृत्रिम गुफाएँ बनाई गई। सबसे प्राचीन कृत्रिम गुफाएँ ईसा पूर्व तीसरी सदी में अशोक के आदेश से आजीविक संप्रदाय के संतों के लिए बनाई गई थीं।
- आठवीं सदी का कैलाशनाथ (शिव) मंदिर, जिसे पूरी पहाड़ी काटकर मंदिर का रूप दिया गया था।
क्या हम सब कुछ देख-समझ सकते हैं?
बचे हुए और संरक्षित उन भव्य कलाकृतियों से हम उनके निर्माताओं-कलाकारों, मूर्तिकारों, राजगीरों और वास्तुकारों की दृष्टि से परिचत हो पाते है।
अनजाने को समझने की कोशिश
- 19वीं सदी में यूरोप के विद्वान देवी-देवताओं की मूर्तियों की पृष्ठभूमि और महत्व को नहीं समझ पाए। इसकी तुलना उन्होंने अपने परिचित प्राचीन यूनान कला की परंपरा से करने की कोशिश की।
- बुद्ध और बोधिसत्त की मूर्तियाँ ज़्यादातर तक्षशिला और पेशावर जैसे उत्तर-पश्चिम नगरों में मिलने के कारण यूनानी मूर्तियों से काफ़ी मिलती-जुलती थी इसलिए इन्हें भारतीय मूर्तिकला का सर्वश्रेष्ठ नमूना माना।
यदि लिखित और दृश्य का मेल न हो
मूर्ति का महत्व और संदर्भ समझने के लिए कला के इतिहासकार अक्सर लिखित ग्रंथों से जानकारी इकट्ठा करते हैं। उदाहरण: महाबलीपुरम (तमिलनाडु) में एक विशाल चट्टान पर उत्कीर्ण मूर्तियाँ।
- कला इतिहासकारों ने पुराणों के साहित्य में इस कथा की खोजबीन में काफी मतभेद पाया है।
- कुछ का मानना है कि इसमें गंगा नदी के स्वर्ग के अवतरण का चित्रण है।
- दूसरे विद्वान मानते हैं कि यहाँ पर दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए महाभारत में दी गई अर्जुन की तपस्या को दिखाया गया है।
महत्वपूर्ण धार्मिक बदलाव
- लगभग 1500-1000 ई.पू. — प्रारंभिक वैदिक परंपराएँ
- लगभग 1000-500 ई.पू. — उत्तर वैदिक परंपराएँ
- लगभग छठी सदी ई.पू. — प्रारंभिक उपनिषद, जैन धर्म, बौद्ध धर्म
- लगभग तीसरी सदी ई.पू. — आरंभिक स्तूप
- लगभग दूसरी सदी ई.पू. से आगे — महायान बौद्ध मत का विकास, वैष्णववाद, शैववाद और देवी पूजन परंपराएँ
- लगभग तीसरी सदी ई. — सबसे पुराने मंदिर
प्राचीन इमारतों और मूर्तियों की खोज और संरक्षण के महत्वपूर्ण चरण
1814 — इंडियन म्यूज़ियम, कलकत्ता की स्थापना
1834 — रामराजा लिखित एसेज़ ऑन द आर्किटैक्चर ऑफ़ द हिंदूज़ का प्रकाशन; कनिंघम ने सारनाथ के स्तूप की छानबीन की
1835-1842 — जेम्स फर्गुसन ने महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थलों का सर्वेक्षण किया
1851 — गवर्नमेंट म्यूज़ियम, मद्रास की स्थापना
1854 — अलेक्जैंडर कनिंघम ने भिलसा टोप्स लिखी जो साँची पर लिखी गई सबसे प्रारंभिक पुस्तकों में से एक है
1878 — राजेंद्र लाल मित्र की पुस्तक, बुद्ध गया : द हेरिटेज़ ऑफ़ शाक्य मुनि का प्रकाशन
1880 — एच.एच. कोल को प्राचीन इमारतों का संग्रहाध्यक्ष बनाया गया
1888 — ट्रेज़र-ट्रोव एक्ट का बनाया जाना। इसके अनुसार सरकार पुरातात्विक महत्व की किसी भी चीज़ को हस्तगत कर सकती थी।
1914 — जॉन मार्शल और अल्फ्रेड फूसे की द मॉन्यूमेंट्स ऑफ़ साँची पुस्तक का प्रकाशन
1923 — जॉन मार्शल की पुस्तक कंजर्वेशन मैनुअल का प्रकाशन
1955 — प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली की नींव रखी
1989 — साँची को एक विश्व कला दाय स्थान घोषित किया गया
Class 12 History Chapter 4 Notes PDF Download In Hindi
भाग — 1
विषय एक : ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ (हड़प्पा सभ्यता)
विषय दो : राजा, किसान और नगर (आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
विषय तीन : बंधुत्व, जाति तथा वर्ग (आरंभिक समाज — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
भाग — 2
विषय पाँच : यात्रियों के नज़रिए (समाज के बारे में उनकी समझ — लगभग 10वीं से 17वीं सदी तक)
विषय छ: : भक्ति–सूफी परंपराएँ (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ — लगभग 8वीं से 18वीं सदी तक)
विषय सात : एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर (लगभग 14वीं से 16वीं सदी तक)
विषय आठ : किसान, ज़मींदार और राज्य (कृषि समाज और मुगल साम्राज्य — लगभग 16वीं और 17वीं सदी)
भाग — 3
विषय नौ : उपनिवेशवाद और देहात (सरकारी अभिलेखों का अध्ययन)
विषय दस : विद्रोही और राज (1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान)
विषय ग्यारह : महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन (सविनय अवज्ञा और उससे आगे)
विषय बारह : संविधान का निर्माण (एक नए युग की शुरुआत)
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