Class 12 History Chapter 3 Notes In Hindi

विषय तीन : बंधुत्व, जाति तथा वर्ग (आरंभिक समाज — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)

महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण

1919 में संस्कृत विद्वान वी.एस. सुकथांकर के नेतृत्व में अनेक विद्वानों ने मिलकर महाभारत का समलोचनात्मक संस्करण तैयार किया:—

  • देश के विभिन्न भागों से विभिन्न लिपियों में लिखी गई महाभारत की संस्कृत पांडुलिपियों को इकट्ठा किया गया।
  • सभी पांडुलिपियों में पाए जाने वाले श्लोकों की तुलना की गई।
  • फिर सभी पांडुलिपियों में समान श्लोकों का चयन कर 13,000 पृष्ठों में (अनेक ग्रंथ खंडों में) प्रकाशन किया गया।
इस प्रक्रिया से दो विशेष बातें उभर कर आई:—
  • संस्कृत के कई पाठों के अनेक अंशों में समानता थी।
  • कुछ शताब्दियों के दौरान हुए महाभारत के प्रेषण में अनेक क्षेत्रीय प्रभेद उभर कर सामने आए।

बंधुता एवं विवाह (अनेक नियम और व्यवहार की विभिन्नता)

परिवारों के बारे में जानकारी

  • कई बार एक ही परिवार के लोग भोजन और अन्य संसाधनों का आपस में मिल बाँटकर प्रयोग करते, एक साथ रहते, काम करते हैं और अनुष्ठानों को साथ ही संपादित करते हैं।
  • परिवार एक बड़े समूह का हिस्सा होते हैं जिन्हें हम संबंधी (जाति समूह) कहते हैं।
  • पारिवारिक रिश्ते नैसर्गिक और रक्त संबद्ध माने जाते हैं। कुछ समाजों में भाई-बहन (चचेरे, मौसेरे आदि) से खून का रिश्ता माना जाता है किंतु अन्य समाज में नहीं।
  • आरंभिक समाजों के संदर्भ में इतिहासकारों को विशिष्ट परिवारों के बारे में जानकारी आसानी से मिल जाती है किंतु सामान्य लोगों के बारे में नहीं।

इनका अध्ययन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे लोगों की सोच का पता चलता है। संभवत: विचारों ने लोगों के क्रियाकलापों को और व्यवहार ने विचारों पर भी असर डाला होगा।

पितृवंशिक व्यवस्था के आदर्श

महाभारत, बांधवों के दो दलों कौरव और पांडव के बीच भूमि और सत्ता को लेकर संघर्ष को दर्शाता है। दोनों ही दल कुरू वंश से संबंधित, जिनका एक जनपद पर शासन था। संघर्ष युद्ध में बदल गया जिसमें पांडव विजयी हुए। इसके बाद पितृवंशिक उत्तराधिकार को उदघोषित किया गया।

  • पितृवंशिकता महाकाव्य की रचना से पहले भी मौजूद थी, पर महाभारत की मुख्य कथावस्तु ने इस आदर्श को और सुदृढ़ किया।
  • लगभग छठी सदी ई.पू. से अधिकतर राजवंश पितृवंशिकता प्रणाली का अनुसरण करते थे।
  • लेकिन कभी पुत्र के न होने पर एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी हो जाता था तो कभी बंधु-बांधव सिंहासन पर अपना अधिकार जमाते थे। कुछ परिस्थितियों में स्त्रियाँ जैसे प्रभावती गुप्त सत्ता का उपभोग करती थीं।

विवाह के नियम

पुत्रियों का पैतृक संसाधनों पर कोई अधिकार नहीं था। अपने गोत्र से बाहर उनका विवाह करना अपेक्षित था। कन्यादान (विवाह में कन्या की भेंट) को पिता का धार्मिक कर्तव्य माना गया।

विवाह के प्रकार
  • अंतर्विवाह 一 वैवाहिक संबंध समूह के मध्य ही होते हैं। यह समूह एक गोत्र कुल अथवा एक जाति या फिर एक ही स्थान पर बसने वालों का हो सकता है।
  • बहिर्विवाह 一 गोत्र से बाहर विवाह करने को कहते हैं।
  • बहुपत्नी प्रथा 一 एक पुरुष की अनेक पत्नियाँ होने की पद्धति
  • बहुपति प्रथा 一 एक स्त्री के अनेक पति होने की पद्धति

➡ नए नगरों के उदय से सामाजिक जीवन अधिक जटिल हो गया। निकट और दूर से आकर वस्तुओं का खरीद-फ़रोख्त करने के साथ उनके विचारों का भी आदान-प्रदान होता था। इस कारण आरंभिक विश्वासों और व्यवहारों पर सवाल उठाने गए।

  • जवाब में ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताएँ तैयार कीं। ब्राह्मणों को इनका विशेष पालन करना होता था किंतु बाकी समाज को भी इसका अनुसरण करना पड़ता था।
  • लगभग 500 ई.पू. से इनका संकलन धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र नामक संस्कृत ग्रंथों में किया गया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण मनुस्मृति (200 ई.पू. से 200 ई. के बीच) थी।
  • इन ग्रंथों के ब्राह्मण लेखकों का मानना था कि उनका दृष्टिकोण सार्वभौमिक है और उनके बनाए नियमों का सबके द्वारा पालन होना चाहिए।

किंतु उपमहाद्वीप में फैली क्षेत्रीय विभिन्नता और संचार की बाधाओं की वजह से ब्राह्मणों का प्रभाव सार्वभौमिक नहीं था। धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र विवाह के आठ प्रकारों को स्वीकृति देते हैं। पहले चार “उत्तम” माने गए और बाकियों को “निंदित” माना गया।

स्त्री का गोत्र

लगभग 1000 ई.पू. के बाद ब्राह्मणों को गोत्रों (प्रत्येक गोत्र एक वैदिक ऋषि के नाम पर) में वर्गीकृत करने की पद्धति आई। गोत्र के सदस्य ऋषि के वंशज माने जाते थे।

गोत्रों के दो नियम महत्वपूर्ण थे:—
  1. विवाह के पश्चात स्त्रियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र का माना जाना।
  2. एक ही गोत्र के सदस्य आपस में विवाह संबंध नहीं रख सकते।

➡ लगभग दूसरी सदी ई.पू. से दूसरी सदी ई. तक सातवाहन राजाओं का पश्चिमी भारत और दक्कन के कुछ भागों पर शासन था। इनके अभिलेखों से पता चलता है कि कुछ सातवाहन राजा बहुपत्नी प्रथा को मानने वाले थे।

  • उनकी रानियों के नाम गौतम तथा वसिष्ठ गोत्रों से थे, जो उनके पिता के गोत्र थे।
  • इससे प्रतीत होता है कि विवाह के बाद भी अपने पति के गोत्र को ग्रहण न करके उन्होंने पिता गोत्र को ही कायम रखा।
  • कुछ रानियाँ एक ही गोत्र से थीं। यह अंतर्विवाह पद्धति को दर्शाता है जिसका प्रचलन दक्षिण भारत के कई समुदायों में है।
  • बांधवों (ममेरे, चचेरे आदि भाई-बहन) के साथ जोड़े गए विवाह संबंधों की वजह से एक सुगठित समुदाय उभर पाता था।

क्या माताएँ महत्वपूर्ण थीं?

सातवाहन राजाओं को उनके मातृनाम से चिह्नित होने से प्रतीत होता है कि माताएँ महत्वपूर्ण थीं किंतु सातवाहन राजाओं के संदर्भ में सिंहासन का उत्तराधिकार पितृवंशिक होता था।

उपनिषद में मातृनाम

बृहदारण्यक उपनिषद में आचार्यों और शिष्यों की उत्तरोत्तर पीढ़ियों की सूची में से कई लोगों को उनके मातृनामों से निर्दिष्ट किया गया था।

सामाजिक विषमताएँ (वर्ण व्यवस्था के दायरे में और उससे परे)

धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों में उल्लेखित आदर्श व्यवस्था में ब्राह्मणों ने स्वयं को पहले दर्जें और शूद्रों तथा अस्पृश्यों को सबसे निचले स्तर पर रखा था। यह दर्ज़ा जन्म के अनुसार निर्धारित माना जाता था।

➡ अपनी मान्यता को प्रमाणित करने के लिए ब्राह्मण ऋग्वेद के पुरुषसूक्त मंत्र को उद्धत करते थे जो आदि मानव पुरुष बलि का चित्रण करता है।

  • ब्राह्मण  —  मुँह
  • क्षत्रिय  —  भुजाएँ
  • वैश्य  —  जंघा
  • शूद्र  —  पैर

उचित जीविका

धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों में चारों वर्गों के लिए आदर्श जीविका से जुड़े कई नियम मिलते हैं।

  • ब्राह्मण — अध्ययन, वेदों की शिक्षा, यज्ञ करना और करवाना, दान देना और लेना।
  • क्षत्रिय — युद्ध करना, लोगों को सुरक्षा प्रदान करना, न्याय करना, वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना और दान-दक्षिणा देना।
  • वैश्य — कृषि, गौ-पालन, व्यापार, वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना और दान-दक्षिणा देना।
  • शूद्र — तीनों उच्च वर्णों की सेवा करना।
इन नियमों का पालन करवाने के लिए ब्राह्मणों ने तीन नीतियाँ अपनाईं:—
  1. वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति को एक दैवीय व्यवस्था बताया।
  2. शासकों को इस व्यवस्था के नियमों का अपने राज्य में अनुसरण करने के लिए उपदेश दिया।
  3. लोगों को विश्वास दिलाया कि उनकी प्रतिष्ठा जन्म पर आधारित है। इसके लिए महाभारत जैसे ग्रंथों में वर्णित कहानियों के द्वारा बल प्रदान किया जाता था।

अक्षत्रिय राजा

शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय राजा हो सकते थे किंतु अनेक महत्वपूर्ण राजवंशों की उत्पत्ति अन्य वर्णों से भी हुई थी। 

  • मौर्य वंश को बौद्ध ग्रंथों में क्षत्रिय किंतु ब्राह्मणीय शास्त्र में निम्न कुल का मानते हैं।
  • शुंग और कण्व ब्राह्मण थे।
  • शकों को (मध्य एशिया से भारत आए) ब्राह्मण मलेच्छ, बर्बर तथा अन्यदेशीय मानते थे।
  • सातवाहन शासक गोतमी-पुत्त सिरी-सातकनि ने स्वयं को अनूठा ब्राह्मण और क्षत्रियों के दर्प का हनन करने वाला बताया था।
  • उसने दावा किया कि चार वर्णों के बीच विवाह संबंध होने पर उसने रोक लगाई। किंतु फिर भी रुद्रदामन के परिवार से उसने विवाह संबंध स्थापित किए। वह अंतर्विवाह पद्धति का पालन करते थे न कि बहिर्विवाह प्रणाली का।

जाति और सामाजिक गतिशीलता

ब्राह्मणीय सिद्धांत में जाति भी जन्म पर आधारित थी जिसकी कोई निश्चित संख्या नहीं थी। ब्राह्मणीय व्यवस्था ने जंगल में रहने वाले निषाद या फिर व्यावसायिक वर्ग जैसे सुवर्णकार, को जाति में वर्गीकृत कर दिया और एक ही जीविका तथा व्यवसाय से जुड़ी जातियों को श्रेणियों में।

  • लगभग 5वीं सदी ई. का मंदसौर (मध्य प्रदेश) से मिले अभिलेख में रेशम के बुनकरों की एक श्रेणी का वर्णन है जो मूलत: लाट (गुजरात) प्रदेश के निवासी थे और वहाँ से मंदसौर (दशपुर) चले गए थे।
  • यह कठिन यात्रा उन्होंने अपने बच्चों और बांधवों के साथ संपन्न की। वहाँ के राजा की महानता के बारे में सुनकर वे उस राज्य में बसना चाहते थे।
  • श्रेणी की सदस्यता शिल्प में विशेषज्ञता पर निर्भर थी। कुछ अन्य जीविका भी अपना लेते थे।
  • सदस्य एक व्यवसाय के अतिरिक्त और चीज़ों में भी सहभागी होते थे। जैसे उन्होंने शिल्पकर्म से अर्जित धन को सूर्य देवता के सम्मान में मंदिर बनवाने पर खर्च किया।

चार वर्णों से परे : एकीकरण

जिन समुदायों पर ब्राह्मणीय विचारों का प्रभाव नहीं पड़ा उन्हें संस्कृत साहित्य में विचित्र, असभ्य और पशुवत चित्रित किया जाता है। जैसे: वन प्रांतर लोग और निषाद वर्ग।

  • यायावर पशुपालकों के समुदाय को असंस्कृत भाषी, मलेच्छ और शंका की दृष्टि से देखा जाता था।
  • किंतु इन लोगों के बीच विचारों और मतों का आदान-प्रदान होता था जिनके बारे में हमें महाभारत की कथाओं से ज्ञात होता है।

चार वर्णों के परे : अधीनता और संघर्ष

ब्राह्मणों का मानना था कि कुछ कर्म पुनीत और पवित्र थे, अतः अपने को पवित्र मानने वाले लोग अस्पृश्यों से भोजन नहीं स्वीकार करते थे।

  • शवों को अंत्येष्टि और मृत पशुओं को छूने वालों को चाण्डाल कहा जाता था। उन्हें वर्ण व्यवस्था में सबसे निम्न कोटि में रखा जाता था। उनका स्पर्श और उन्हें देखना भी अपवित्रकारी मानते थे।
मनुस्मृति में चाण्डालों के कर्तव्यों की सूची मिलती है:—
  • उन्हें गाँव से बाहर रहना होता था
  • वे फेंके हुए बर्तनों का इस्तेमाल करते थे
  • मरे हुए लोगों के वस्त्र तथा लोहे के आभूषण पहनते थे
  • रात्रि में वे गाँव और नगरों में चल-फिर नहीं सकते थे
  • संबंधियों से विहीन मृतकों की उन्हें अंत्येष्टि करनी पड़ती थी और वधिक के रूप में भी।

➡ चीनी बौद्ध भिक्षु फा-शिएन (लगभग 5वीं सदी ई.) का कहना है कि अस्पृश्यों को सड़क पर चलते हुए करताल बजाकर अपने होने की सूचना देनी पड़ती थी जिससे अन्य जन उन्हें देखने के दोष से बच जाएँ। चीनी तीर्थयात्री श्वैन-त्सांग (लगभग 7वीं सदी ई.) का कहना है कि वधिक और सफ़ाई करने वालों को नगर से बाहर रहना पड़ता था।

जन्म के परे : संसाधन और प्रतिष्ठा

दास, भूमिहीन खेतिहर मज़दूर, शिकारी, मछुआरे, पशुपालक, किसान, ग्राममुखिया, शिल्पकार, वणिक और राजा सभी का उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक स्थान का उनके आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण से पता चलता है।

संपत्ति पर स्त्री और पुरुष के भिन्न अधिकार

मनुस्मृति के अनुसार पैतृक ज़ायदाद का माता-पिता की मृत्यु के बाद सभी पुत्रों में समान रूप से बँटेगा। किंतु ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी था। इसमें स्त्रियों की हिस्सेदारी नहीं थी।

  • किंतु विवाह के समय मिले उपहारों (स्त्री धन) पर स्त्रियों का अधिकार था।
  • इस संपत्ति को उनकी संतान विरासत के रूप में प्राप्त कर सकती थी पर उनके पति का कोई अधिकार नहीं होता था।
  • किंतु मनुस्मृति स्त्रियों को पति की आज्ञा के विरुद्ध पारिवारिक संपत्ति अथवा स्वयं अपने बहुमूल्य धन के गुप्त संचय के विरुद्ध चेतावनी देती है।
  • अधिकतर साक्ष्य-अभिलेखीय व साहित्यिक बताते हैं कि उच्च वर्ग की महिलाएँ संसाधनों पर पैठ रखती थी, भूमि, पशु और धन पर पुरुषों का ही नियंत्रण था।

वर्ण और संपत्ति के अधिकार

ब्राह्मणीय ग्रंथों के अनुसार संपत्ति पर अधिकार का एक और आधार वर्ण था।

  • साहित्यिक परंपरा में राजा को अधिकतर धनी और पुरोहित को सामान्यत: धनी दर्शाया हैं।
  • यदा-कदा निर्धन ब्राह्मण का भी चित्रण मिलता है।
  • प्रारंभिक बौद्ध धर्म में वर्ण व्यवस्था की आलोचना हुई है बौद्धों ने जन्म के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा को अस्वीकार किया।

एक वैकल्पिक सामाजिक रूपरेखा : संपत्ति में भागीदारी

दानशील आदमी सम्मान का और कृपण व्यक्ति (अपने संपत्ति का स्वयं संग्रह करने वाला) घृणा का पात्र होता था।

  • तमिलकम क्षेत्र में सरदार, अपनी प्रशंसा गाने वाले चारण और कवियों के आश्रयदाता होते थे।
  • संगम साहित्य संग्रह में सामाजिक और आर्थिक संबंधों का अच्छा चित्रण है। धनी और निर्धन के बीच विषमताएँ थीं, जिन लोगों का संसाधनों पर नियंत्रण था उनसे मिल-बाँट कर उपयोग करने की अपेक्षा की जाती थी।

सामाजिक विषमताओं की व्याख्या : एक सामाजिक अनुबंध

बौद्धों ने समाज में फैली विषमताओं और अंतर्विरोधों को नियमित करने के लिए अपने दृष्टिकोण बताएँ।

  • सुत्तपिटक ग्रंथ में वर्णित मिथक के अनुसार प्रारंभ में मनुष्य और वनस्पति जगत पूर्ण विकसित नहीं थे।
  • सभी जीव शांति के एक निर्बाध लोक में रहते हुए प्रकृति से उतना ही ग्रहण करते थे जितना एक समय के भोजन की आवश्यकता होती थी।
  • किंतु यह व्यवस्था पतनशील हुई। मनुष्य आधिकारिक लालची, प्रतिहिंसक और कपटी हो गए।
  • राजा का पद लोगों द्वारा चुने जाने पर निर्भर करता था। लोग राजा को कर देते थे, आर्थिक और सामाजिक संबंधों को बनाने में मानवीय कर्म का बड़ा हाथ था।

साहित्यिक स्रोतों का इस्तेमाल : इतिहासकार और महाभारत

इतिहासकार किसी ग्रंथ का विश्लेषण करते समय अनेक पहलुओं पर विचार करते हैं जैसे:—

  • ग्रंथ की भाषा (पाली, प्राकृत अथवा तमिल आम लोगों की बोली संस्कृत पुरोहितों और खास वर्ग की बोली
  • ग्रंथ का प्रकार (मंत्र या कथा)
  • लेखकों के बारे में जानने का प्रयास
  • ग्रंथों के श्रोताओं का परीक्षण
  • ग्रंथ के संभावित संकलन/रचना काल और रचना भूमि

इन सब के विश्लेषण के बाद ही इतिहासकार किसी ग्रंथ की विषयवस्तु का इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए इस्तेमाल करते हैं।

भाषा एवं विषयवस्तु

महाभारत का पाठ संस्कृत में है परंतु इसकी संस्कृत वेदों तथा प्रशस्तियों की संस्कृत से कहीं अधिक सरल है। संभव है कि इस ग्रंथ को व्यापक स्तर पर समझा जाता था।

इतिहासकार इस ग्रंथ की विषयवस्तु को दो मुख्य शीर्षकों के अंतर्गत रखते हैं:—
  • आख्यान में कहानियों का संग्रह और उपदेशात्मक में सामाजिक आचार-विचार के मापदंडों का चित्रण है।
  • किंतु उपदेशात्मक अंशों में कहानियाँ और आख्यानों में समाज के लिए सबक भी निहित है।  अधिकतर इतिहासकार एकमत है कि महाभारत एक भाग में नाटकीय कथानक था जिसमें उपदेशात्मक अंश बाद में जोड़े गए।

लेखक (एक या कई) और तिथियाँ

संभवत मूल कथा के रचयिता भाट सारथी (सूत) थे। वे क्षत्रिय योद्धाओं के साथ युद्धक्षेत्र में जाते और उनकी विजय व उपलब्धियों के बारे में कविताएँ लिखते थे। जिनका प्रेषण मौखिक रूप में हुआ।

  • 5वीं सदी ई.पू. से ब्राह्मणों ने इस कथा परंपरा पर अधिकार कर इसे लिखा।
  • इस काल में कुरु और पांचाल सरदारी से राजतंत्र के रूप में उभर रहे थे। संभव है कि नए राज्यों की स्थापना के समय पुराने सामाजिक मूल्यों के स्थान पर नवीन मानदंडों की स्थापना हुई।
  • लगभग 200 ई.पू. से 200 ई. के बीच श्रीकृष्ण को विष्णु का रूप बताया जा रहा था।
  • 200-400 ई. के बीच मनुस्मृति से मिलते-जुलते बृहत उपदेशात्मक प्रकरण महाभारत में जोड़े गए।
  • पहले यह ग्रंथ 10,000 श्लोकों से भी काम रहा होगा, जो बढ़ कर एक लाख श्लोकों वाला हो गया।
  • साहित्यिक परंपरा में इसके रचयिता ऋषि व्यास माने जाते हैं।

सदृशता की खोज

1951-52 में बी.बी. लाल ने मेरठ ज़िले (उ.प्र.) के हस्तिनापुर गाँव में उत्खनन किया। संभव है कि यह कुरुओं की राजधानी हस्तिनापुर हो। क्योंकि गंगा के ऊपरी दोआब वाले क्षेत्र में कुरु राज्य स्थित था।

  • बी.बी. लाल को यहाँ आबादी के पाँच स्तरों के साक्ष्य मिले थे। जिनमें दूसरा स्तर (लगभग 12वीं से 7वीं सदी ई.पू.) और तीसरा स्तर (लगभग छठी से तीसरी सदी ई.पू.) महत्वपूर्ण है।

➡ महाभारत की सबसे चुनौतीपूर्ण उपकथा द्रौपदी से पांडवों के विवाह की है। लेखकों ने इस बहुपति विवाह का विभिन्न तरीकों से स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया है।

  • संभवत: यह प्रथा शासकों के विशिष्ट वर्ग में किसी काल में मौजूद थी। 
  • समय के साथ बहुपति प्रथा उन ब्राह्मणों में अमान्य हो गई जिन्होंने कई शताब्दियों के दौरान इस ग्रंथ को पुनर्निर्मित किया।
  • ब्राह्मणों की दृष्टि में बहुपति प्रथा अमान्य और अवांछित थी, फिर भी हिमालय क्षेत्र में प्रचलन में थी। 
  • युद्ध के समय स्त्रियों की कमी के कारण बहुपति प्रथा को अपनाया गया। 
  • कुछ आरंभिक स्रोत इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि बहुपति प्रथा न तो एकमात्र विवाह पद्धति थी और न ही यह सबसे अधिक प्रचलित थी।

एक गतिशील ग्रंथ : महाभारत

शताब्दियों से इस महाकाव्य के अनेक पाठान्तर भिन्न-भिन्न भाषाओं में लिखे गए। ये सब लेखकों, अन्य लोगों और समुदायों के बीच कायम हुए संवादों को दर्शाते हैं।

  • अनेक कहानियाँ जिनका उदभव एक क्षेत्र विशेष में हुआ और जिनका खास लोगों के बीच प्रसार हुआ, वे सब इस महाकाव्य में समाहित कर ली गईं।
  • इस महाकाव्य की मुख्य कथा की अनेक पुनर्व्याख्याएँ की गईं।
  • इसके प्रसंगों को मूर्तिकला और चित्रों में भी दर्शाया गया।
  • इस महाकाव्य ने नाटकों और नृत्य कलाओं के लिए भी विषय-वस्तु प्रदान की।

प्रमुख साहित्यिक परंपराएँ

  • लगभग 500 ई.पू.  —  पाणिनी की अष्टाध्यायी, संस्कृत व्याकरण
  • लगभग 500-200 ई.पू.  —  प्रमुख धर्मसूत्र (संस्कृत में)
  • लगभग 500-100 ई.पू.  —  आरंभिक बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक सहित (पाली में)
  • लगभग 500 ई.पू.-400 ई.  —  रामायण और महाभारत (संस्कृत में)
  • लगभग 200 ई.पू.-200 ई.  —  मनुस्मृति (संस्कृत में), तमिल संगम साहित्य की रचना और संकलन
  • लगभग 100 ई.  —  चरक और सुश्रुत संहिता, आयुर्वेद के ग्रंथ (संस्कृत में)
  • लगभग 200 ई. से  —  पुराणों का संकलन (संस्कृत में)
  • लगभग 300 ई.  —  भरतमुनि का नाट्यशास्त्र (संस्कृत में)
  • लगभग 300-600 ई.  —  अन्य धर्मशास्त्र (संस्कृत में)
  • लगभग 400-500 ई.  —  संस्कृत नाटक कालिदास के साहित्य सहित; खगोल व गणित शास्त्र पर आर्यभट्ट और वराहमिहिर के ग्रंथ (संस्कृत में); जैन ग्रंथों का संग्रहण (प्राकृत में)

महाभारत के अध्ययन के प्रमुख कीर्तिमान

1919-66  —  महाभारत के समलोचनात्मक संस्करण की परिकल्पना और प्रशासन

1973  —  जे.ए.बी. वैन बियुटेनेन द्वारा समलोचनात्मक संस्करण का अंग्रेज़ी अनुवाद आरंभ; 1978 में उनकी मृत्यु के बाद यह परियोजना अधूरी रह गई। 

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भाग — 1 

विषय एक : ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ (हड़प्पा सभ्यता) 
विषय दो : राजा, किसान और नगर (आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.) 
विषय चार : विचारक, विश्वास और इमारतें (सांस्कृतिक विकास — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.) 

 

भाग — 2 

विषय पाँच : यात्रियों के नज़रिए (समाज के बारे में उनकी समझ — लगभग 10वीं से 17वीं सदी तक) 
विषय छ: : भक्ति–सूफी परंपराएँ (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ — लगभग 8वीं से 18वीं सदी तक) 
विषय सात : एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर (लगभग 14वीं से 16वीं सदी तक) 
विषय आठ : किसान, ज़मींदार और राज्य (कृषि समाज और मुगल साम्राज्य — लगभग 16वीं और 17वीं सदी) 

 

भाग — 3 

विषय नौ : उपनिवेशवाद और देहात (सरकारी अभिलेखों का अध्ययन) 
विषय दस : विद्रोही और राज (1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान) 
विषय ग्यारह : महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन (सविनय अवज्ञा और उससे आगे) 
विषय बारह : संविधान का निर्माण (एक नए युग की शुरुआत) 
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