Class 12 History Chapter 2 Notes In Hindi

विषय दो : राजा, किसान और नगर (आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)

प्रिंसेप और पियदस्सी

1838 में जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों (आरंभिक अभिलेखों और सिक्कों में) का अर्थ निकाला। अधिकांश अभिलेखों और सिक्कों पर पियदस्सी (मनोहर मुखाकृति वाला) और कुछ पर अशोक राजा का नाम भी लिखा है।

  • बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक सर्वाधिक प्रसिद्ध शासकों में से एक था।
  • भारतीय और यूरोपीय विद्वानों ने उपमहाद्वीप पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों की वंशावलियों की पुनर्रचना के लिए विभिन्न भाषाओं में लिखे अभिलेखों और ग्रंथों का उपयोग किया।
  • विद्वानों के अनुसार राजनीतिक इतिहास के संदर्भ में राजनीतिक परिवर्तनों और आर्थिक तथा सामाजिक विकासों के बीच संबंध तो थे लेकिन सीधे संबंध हमेशा नहीं थे।

अभिलेख

  • पत्थर, धातु या मिट्टी के बर्तन जैसी कठोर सतह पर खुदे लेख को अभिलेख कहते हैं।
  • इनमें उन्हें बनवाने वाले लोगों की उपलब्धियाँ, क्रियाकलाप या विचार लिखे जाते हैं।
  • राजाओं के क्रियाकलाप तथा महिलाओं और पुरुषों द्वारा धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का ब्योरा होता है।
  • प्राचीनतम अभिलेख प्राकृत भाषाओं (जनसामान्य की भाषाएँ) में लिखे जाते थे।

प्रारंभिक राज्य

सोलह महाजनपद

छठी सदी ई.पू. में आरंभिक राज्यों, नगरों, लोहे का बढ़ता प्रयोग, सिक्कों का विकास और बौद्ध तथा जैन सहित विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का विकास हुआ।

  • बौद्ध और जैन धर्म के आरंभिक ग्रंथों में महाजनपद नाम से 16 राज्यों का उल्लेख है। लेकिन वज्जि, मगध, कोशल, कुरू, पांचाल, गांधार और अवन्ति सबसे महत्वपूर्ण महाजनपद थे।
  • अधिकांश महाजनपदों पर राजा का शासन होता था लेकिन गण और संघ राज्यों पर कई लोगों का समूह शासन करता था इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। महावीर और बुद्ध इन्हीं गणों से संबंधित थे।
  • प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी जिसे किले से घेरा जाता था। किलेबंद राजधानियों के रख-रखाव और प्रारंभी सेनाओं और नौकरशाही के लिए भारी आर्थिक स्रोत की आवश्यकता होती थी।
  • लगभग छठी सदी ई.पू. से संस्कृत में ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्रों की रचना शुरू की। इनमें शासक सहित अन्य के लिए नियमों का निर्धारण और अपेक्षा की थी कि शासक क्षत्रिय वर्ण से ही होंगे।
  • शासकों का काम किसानों, व्यापारियों और शिल्पकारों से कर तथा भेंट वसूलना माना जाता था।
  • धीरे-धीरे कुछ राज्यों ने अपनी स्थायी सेनाएँ और नौकरशाही तंत्र तैयार कर लिए। बाकी अभी भी सहायक सेना पर निर्भर थे जिन्हें कृषक वर्ग से नियुक्त किया जाता था।

सोलह महाजनपदों में प्रथम : मगध

छठी से चौथी सदी ई.पू. में मगध (बिहार) के सबसे शक्तिशाली महाजनपद बनने के कई कारण है:—
  • मगध क्षेत्र में खेती की उपज अच्छी होती थी।
  • लोहे की खदानें (झारखंड) आसानी से उपलब्ध थीं जिससे उपकरण और हथियार बनाना सरल होता था।
  • जंगली क्षेत्रों में हाथी उपलब्ध थे जो सेना के एक महत्वपूर्ण अंग थे।
  • गंगा और इसकी उपनदियों से आवागमन सस्ता व सुलभ होता था।

लेकिन आरंभिक जैन और बौद्ध लेखकों के अनुसार बिंबिसार, अजातसत्तु और महापदमनंद जैसे राजा और उनके मंत्री की नीतियों के कारण मगध का महत्व था।

➡ पहले राजगाह (राजगीर―”राजाओं का घर”) मगध की राजधानी थी। पहाड़ियों के बीच बसा राजगाह एक किलेबंद शहर था। बाद में चौथी सदी ई.पू. में पाटलिपुत्र (पटना) को राजधानी बनाया गया, जहाँ से गंगा के रास्ते आवागमन का मार्ग महत्वपूर्ण था।

भाषाएँ और लिपियाँ

अशोक के अधिकांश अभिलेख प्राकृत (ब्राह्मी लिपि) में है जबकि पश्चिमोत्तर से मिले अभिलेख (खरोष्ठी लिपि) अरामेइक और यूनानी भाषा में है।

एक आरंभिक साम्राज्य

मगध के विकास के साथ-साथ मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ। जिनके संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य (लगभग 321 ई.पू.) का शासन पश्चिमोत्तर में अफ़गानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला था। पौत्र अशोक ने कलिंग (उड़ीसा) पर विजय प्राप्त की थी।

मौर्यवंश के बारे में जानकारी प्राप्त करना

मौर्य साम्राज्य के इतिहास की रचना के लिए इतिहासकारों ने पुरातात्विक (मूर्तिकला), रचनाओं आदि स्रोतों का उपयोग किया जैसे:—

  • मेगस्थनीज़ 一 इंडिका
  • कौटिल्य या चाणक्य 一 अर्थशास्त्र
  • जैन, बौद्ध और पौराणिक ग्रंथ तथा संस्कृत वाङमय
  • पत्थरों और स्तंभों पर मिले अशोक के अभिलेख

➡ अशोक पहला सम्राट था जिसने अपने अधिकारियों और प्रजा के लिए संदेश प्राकृतिक पत्थरों और पॉलिश किए गए स्तंभों पर लिखवाए थे। इसके माध्यम से धम्म का प्रचार किया। जिसमें बड़ों के प्रति आदर, संन्यासियों और ब्राह्मणों के प्रति उदारता, सेवकों और दासों के साथ उदार व्यवहार तथा दूसरे के धर्मों और परंपराओं का आदर शामिल हैं।

साम्राज्य का प्रशासन

मौर्य साम्राज्य के पाँच प्रमुख राजनीतिक केंद्र थे, राजधानी पाटलिपुत्र और चार प्रांतीय केंद्र 一 तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसलि और सुवर्णगिरि। इन सबका उल्लेख अशोक के अभिलेखों में किया गया है।

  • आधुनिक पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत से लेकर आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और उत्तराखंड तक एक जैसे संदेश उत्कीर्ण किए गए थे।
  • संभव है कि सबसे प्रबल प्रशासनिक नियंत्रण साम्राज्य की राजधानी तथा उसके आसपास के प्रांतीय केंद्रों पर रहा होगा।
  • तक्षशिला और उज्जयिनी लंबी दूरी वाले महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर स्थित थे जबकि सुवर्णगिरि कर्नाटक में सोने की खदान के लिए उपयोगी था।
मेगस्थनीज़ ने सैनिक गतिविधियों के संचालन के लिए एक समिति और छ: उपसमितियों का उल्लेख किया है:—
  • नौसेना का संचालन
  • यातायात और खान-पान का संचालन
  • पैदल सैनिकों का संचालन
  • अश्वारोहियों का संचालन
  • रथारोहियों का संचालन
  • हाथियों का संचालन
दूसरी उपसमिति का दायित्व विभिन्न प्रकार का था:—
  • उपकरणों के ढोने के लिए बैलगाड़ियों की व्यवस्था
  • सैनिकों के लिए भोजन और जानवरों के लिए चारे की व्यवस्था
  • सैनिकों की देखभाल के लिए सेवकों और शिल्पकारों की नियुक्ति करना

➡ अशोक ने साम्राज्य को अखंड बनाए रखने के लिए धम्म प्रचार का भी प्रयोग किया। अशोक के अनुसार धम्म के माध्यम से लोगों का जीवन इस संसार में और इसके बाद के संसार में अच्छा रहेगा। धम्म के प्रचार के लिए धम्म महामात्त अधिकारियों की नियुक्ति की गई।

मौर्य साम्राज्य कितना महत्वपूर्ण था?

19वीं और आरंभिक 20वीं सदी के भारतीय इतिहासकारों को प्राचीन भारत में मौर्य साम्राज्य की संभावना बहुत चुनौतीपूर्ण तथा उत्साहवर्धक लगी।

  • इतिहासकारों को प्रस्तर मूर्तियों सहित मौर्यकालीन सभी पुरातत्व एक अद्भुत कला के प्रमाण लगे।
  • अभिलेखों पर लिखे संदेश अन्य शासकों के अभिलेखों से भिन्न और अशोक शक्तिशाली और परिश्रमी शासक लगा। इसलिए 20वीं सदी के राष्ट्रवादी नेताओं ने अशोक को प्रेरणा का स्रोत माना।

राजधर्म के नवीन सिद्धांत

दक्षिण के राजा और सरदार

उपमहाद्वीप के दक्कन और दक्षिण के क्षेत्र में स्थित तमिलकम (तमिलनाडु एवं आंध्र प्रदेश और केरल के कुछ हिस्से) में चोल, चेर और पाण्ड्य जैसी सरदारियों का उदय हुआ। ये राज्य बहुत ही समृद्ध और स्थायी सिद्ध हुए। प्राचीन तमिल संगम ग्रंथों की कविताओं जिसमें सरदारों का विवरण है से हमें इन राज्यों के बारे में पता चलता है।

➡ कई सरदार और राजा लंबी दूरी के व्यापार द्वारा राजस्व जुटाते थे। इनमें मध्य और पश्चिम भारत के क्षेत्रों पर शासन करने वाले सातवाहन (लगभग द्वितीय सदी ई.पू. से द्वितीय सदी ई. तक) उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर और पश्चिम में शासन करने वाले मध्य एशियाई मूल के शक शासक शामिल थे।

सरदार और सरदारी

सरदार एक शक्तिशाली व्यक्ति था, जिसका पद वंशानुगत भी हो सकता था और नहीं भी।

सरदार के कार्य:—
  • अनुष्ठान का संचालन
  • युद्ध के समय नेतृत्व करना
  • विवादों को सुलझाने में मध्यस्थता की भूमिका निभाना
  • वह अपने अधीन लोगों से भेंट लेकर अपने समर्थकों में वितरण कर देता था।
  • सरदारी में कोई स्थायी सेना या अधिकारी नहीं होते थे।

दैविक राजा

राजा उच्च स्थिति पाने के लिए विभिन्न देवी-देवताओं के साथ जुड़ते थे। मध्य एशिया से लेकर पश्चिमोत्तर भारत तक शासन करने वाले कुषाण शासकों ने (लगभग प्रथम सदी ई.पू. से प्रथम सदी ई. तक) मथुरा के पास माट के एक देवस्थान (उत्तर प्रदेश) पर विशालकाय मूर्तियाँ बनवाईं।

  • अफ़गानिस्तान के एक देवस्थान पर भी इसी प्रकार की मूर्तियाँ मिली हैं।
  • इतिहासकारों का मानना है कि इनके ज़रिए कुषाण स्वयं को देवतुल्य प्रस्तुत करना चाहते थे।
  • कई कुषाण शासकों ने अपने नाम के आगे “देवपुत्र” की उपाधि भी लगाई थी।
  • कुषाण शासको के राजधर्म के प्रमाण उनके सिक्कों और मूर्तियों से प्राप्त होता हैं।
  • कुषाण इतिहास की रचना अभिलेखों और साहित्य परंपरा के माध्यम से की गई है।

➡ चौथी सदी ई. में गुप्त साम्राज्य सहित कई बड़े साम्राज्य सामंतों पर निर्भर थे। अपना निर्वाह भूमि पर नियंत्रण के साथ स्थानीय संसाधनों द्वारा करते थे।

  • सामंत शासकों का आदर और उनकी सैनिक सहायता भी करते थे।
  • शक्तिशाली सामंत राजा भी बन जाते थे और दुर्बल राजा बड़े शासको के अधीन हो जाते थे।
  • गुप्त शासकों का इतिहास साहित्य, सिक्कों, अभिलेखों और प्रशस्तियों की सहायता से लिखा गया है।
  • प्रयाग प्रशस्ति (इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख) की रचना हरिषेण (समुंद्रगुप्त के राजकवि) ने संस्कृत में की थी।

बदलता हुआ देहात

जनता में राजा की छवि

इतिहासकारों ने जातक (पहली सहस्राब्दि ई. के मध्य में पाली भाषा में लिखी गईं) और पंचतंत्र जैसे ग्रंथों में वर्णित कथाओं (स्रोत मौखिक किस्से-कहानियाँ) के माध्यम से जनता में राजा की छवि को जानने का प्रयास किया है।

  • जैसे गंदतिन्दु जातक की कथा से राजा और प्रजा (ग्रामीण प्रजा) के बीच तनावपूर्ण संबंध का पता चलता है। क्योंकि शासक राजकोष भरने के लिए बड़े-बड़े कर मांगते और रात में डकैत उनपर हमला करते थे। इस संकट से बचने के लिए लोग जंगल की ओर भाग जाते थे।

उपज बढ़ाने के तरीके

  • हल का प्रयोग छठी सदी ई.पू. से ही गंगा और कावेरी की घाटियों के उर्वर कछारी क्षेत्रों में होने लगा था।
  • भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हलों से भूमि की जुताई की जाने लगी।
  • गंगा घाटी में धान की रोपाई से उपज में भारी वृद्धि हुई।
  • लेकिन पंजाब और राजस्थान क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हल का प्रयोग 20वीं सदी में शुरू हुआ।
  • उपमहाद्वीप के पूर्वोत्तर और मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों ने खेती के लिए कुदाल का प्रयोग किया।
  • उपज बढ़ाने के लिए कुओं, तालाबों और कहीं-कहीं नहरों के माध्यम से सिंचाई की जाती थी।
  • इनको बनवाने वाले राजा या प्रभावशाली लोग अपने कामों का उल्लेख अभिलेखों में करवाते थे।

ग्रामीण समाज में विभिन्नताएँ

नई तकनीकों से उपज तो बढ़ी लेकिन इसके लाभ सभी को नहीं मिले। खेती से जुड़े लोगों में भेद बढ़ता जा रहा था।

  • बौद्ध कथाओं में भूमिहीन खेतिहर श्रमिकों, छोटे किसानों और बड़े-बड़े ज़मींदारों का उल्लेख मिलता है।
  • पाली भाषा में गहपति का प्रयोग छोटे किसानों और ज़मींदारों के लिए होता था।
  • बड़े-बड़े ज़मींदार और ग्राम प्रधान (पद वंशानुगत) का नियंत्रण किसानों पर होता था।
तमिल संगम साहित्य में भी गाँव के विभिन्न वर्गों के लोगों का उल्लेख है:—
  • वेल्लालर (बड़े ज़मींदार)
  • हलवाहा (उल्वर)
  • दास (अणिमई)

भूमिदान और नए संभ्रात ग्रामीण

ईसवी की आरंभिक शताब्दियों से ही भूमिदान के प्रमाण का उल्लेख अभिलेख में मिलता है। इनमें से कुछ अभिलेख पत्थरों पर, लेकिन अधिकांश ताम्र पत्रों पर खुदे होते थे। जिन्हें भूमिदान लेने वाले लोगों (धार्मिक संस्थाओं या ब्राह्मणों) को दिया जाता था।

  • अधिकांश अभिलेख संस्कृत में, लेकिन 7वीं सदी के बाद कुछ संस्कृत, तमिल और तेलुगु जैसी भाषाओं में भी मिले है।
  • प्रभावती गुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय (375-415 ई.) की पुत्री थी। उसका विवाह दक्कन पठार के वाकाटक परिवार में हुआ था।
  • संस्कृत धर्मशास्त्रों के अनुसार महिलाओं को भूमि जैसी संपत्ति पर स्वतंत्र अधिकार नहीं था लेकिन एक अभिलेख से पता चलता है कि प्रभावती भूमि की स्वामी थी और उसने दान भी किया था।

➡ ब्राह्मण, किसान तथा अन्य प्रकार के वर्ग के लोग, जो शासकों या उनके प्रतिनिधियों को कई प्रकार की वस्तुएँ देते थे। इन लोगों को गाँव के नए प्रधान की आज्ञाओं का पालन करना और अपने भुगतान उसे ही देने पड़ते थे।

➡ भूमिदान में कहीं छोटे-छोटे टुकड़े, तो कहीं बड़े-बड़े क्षेत्र दिए गए हैं। इतिहासकारों का मानना है कि भूमिदान शासक वंश द्वारा कृषि को नए क्षेत्रों में प्रोत्साहित करने के लिए थी। अन्य के अनुसार राजा का शासन सामंतों पर दुर्बल होने के कारण उन्होंने भूमिदान के माध्यम से अपने समर्थक जुटाने लगे।

  • ब्राह्मणों को दान किए गए भूभाग को अग्रहार कहते थे। उनसे भूमिकर या अन्य प्रकार के कर नहीं वसूले जाते थे। उन्हें स्थानीय लोगों से कर वसूलने का अधिकार था।

➡ भूमिदान के प्रचलन से राज्य तथा किसानों के बीच के संबंध का पता चलता है। लेकिन कुछ लोगों पर अधिकारियों या सामंतों का नियंत्रण नहीं था जैसे: पशुपालक, संग्राहक, शिकारी, मछुआरे, शिल्पकार और जगह-जगह घूम कर खेती करने वाले लोग। ये अपने जीवन और आदान-प्रदान का विवरण नहीं रखते थे।

नगर एवं व्यापार

नए नगर

इन नगरों का विकास लगभग छठी सदी ई.पू. में उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों में हुआ।
  • पाटलिपुत्र 一 नदीमार्ग के किनारे
  • उज्जयिनी 一 भूतल मार्ग के किनारे
  • पुहार 一 समुद्रतट पर
  • मथुरा जैसे अनेक शहर व्यावसायिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियों के जीवंत केंद्र थे।

नगरीय जनसंख्या : संभ्रांत वर्ग और शिल्पकार

किलेबंद नगरों से विभिन्न प्रकार के पुरावशेषों में उत्कृष्ट श्रेणी के मिट्टी के कटोरे और थालियाँ (उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र) मिली हैं जिन पर चमकदार कलई चढ़ी है। संभवत: इनका प्रयोग अमीर लोग करते होंगे।

  • साथ में सोने, चाँदी, कांस्य, ताँबे, हाथी दाँत, शीशे जैसे तरह-तरह के पदार्थों के बने गहने, उपकरण, हथियार, बर्तन, सीप और पक्की मिट्टी मिली हैं।

➡ द्वितीय सदी ई.पू. में कई नगरों में छोटे दानात्मक अभिलेख मिले हैं जिनमें दाता के नाम के साथ-साथ उसके व्यवसाय का भी उल्लेख है।

  • इसमें नगरों में रहने वाले धोबी, बुनकर, लिपिक, बढ़ाई, कुम्हार, स्वर्णकार, लौहकार, अधिकारी, धार्मिक गुरु, व्यापारी और राजाओं के बारे में भी विवरण हैं।
  • उत्पादकों और व्यापारियों के संघ (श्रेणी) का भी उल्लेख है। ये श्रेणियाँ पहले कच्चे माल को खरीदती फिर उनसे सामान तैयार कर बाज़ार में बेच देती थीं।

उपमहाद्वीप और उसके बाहर का व्यापार

छठी सदी ई.पू. से ही उपमहाद्वीप में मध्य एशिया और उससे भी आगे तक भू मार्ग फैल गए थे।समुद्रतट पर बने कई बंदरगाहों से जलमार्ग अरब सागर से होते हुए, उत्तरी अफ़्रीका, पश्चिम एशिया तक और बंगाल की खाड़ी से यह मार्ग चीन और दक्षिणपूर्व एशिया तक फैल गया था।

  • इन मार्गों पर शासको ने नियंत्रण रखने की कोशिश की और व्यापारियों की सुरक्षा के बदले उनसे धन लिया।
  • इन मार्गों पर पैदल फेरी लगाने वाले तथा बैलगाड़ी और घोड़े-खच्चरों जैसे जानवरों के दल के साथ चलने वाले व्यापारी होते थे।
  • समुद्री मार्ग से यात्रा करना खतरनाक तो था लेकिन बहुत लाभदायक होता था।

➡ तमिल भाषा में मसत्थुवन और प्राकृत में सत्थवाह और सेट्ठी सफल व्यापारी बड़े धनी होते थे।नमक, अनाज, कपड़ा, धातु और उससे निर्मित उत्पाद, पत्थर, लकड़ी, जड़ी-बूटी जैसे अनेक प्रकार के सामान एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाए जाते थे।

  • रोमन साम्राज्य में काली मिर्च जैसे मसालों तथा कपड़ों व जड़ी -बूटियों की भारी माँग थी। इन सभी वस्तुओं को अरब सागर के रास्ते भूमध्य क्षेत्र तक पहुँचाया जाता था।

सिक्के और राजा

व्यापार के लिए सिक्के के प्रचलन से विनिमय कुछ आसान हुआ। छठी सदी ई.पू. चाँदी और ताँबे के आहत सिक्के सबसे पहले ढाले गए और प्रयोग में आए। संभव है कि इनको मौर्य वंश के राजाओं ने और कुछ सिक्के व्यापारियों, धनपतियों और नागरिकों ने जारी किए हो।

  • शासको की प्रतिमा और नाम के साथ सबसे पहले सिक्के हिंद-यूनानी शासकों ने जारी किए। जिनका द्वितीय सदी ई.पू. में उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र पर नियंत्रण था।
  • सोने के सिक्के बड़े पैमाने पर प्रथम सदी ई. में कुषाण राजाओं ने जारी किए थे।
  • दक्षिण भारत के अनेक पुरास्थलों से बड़ी संख्या में रोमन सिक्के मिलने से स्पष्ट होता है कि दक्षिण भारत का रोमन साम्राज्य के साथ व्यापारिक संबंध था।
  • प्रथम सदी ई. में यौधेय कबायली गणराज्यों (पंजाब और हरियाणा में) ने ताँबे के सिक्के जारी किए थे। जिनसे उनकी व्यापार में रुचि और सहभागिता स्पष्ट होती है।
  • सोने के सबसे भव्य सिक्कों में से कुछ गुप्त शासकों ने जारी किए। जिनके माध्यम से दूर देशों से व्यापार-विनिमय करने में आसानी और शासकों को लाभ होता था।

➡ छठी सदी ई. में सोने के सिक्के कम मिलने को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है।

  • कुछ का कहना है कि रोमन साम्राज्य के पतन के बाद दूरवर्ती व्यापार में कमी आई।
  • अन्य का कहना है कि इस काल में नए नगरों और व्यापार के नवीन तंत्रों के उदय होने के कारण।

मूल बातें : अभिलेखों का अर्थ कैसे निकाला जाता है?

ब्राह्मी लिपि का अध्ययन

आधुनिक भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त लगभग सभी लिपियों का मूल ब्राह्मी लिपि है। इसका प्रयोग अशोक के अभिलेखों में किया गया है।

  • 18वीं सदी से यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय पंडितों की सहायता से आधुनिक बंगाली और देवनागरी लिपि में कई पांडुलिपियों का अध्ययन कर उनके अक्षरों की प्राचीन अक्षरों के नमूनों से तुलना की।
  • कई बार लगा कि यह संस्कृत में लिखे हैं जबकि ये प्राकृत में थे। अथक परिश्रम के बाद 1838 ई. में जेम्स प्रिंसेप ने अशोककालीन ब्राह्मी लिपि का अर्थ निकाल लिया।

खरोष्ठी लिपि को कैसे पढ़ा गया?

पश्चिमोत्तर में शासन करने वाले हिंद-यूनानी राजाओं (लगभग द्वितीय-प्रथम सदी ई.पू.) द्वारा बनवाए गए सिक्कों पर राजाओं के नाम यूनानी और खरोष्ठी में लिखे गए हैं। इसलिए खरोष्ठी लिपि जानना आसान हुआ।

अभिलेखों से प्राप्त ऐतिहासिक साक्ष्य

कुछ अभिलेख में अशोक के नाम की जगह उसके द्वारा अपनाई गई उपाधियों का प्रयोग किया गया है जैसे: देवानांपिय (देवताओं का प्रिय) और पियदस्सी (देखने में सुंदर)।

  • अन्य अभिलेखों में अशोक के नाम के साथ उनकी उपाधियाँ भी लिखी हैं।
  • इन अभिलेखों के परीक्षण में इनके विषय, शैली, भाषा और पुरालिपिविज्ञान में समानता मिली है इसलिए इन अभिलेखों को एक ही शासक ने बनवाया था।
  • इतिहासकारों को बार-बार अभिलेखों में लिखे कथनों का परीक्षण करना पड़ता है ताकि उसमें क्या लिखा है, वह सत्य हैं, संभव है या फिर अतिशयोक्तिपूर्ण आदि का पता चल सके।

अभिलेख साक्ष्य की सीमा

अभिलेखों से प्राप्त जानकारियों की कई सीमाएँ होती हैं:—
  • हलके ढंग से उत्कीर्ण अक्षरों को पढ़ना मुश्किल होता है।
  • अभिलेखों के नष्ट होने से अक्षर लुप्त हो जाते हैं।
  • अभिलेखों के शब्दों के वास्तविक अर्थ के बारे में पूर्ण ज्ञान होना सरल नहीं होता क्योंकि कुछ अर्थ किसी विशेष स्थान या समय से संबंधित होते हैं।
  • उपलब्ध अभिलेखों में से अभी सिर्फ उनके अंश मात्र है।
  • खेती की दैनिक प्रक्रियाएँ और रोज़मर्रा की ज़िंदगी के सुख-दुख का उल्लेख अभिलेखों में नहीं मिलता है।
  • अभिलेख सिर्फ़ बड़े और विशेष अवसरों का ही वर्णन करते हैं।
  • अभिलेख हमेशा उन्हीं व्यक्तियों के विचार व्यक्त करते हैं जो उन्हें बनवाते थे।
  • अर्थात राजनीतिक और आर्थिक इतिहास का पूर्ण ज्ञान मात्र अभिलेख शास्त्र से ही नहीं मिलता।

➡ 19वीं सदी के आखिरी दशकों में और 20वीं सदी के प्रारंभ में इतिहासकार प्रमुख रूप से राजाओं के इतिहास में रुचि रखते थे। 20वीं सदी के मध्य से आर्थिक परिवर्तन, विभिन्न सामाजिक समुदायों के उदय के विषय में महत्वपूर्ण बन गए हैं।

प्रमुख राजनीतिक और आर्थिक विकास

  • लगभग 600-500 ई.पू.  — धान की रोपाई; गंगा घाटी में नगरीकरण; महाजनपद; आहत सिक्के
  • लगभग 500-400ई.पू.  — मगध के शासकों की सत्ता पर पकड़
  • लगभग 327-325 ई.पू.  — सिकंदर का आक्रमण
  • लगभग 321 ई.पू.  —  चंद्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण
  • लगभग 272/268-231 ई.पू.  —  अशोक का शासन
  • लगभग 185 ई.पू.  —  मौर्य साम्राज्य का अंत
  • लगभग 200-100 ई.पू.  —  पश्चिमोत्तर में शक शासन; दक्षिण भारत में चोल, चेर व पांड्य; दक्कन में सातवाहन
  • लगभग 100ई.पू. -200 ई.  —  पश्चिमोत्तर के शक (मध्य एशिया के लोग) शासक; रोमन व्यापार; सोने के सिक्के
  • लगभग 78 ई.  —  कनिष्क का राज्यारोहण
  • लगभग 100-200 ई.  —  सातवाहन और शक शासकों द्वारा भूमिदान के अभिलेखीय प्रमाण
  • लगभग 320 ई.  —  गुप्त शासन का आरंभ
  • लगभग 335-375 ई.  —  समुद्रगुप्त
  • लगभग 375-415 ई.  —  चंद्रगुप्त द्वितीय; दक्कन वाकाटक
  • लगभग 500-600 ई.  —  कर्नाटक में चालुक्यों का उदय और तमिलनाडु में पल्लवों का उदय
  • लगभग 606-647 ई.  —  कन्नौज के राजा हर्षवर्धन; चीनी यात्री श्वैन त्सांग की यात्रा
  • लगभग 712 ई.  —  अरबों की सिंध पर विजय

अभिलेखशास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति

1784  — बंगाल एशियाटिक सोसाइटी का गठन

1810  का दशक  —  कोलिन मैकेंज़ी ने संस्कृत और तमिल भाषा के 8,000 अभिलेख एकत्र किए

1838  —  जेम्स प्रिंसेप द्वारा अशोक केब्राह्मी अभिलेखों का अर्थ लगाना

1877  —  अलेक्ज़ैंडर कनिंघम ने अशोक के अभिलेखों के एक अंश को प्रकाशित किया

1886  —  दक्षिण भारत के अभिलेखों के शोधपत्र एपिग्राफ़िआ कर्नाटिका का प्रथम अंक

1888  —  एपिग्राफ़िआ इंडिका का प्रथम अंक

1965-66  —  डी.सी. सरकार ने इंडियन एपिग्राफ़ी एंड इंडियन एपिग्राफ़िकल ग्लोसरी प्रकाशित की। 

Class 12 History Chapter 2 Notes PDF Download In Hindi

भाग — 1 

विषय एक : ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ (हड़प्पा सभ्यता) 
विषय तीन : बंधुत्व, जाति तथा वर्ग (आरंभिक समाज — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.) 
विषय चार : विचारक, विश्वास और इमारतें (सांस्कृतिक विकास — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.) 

 

भाग — 2 

विषय पाँच : यात्रियों के नज़रिए (समाज के बारे में उनकी समझ — लगभग 10वीं से 17वीं सदी तक) 
विषय छ: : भक्ति–सूफी परंपराएँ (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ — लगभग 8वीं से 18वीं सदी तक) 
विषय सात : एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर (लगभग 14वीं से 16वीं सदी तक) 
विषय आठ : किसान, ज़मींदार और राज्य (कृषि समाज और मुगल साम्राज्य — लगभग 16वीं और 17वीं सदी) 

 

भाग — 3 

विषय नौ : उपनिवेशवाद और देहात (सरकारी अभिलेखों का अध्ययन) 
विषय दस : विद्रोही और राज (1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान) 
विषय ग्यारह : महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन (सविनय अवज्ञा और उससे आगे) 
विषय बारह : संविधान का निर्माण (एक नए युग की शुरुआत) 
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