Class 12 History Chapter 1 Notes In Hindi

विषय एक : ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ (हड़प्पा सभ्यता)

हड़प्पाई मुहर हड़प्पा और सिंधु घाटी सभ्यता की सबसे विशिष्ट पुरावस्तु है। सेलखड़ी पत्थर से बनी इन मुहरों पर जानवरों के चित्र और लिपि (जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है) उत्कीर्ण है। इस क्षेत्र में बसे लोगों के जीवन के बारे में हमें पुरातात्विक साक्ष्यों (जैसे: उनके आवास, मृदभाण्ड, आभूषण, औज़ार तथा मुहरें आदि) से पता चलता है।

शर्तें, स्थान और समय

“हड़प्पा शब्द” सभ्यता की पहचान की जगह से लिया गया है। और “हड़प्पा सभ्यता” को सिंधु घाटी सभ्यता भी कहते हैं।

सभ्यता का कुल समय काल ㅡ 6000 ई.पू. से 1300 ई.पू. तक
  • प्रारंभिक चरण (प्रारंभिक हड़प्पा) ㅡ 6000 ई.पू. से 2600 ई.पू. तक
  • शहरी चरण (परिपक्व हड़प्पा) ㅡ 2600 ई.पू. से 1900 ई.पू. तक
  • पतन का चरण (उत्तर हड़प्पा) ㅡ 1900 ई.पू. से 1300 ई.पू. तक

➡ हड़प्पा मिट्टी के बर्तन, ईंटें (पकी और कच्ची), मुहरें, बाट, मोती, तांबे और कांस्य की वस्तुएं, विभिन्न प्रकार की टेराकोटा वस्तुएं हड़प्पा क्षेत्र के अलावा अफ़गानिस्तान, बलूचिस्तान, सिंध, पाकिस्तान के पंजाब प्रांत, जम्मू, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश का पश्चिमी भाग, गुजरात और महाराष्ट्र में भी मिली हैं।

  • बी.सी. (ई.पू.) 一 “बिफोर क्राइस्ट” (ईसा पूर्व)
  • ए.डी. (ई.) 一 “एनो डॉमिनी”
  • सी. ई. 一 “कॉमन एरा”
  • बी.सी.ई. 一 “बिफ़ोर कॉमन एरा”
  • बी.पी. 一 “बिफ़ोर प्रेजेंट”

आजकल ए.डी. की जगह सी. ई. और बी.सी. की जगह बी.सी.ई. का प्रयोग होता है।

हड़प्पा की बस्तियाँ

भारतीय उपमहाद्वीप में 2000 से अधिक हड़प्पा पुरातात्विक स्थल खोजे जा चुके हैं जिनमें अधिकांश सिंधु और सरस्वती नदी घाटियों के बीच स्थित है। पाँच प्रमुख (राखीगढ़ी, मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, धोलावीरा और गनवेरीवाला) शहरों की पहचान की गई है।

आंरभ

विकसित हड़प्पा से पहले मृदभाण्ड शैली की संस्कृतियाँ अस्तित्व में थीं। जिनके कृषि, पशुपालन तथा शिल्पकारी के साक्ष्य मिले हैं। बस्तियाँ छोटी होती थीं। लगभग 7000 ई.पू. कृषक समुदायों से हड़प्पा संस्कृति का उद्भव हुआ।

निर्वाह के तरीके

  • हड़प्पा स्थलों से गेहूँ, जौ, दाल, सफ़ेद चना और तिल के दाने मिले हैं। (बाजरे के दाने गुजरात स्थलों से / चावल के दाने कम मिले)
  • मवेशियों, भेड़, बकरी, भैंस तथा सूअर की हड्डियाँ (पालतू जानवर) और जंगली प्रजातियों जैसे वराह (सूअर), हिरण तथा घड़ियाल की हड्डियाँ और मछली तथा पक्षियों की हड्डियाँ भी मिली हैं।

कृषि प्रौद्योगिकी

मुहरों पर मृणमूर्तियों के रेखांकन के आधार पर पुरातत्वविद मानते हैं कि खेत जोतने के लिए बैलों का प्रयोग होता था।

  • चोलिस्तान के कई स्थलों और बनावली (हरियाणा) से मिट्टी के हल के प्रतिरूप मिले हैं।
  • कालीबंगन (राजस्थान) से जुते हुए खेत का साक्ष्य मिला जो आरंभिक हड़प्पा से संबद्ध है। संभवत: यहाँ एक साथ दो अलग-अलग फ़सलें उगाई जाती थीं।
  • हड़प्पा स्थल के अर्ध-शुष्क क्षेत्र में स्थित होने के कारण सिंचाई की ज़रूरत पड़ती होगी। शोर्तुघई (अफ़गानिस्तान) से नहरों के कुछ अवशेष मिले हैं। परंतु पंजाब और सिंध में नहीं।

संभव है कि प्राचीन नहरें गाद से भर गई हो या फिर लोग सिंचाई के लिए कुओं से पानी प्राप्त करते हो। धौलावीरा (गुजरात) में मिले जलाशयों का प्रयोग संभवत: कृषि के लिए जल संचयन हेतु किया जाता था।

हड़प्पा संस्कृति के योजनाबद्ध शहर

सबसे पहले खोजा गया स्थल हड़प्पा था परंतु मोहनजोदड़ो सबसे प्रसिद्ध पुरास्थल है।

बस्ती दो भागों में विभाजित है:—
  • छोटा ऊँचा पश्चिमी भाग (दुर्ग) 一 यहाँ की संरचनाएँ कच्ची ईंटों के चबूतरे पर बनी थीं और दुर्ग को दीवार से घेरा गया था।
  • बड़ा निचला पूर्वी भाग (निचला शहर) 一 इस शहर को भी दीवार से घेरा गया था। इसके अतिरिक्त कई भवनों को ऊँचे चबूतरों पर बनाया गया था।

➡ ऐसा प्रतीत होता है कि बस्ती के नियोजन के बाद चबूतरों के एक निश्चित क्षेत्र पर शहर का सारा भवन-निर्माण कार्य किया गया था। ईंटों को एक निश्चित अनुपात (लंबाई और चौड़ाई, ऊँचाई की क्रमशः चार गुनी और दोगुनी) में धूप में सुखाके भट्टी में पकाकर बनाई गई थीं। यह सभी हड़प्पा बस्तियों में प्रयोग लाई गई थीं।

नालों का निर्माण

हड़प्पा शहरों की सबसे अनूठी विशेषता नियोजित जल निकास प्रणाली थी।

  • सड़कों तथा गलियों को लगभग एक ग्रिड पद्धति (एक दूसरे को समकोण पर काटती) में बनाया गया था।
  • पहले नालियों के साथ गलियों को फिर उसके अगल-बगल आवासों का निर्माण किया गया था।
  • घरों की नालियों को गलियों की नालियों से जोड़ने के लिए घर की दीवार का गली से सटा होना आवश्यक था।
हड़प्पा की दुर्दशा
  • हड़प्पा से रेल-पटरी के लिए ईंटें ले जाने के कारण कई प्राचीन संरचनाएँ नष्ट हो गईं। इसके विपरीत मोहनजोदड़ो कहीं बेहतर संरक्षित था।
  • 1875 में बने भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के पहले जनरल अलेक्ज़ैंडर कनिंघम को भारतीय पुरातत्व का जनक कहा जाता है।

गृह स्थापत्य

मोहनजोदड़ो के निचले शहर में भवनों में एक आँगन, जिसके चारों ओर कमरे बने थे गर्म और शुष्क मौसम में खाना पकाने और कताई करने जैसी गतिविधियों का केंद्र था।

  • भूमि तल पर बनी दीवारों पर खिड़कियाँ नहीं है जो एकांतता को महत्व देता था। और मुख्य द्वार से आंतरिक भाग तथा आँगन का सीधा अवलोकन नहीं होता है।
  • हर घर का ईंटों के फ़र्श से बना एक स्नानघर होता था, जिसकी नालियाँ दीवार के माध्यम से सड़क की नालियों से जुड़ी थीं।
  • कुछ घरों में दूसरे तल या छत पर जाने के लिए सीढ़ियों के अवशेष मिले है।
  • कई आवासों में कुएँ वाले कक्ष, जिसमें बाहर से आया जा सकता था। संभवत: राहगीरों द्वारा प्रयोग किया जाता था। मोहनजोदड़ो में लगभग 700 कुएँ थे।

दुर्ग

दुर्ग में हमें मालगोदाम और विशाल स्नानागार के साक्ष्य मिले हैं जिनका प्रयोग संभवत: विशिष्ट सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए किया जाता था।

मालगोदाम 一 इसकी विशाल संरचना है जिसके ईंटों से बने केवल निचले हिस्से शेष हैं, जबकि ऊपरी हिस्से जो संभवत: लकड़ी के बने थे, बहुत पहले ही नष्ट हो गए थे।

विशाल स्नानागार 一 आँगन में बना एक आयतकार जलाशय, जो चारों ओर से एक गलियारे से घिरा हुआ है।

  • इसके तल तक जाने के लिए उत्तरी और दक्षिणी भाग में दो सीढ़ियाँ बनी थीं।
  • इसके किनारो पर ईंटों को जमाकर तथा जिप्सम के गारे के प्रयोग से इसे जलबद्ध किया गया था।
  • इसके तीनों और कक्ष बने हुए थे, एक में एक बड़ा कुआँ था।
  • जलाशय से पानी एक बड़े नाले में बह जाता था।
  • इसके उत्तर में एक गली के दूसरी ओर एक छोटी संरचना थी जिसमें 8 स्नानाघर बनाए गए थे।
  • एक गलियारे के दोनों ओर चार-चार स्नानाघर बने थे। प्रत्येक से नालियाँ, गलियारे के साथ-साथ बने एक नाले में मिलती थीं।

सामाजिक भिन्नताओं का अवलोकन

शवाधान

पुरातत्वविद किसी संस्कृति विशेष में रहने वाले लोगों के बीच सामाजिक तथा आर्थिक भिन्नताओं को जानने के लिए शवाधानों का अध्ययन करते हैं।

  • हड़प्पा स्थलों से मिले शवाधानों में मृतकों को गर्तों में दफ़नाया गया था जिनकी बनावट एक-दूसरे से भिन्न थी, कुछ पर ईंटों चिनाई की गई थी।
  • कुछ कब्रों में मृदभाण्ड तथा आभूषण मिले हैं जो संभवत: मृत्यु के बाद जीवन की मान्यता की ओर संकेत करते हैं।
  • पुरुषों और महिलाओं के शवाधानों से आभूषण और कहीं-कहीं ताँबे के दर्पण मिले हैं।
  • 1980 के दशक के मध्य में (हड़प्पा) एक पुरुष की खोपड़ी के पास शंख के तीन छल्लों, जैस्पर (उपरत्न) के मनके तथा सैकड़ों सूक्ष्म मनकों से बना एक आभूषण मिला था।

विलासिता की वस्तुओं की खोज

पुरातत्वविद उपयोगी तथा विलास की वस्तुओं को वर्गीकृत कर सामाजिक भिन्नता को पहचानने की कोशिश करते हैं।

1. रोज़मर्रा के उपयोग की वस्तुएँ (जिन्हें पत्थर तथा मिट्टी जैसे सामान्य पदार्थों से आसानी से बनाया जा सकता है) जैसे: चक्कियाँ, मृदभाण्ड, सुइयाँ, झाँवा आदि। ये वस्तुएँ सामान्य रूप से बस्तियों में सर्वत्र पाई गई हैं।

2. विलास की वस्तुएँ दुर्लभ, महँगी, स्थानीय स्तर पर अनुपलब्ध पदार्थों से और जटिल तकनीकों से बनी फ़यॉन्स (घिसी हुई रेत, बालू, रंग और चिपचिपे पदार्थ के मिश्रण को पका कर बनाया गया पदार्थ) के छोटे पात्र कीमती माने जाते थे।

महँगे पदार्थों से बनी दुर्लभ वस्तुएँ मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसी बड़ी बस्तियों से ही मिली है जैसे: फ़यॉन्स से बने लघुपात्र और सोना।

शिल्प-उत्पादन के विषय में जानकारी

चन्हुदड़ो, एक छोटी (7 हेक्टेयर) बस्ती है जहाँ शिल्प-उत्पादन कार्यों में मनके बनाना, शंख की कटाई, धातुकर्म, मुहर निर्माण तथा बाट बनाना सम्मिलित था।

➡ मनकों के निर्माण में कार्नीलियन (सुंदर लाल रंग का), जैस्पर, स्फटिक, क्वार्ट्ज़ तथा सेलखड़ी जैसे पत्थर: ताँबा, काँसा तथा सोने जैसी धातुएँ; तथा शंख, फ़यॉन्स और पकी मिट्टी, सभी का प्रयोग मनके बनाने में होता था।

  • कुछ मनके दो या उससे अधिक पत्थरों को आपस में जोड़कर बनाए जाते थे और कुछ सोने के तो टोप वाले पत्थर के होते थे। इनके चक्राकार, बेलनाकार, गोलाकार, ढोलाकार तथा खंडित आकार होते थे।
  • कुछ को उत्कीर्णन या चित्रकारी के माध्यम से सजाया और कुछ पर रेखाचित्र उकेरे गए थे।
  • सेलखड़ी जैसे मुलायम पत्थर से आसानी से विविध आकारों के मनके बनाए जा सकते थे।
  • कार्नीलियन का लाल रंग, पीले रंग के कच्चे माल तथा उत्पादन के विभिन्न चरणों में मनको को आग में पकाकर प्राप्त किया जाता था।
  • पत्थर के पिंडों को पहले अपरिष्कृत आकारों में तोड़कर फिर बारीकी से शल्क निकाल कर इन्हें अंतिम रूप दिया जाता था।
  • घिसाई, पॉलिश और इनमें छेद करने के साथ यह प्रक्रिया पूरी होती थी। चन्हुदड़ों, लोथल और धौलावीरा से छेद करने के विशेष उपकरण मिले हैं।
  • नागेश्वर तथा बालाकोट (समुद्र-तट बस्तियाँ) शंख से बनी वस्तुओं (चूड़ियाँ, करछियाँ तथा पच्चीकारी की वस्तुएँ) के निर्माण के विशिष्ट केंद्र थे। यहाँ से माल दूसरी बस्तियों तक जाता था।
  • चन्हुदड़ों और लोथल से तैयार माल (जैसे मनके) मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे बड़े शहरी केंद्रों तक जाता था।

उत्पादन केंद्रों की पहचान

शिल्प-उत्पादन के केंद्रों की पहचान के लिए पुरातत्वविद प्रस्तर पिंड, पूरे शंख तथा ताँबा-अयस्क जैसा कच्चा माल; औज़ार; अपूर्ण वस्तुएँ; त्याग दिया गया माल तथा कूड़ा-करकट आदि ढूँढ़ते हैं। इससे संकेत मिले कि छोटे, विशिष्ट केंद्रों के अलावा मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा में भी शिल्प उत्पादन का कार्य किया जाता था।

माल प्राप्त करने संबंधी नीतियाँ

बैलगाड़ियाँ, (मिट्टी से बने खिलौनों के प्रतिरूप मिले) सामान (पत्थर, लकड़ी, धातु आदि) और लोगों के लिए स्थल मार्गों द्वारा परिवहन का महत्वपूर्ण साधन था। संभवत: सिंधु तथा इसकी उपनदियों के बगल में बने नदी-मार्गों और तटीय मार्गों का भी प्रयोग किया जाता था।

उपमहाद्वीप तथा उसके आगे से आने वाला माल

  • नागेश्वर और बालाकोट 一 शंख
  • शोर्तुघई (अफ़गानिस्तान) 一 लाजवर्द मणि (नीले रंग के पत्थर)
  • लोथल (गुजरात में भड़ौच) 一 कार्नीलियन
  • दक्षिणी राजस्थान तथा उत्तरी गुजरात 一 सेलखड़ी
  • राजस्थान 一 धातु
  • खेतड़ी अँचल (राजस्थान) 一 ताँबा
  • दक्षिण भारत 一 सोना

कच्चा माल प्राप्त करने के इन अभियानों के माध्यम से स्थानीय समुदायों के साथ संपर्क स्थापित किया जाता था।

खेतड़ी क्षेत्र में मिले साक्ष्यों को पुरातत्वविदों ने गणेश्वर-जोधपुरा संस्कृति का नाम दिया है। इसके मृदभाण्ड हड़प्पा मृदभाण्डों से भिन्न थे और यहाँ ताँबे की वस्तुओं की संपदा मिली है। संभव है कि इस क्षेत्र के निवासी हड़प्पा सभ्यता के लोगों को ताँबा भेजते थे।

सुदूर क्षेत्रों से संपर्क

ताँबा संभवत: ओमान से भी लाया जाता था। ओमानी ताँबे तथा हड़प्पाई पुरावस्तुओं में निकल के अंश मिलने से दोनों के साझा उदभव की ओर संकेत करते हैं।

  • काली मिट्टी की मोटी परत चढ़ाई हुई एक बड़ा हड़प्पाई मर्तबान ओमनी स्थलों से मिला है। संभव है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग इनमें रखे सामान का ओमनी ताँबे से विनिमय करते थे।
  • तीसरी सहस्त्राब्दि ईसा पूर्व में मेसोपोटामिया के लेखों में मगान (ओमान) क्षेत्र से ताँबे के आगमन के संदर्भ मिलते हैं।
  • मेसोपोटामिया के स्थलों से मिले ताँबे में भी निकल के अंश, हड़प्पाई मुहरें, बाट, पासे तथा मनके भी मिले हैं।
  • मेसोपोटामिया के लेख दिलमुन (बहरीन द्वीप), मगान तथा मेलुहा (हड़प्पाई क्षेत्र के लिए प्रयुक्त शब्द) क्षेत्रों से संपर्क की जानकारी मिलती है।
  • यह लेख मेलुहा से प्राप्त कार्नीलियन, लाजवर्द मणि, ताँबा, सोना तथा विविध प्रकार की लड़कियों आदि उत्पादों का उल्लेख करता है।
  • मेलुहा को नाविकों का देश कहते हैं। हमें मुहरों पर जहाज़ों तथा नावों के चित्रांकन मिलते हैं।  संभव है कि ओमान, बहरीन या मेसोपोटामिया से संपर्क समुद्री मार्ग से था।

मुहरें, लिपि तथा बाट

मुहरें और मुद्रांकन

मुहरें और मुद्रांकनों का प्रयोग लंबी दूरी के संपर्कों को सुविधाजनक बनाने और प्रेषक (भेजने वाला) की पहचान के लिए होता था।

एक रहस्यमय लिपि

  • हड़प्पाई मुहरों पर लिखी पंक्ति, संभवत: मालिक के नाम व पदवी को दर्शाता है।
  • इस पर बना चित्र (जानवर) अनपढ़ लोगों को सांकेतिक रूप से इसका अर्थ बताता था।
  • अधिकांश अभिलेख संक्षिप्त है; सबसे लंबे अभिलेख में लगभग 26 चिन्ह है।
  • यह वर्णमालीय नहीं थी क्योंकि इसमें चिह्नों की संख्या लगभग 375 से 400 के बीच है।
  • यह लिपि दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी क्योंकि कुछ मुहरों पर दाईं ओर चौड़ा अंतराल है और बाईं ओर संकुचित।
  • मुहरें, ताँबे के औज़ार, मर्तबानों के अँवठ, ताँबे तथा मिट्टी की लघुपट्टिकाएँ, आभूषण, अस्थि-छड़ें और प्राचीन सूचना पट्ट पर लिखावट मिली है।

बाट

  • बाट, घनाकार चर्ट नामक पत्थर से बनाए जाते थे। इन बाटों के निचले मानदंड द्विआधारी (1, 2, 4, 8, 16, 32, 160, 200, 320, 640) थे जबकि ऊपरी मानदंड दशमलव प्रणाली का अनुसरण करते थे।
  • छोटे बाटों का प्रयोग आभूषणों और मनकों को तौलने के लिए किया जाता था। धातु से बने तराजू के पलड़े भी मिले हैं।

प्राचीन सत्ता

हड़प्पाई समाज में जटिल फैसले लेने और उन्हें कार्यान्वित करने के संकेत मिलते हैं। उदाहरण: हड़प्पाई पुरावस्तुएँ (मुहरें, बाट तथा ईंटें) जम्मू से गुजरात तक पूरे क्षेत्र में समान अनुपात की थीं।

  • बस्तियों को आवश्यकतानुसार विशेष स्थानों पर स्थापित किया गया था।
  • ईंटें बनाने और विशाल दीवारों तथा चबूतरों के निर्माण के लिए श्रम संगठित किया गया था।

प्रासाद तथा शासक

पुरातत्वविद मेसोपोटामिया के इतिहास और पुरोहित-राजाओं से परिचित थे और यही समानताएँ उन्होंने सिंधु क्षेत्र में भी ढूँढ़ी।

  • जैसे: मोहनजोदड़ो में मिले एक विशाल भवन को एक प्रसाद की संज्ञा दी गई।
  • एक पत्थर की मूर्ति को पुरोहित-राजा की संज्ञा दी गई।
  • हड़प्पा सभ्यता की अनुष्ठानिक प्रथाएँ अभी तक न समझ पाने के कारण राजनीतिक सत्ता किसके पास थी, का पता नहीं चलता है।
इस कारण पुरातत्वविदों के अलग-अलग मत थे:—
  1. हड़प्पाई समाज में शासक नहीं थे, सभी की सामाजिक स्थिति समान थी।
  2. यहाँ कोई एक नहीं बल्कि कई शासक थे जैसे मोहनजोदड़ो, हड़प्पा आदि के अपने अलग-अलग राजा होते थे।
  3. यह एक ही राज्य था जैसे कि पुरावस्तुओं में समानताओं, नियोजित बस्तियों के साक्ष्यों, ईंटों के आकार में निश्चित अनुपात, बस्तियों के कच्चे-माल के स्रोतों के समीप संस्थापित होने से स्पष्ट है।
  4. कुछ भवनों एवं सुविधाओं को लोगों के लिए और लोगों के द्वारा बनाए जाने से प्रतीत होता है कि हड़प्पावासियों ने लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया था।

सभ्यता का अंत

लगभग 1800 ई.पू. तक चोलिस्तान जैसे क्षेत्रों में विकसित हड़प्पा स्थलों का त्याग और गुजरात, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नई बस्तियों में आबादी बढ़ने लगी।

  • सभ्यता की विशिष्ट पुरावस्तुएँ (बाटों, मुहरों, मनकों) समाप्त हो गई।
  • लेखन, लंबी दूरी का व्यापार तथा शिल्प विशेषज्ञता भी समाप्त हो गई।
  • थोड़ी वस्तुओं के निर्माण के लिए थोड़ा ही माल प्रयोग में लाया जाता था।
  • आवास निर्माण की तकनीकों का ह्रास हुआ तथा बड़ी सार्वजनिक संरचनाओं का निर्माण बंद हो गया।
  • ये संस्कृतियाँ ग्रामीण जीवनशैली की ओर संकेत करती हैं। इन संस्कृतियों को उत्तर हड़प्पा (अनुवर्ती संस्कृतियाँ) कहा गया।
इस परिवर्तन के विषय में कई व्याख्याएँ दी गई हैं:—
  • जलवायु परिवर्तन
  • वनों की कटाई
  • अत्यधिक बाढ़
  • नदियों का सूख जाना या मार्ग बदल लेना
  • भूमि का अत्यधिक उपयोग

इनमें से कुछ कारण कुछ बस्तियों के संदर्भ में तो सही हो सकते है परंतु पूरी सभ्यता के पतन की व्याख्या नहीं करते।

हड़प्पा सभ्यता की खोज

हड़प्पा सभ्यता के शहरों के नष्ट होने के सहस्त्राब्दियों बाद बाढ़, मिट्टी के कटाव, खेत की जुताई, खज़ाने की खुदाई के समय यहाँ लोगों को मिलने वाली अपरिचित पुरावस्तुओं का अर्थ समझ नहीं आया।

कनिंघम का भ्रम

कनिंघम की मुख्य रुचि आरंभिक ऐतिहासिक (लगभग छठी सदी ई.पू. से चौथी सदी ई.) तथा उसके बाद के कालों से संबंधित पुरातत्व में थी।

  • अपने सर्वेक्षणों के दौरान मिले अभिलेखों का संग्रहण, प्रलेखन तथा अनुवाद किया।
  • आरंभिक बस्तियों की पहचान के लिए उन्होंने चौथी से सातवीं सदी ई. के बीच उपमहाद्वीप में आए चीनी बौद्ध तीर्थयात्रियों के वृतांतों का प्रयोग किया।
  • इन वृतांतों का हड़प्पा पुरास्थल से संबंध न होने के कारण कनिंघम के अन्वेषण के ढाँचे में उपयुक्त नहीं बैठता था।
  • इसलिए वे 19वीं सदी में मिले पुरावस्तुओं की प्राचीनता को नहीं समझ पाए।
  • एक अंग्रेज़ द्वारा कनिंघम को एक हड़प्पाई मुहर देने पर उन्होंने उसे अपने परिचित कालखंड में दिनांकित करने का असफल प्रयास किया।
  • क्योंकि अन्य लोगों की तरह उनका भी मानना था कि भारतीय इतिहास का प्रारंभ गंगा घाटी में पनपे पहले शहरों के साथ हुआ था।

एक नवीन प्राचीन सभ्यता

  • 1921 में दया राम साहनी ने हड़प्पा की मुहरें खोजी।
  • 1922 में राखाल दास बनर्जी ने मोहनजोदड़ो की मुहरें खोजी।

➡ इन्हीं खोजों के आधार पर 1924 में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल जॉन मार्शल ने पूरे विश्व के समक्ष सिंधु घाटी में एक नवीन सभ्यता की खोज की घोषणा की। यह मेसोपोटामिया के समकालीन थी।

➡ जॉन मार्शल भारत में कार्य करने वाले पहले पेशेवर पुरातत्वविद अपने साथ यूनान तथा क्रीट में कार्यों का अनुभव भी लाए थे।

  • उन्होंने पुरास्थल के स्तर विन्यास की जगह क्षैतिज इकाइयों के साथ-साथ उत्खनन कर एक इकाई विशेष से प्राप्त सभी पुरावस्तुओं को सामूहिक रूप से वर्गीकृत किया।
  • जिस कारण इन खोजों के संदर्भ के विषय में बहुमूल्य जानकारी हमेशा के लिए लुप्त हो जाती थी।

नयी तकनीकें तथा प्रश्न

  • 1944 में बने भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल आर.ई.एम. व्हीलर ने टीले के स्तर विन्यास के अनुसार खुदाई को आवश्यक बताया।
  • कच्छ, पंजाब, हरियाणा, कालीबंगन, लोथल, राखीगढ़ी और धौलावीरा में किए गए अन्वेषणों तथा उत्खननों से हड़प्पा स्थलों के बारे में पता चल पाया है।

अतीत को जोड़कर पूरा करने की समस्याएँ

हड़प्पाई लिपि की जगह भौतिक साक्ष्य (मृदभाण्ड, औज़ार, आभूषण, घरेलू सामान) जो पुरातत्वविदों को हड़प्पाई जीवन को ठीक प्रकार से पुनर्निर्मित करने में सहायक होते हैं।

खोजों का वर्गीकरण

पुरातत्वविद प्राप्त खोजों को इस प्रकार वर्गीकृत करते हैं:—

  • प्रयुक्त पदार्थ: पत्थर, मिट्टी, धातु, अस्थि, हाथीदाँत आदि।
  • उपयोगिता के आधार पर: औज़ार या आभूषण या फिर दोनों अथवा अनुष्ठानिक प्रयोग की कोई वस्तु।

➡ किसी पुरावस्तु की उपयोगिता के समझ आधुनिक समय में प्रयुक्त वस्तुओं से उनकी समानता पर आधारित होती है जैसे: मनके, चक्कियाँ, पत्थर के फलक तथा पात्र आदि।

  • कोई चीज कहाँ मिली थी (घर में, नाले में, कब्र में या फिर भट्टी में) के माध्यम से भी पुरावस्तुओं की उपयोगिता को समझने का प्रयास किया जाता है।
  • कुछ हड़प्पा स्थलों से कपास के टुकड़े मिलने पर भी पहनावे के विषय में जानने के लिए हमें अप्रत्यक्ष साक्ष्यों जैसे मूर्तियों में चित्रण पर निर्भर रहना पड़ता है।

व्याख्या की समस्याएँ

पुरातात्विक व्याख्या की सबसे अधिक समस्याएँ धार्मिक प्रथाओं के पुनर्निर्माण के प्रयासों में आती हैं। असामान्य और अपरिचित लगने वाली वस्तुओं को पुरातत्वविद धार्मिक महत्व की समझ लेते थे। जैसे:—

  • आभूषणों से लदी हुई नारी मृण्मूर्तियों को मातृदेवी की संख्या दी गई।
  • पुरुषों की दुर्लभ पत्थर से बनी मूर्तियों को पुरोहित राजा समझ गया।
  • विशाल स्नानागार तथा कालीबंगन और लोथल से मिली वेदियों को अनुष्ठानिक महत्व का माना गया।
  • मुहरों पर संभवत: अनुष्ठान के दृश्य से धार्मिक आस्थाओं और प्रथाओं को पुनर्निर्मित करने का प्रयास किया गया।
  • जिन पर पेड़-पौधे उत्कीर्ण है पूजा की ओर संकेत देते हैं।
  • मुहरों पर बना एक सींग वाला जानवर (एकश्रृंगी) 一कल्पित तथा संश्लिष्ट लगते हैं।
  • मुहरों एक पालथी मार कर योगी को “आद्य शिव” की संज्ञा दी गई।

आरंभिक भारतीय पुरातत्व के प्रमुख कालखंड 

  • 20 लाख ई.पू.  一  निम्न पुरापाषाण
  • 80,000 ई.पू.  一  मध्य पुरापाषाण
  • 35,000 ई.पू.  一  उच्च पुरापाषाण
  • 12,000 ई.पू.  一  मध्य पाषाण
  • 10,000 ई.पू.  一  नवपाषाण (आरंभिक कृषक तथा पशुपालक)
  • 6,000 ई.पू.  一  ताम्रपाषाण (ताँबे का पहली बार प्रयोग)
  • 2600 ई.पू.  一  हड़प्पा सभ्यता
  • 1000 ई.पू.  一  आरंभिक लौहकाल, महापाषाण शवाधान
  • 600 ई.पू.-400 ई.पू.  一  आरंभिक ऐतिहासिक काल

हड़प्पाई पुरातत्व के विकास के प्रमुख चरण

  • 1875  一  हड़प्पाई मुहर पर कनिंघम की रिपोर्ट
  • 1921  一  दया राम साहनी द्वारा हड़प्पा में उत्खननों का आरंभ
  • 1922  一  मोहनजोदड़ो में उत्खनन का प्रारंभ
  • 1946  一  आर.ई.एम. व्हीलर द्वारा हड़प्पा में उत्खनन
  • 1955  一  एस.आर. राव द्वारा लोथल में खुदाई का आरंभ
  • 1960  —  बी.बी. लाल तथा बी.के. थापर के नेतृत्व में कालीबंगन में उत्खननों का आरंभ
  • 1974  一  एम.आर. मुगल द्वारा बहावलपुर में अन्वेषणों का आरंभ
  • 1980  一  जर्मन-इतालवी संयुक्त दल द्वारा मोहनजोदड़ो में सतह-अन्वेषणों का आरंभ
  • 1986  一  अमरीकी दल द्वारा हड़प्पा में उत्खननों का आरंभ
  • 1990  一  आर.एस. बिष्ट द्वारा धौलावीरा में उत्खननों का आरंभ
  • 1997  一  अमरेंद्र नाथ ने राखीगढ़ी में खुदाई शुरू की
  • 2013  一  वसंत शिंदे ने राखीगढ़ी में पुरातत्व-अनुवांशिक अनुसंधान शुरू किया 

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भाग — 1 

विषय दो : राजा, किसान और नगर (आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.) 
विषय तीन : बंधुत्व, जाति तथा वर्ग (आरंभिक समाज — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.) 
विषय चार : विचारक, विश्वास और इमारतें (सांस्कृतिक विकास — लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.) 

 

भाग — 2 

विषय पाँच : यात्रियों के नज़रिए (समाज के बारे में उनकी समझ — लगभग 10वीं से 17वीं सदी तक) 
विषय छ: : भक्ति–सूफी परंपराएँ (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ — लगभग 8वीं से 18वीं सदी तक) 
विषय सात : एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर (लगभग 14वीं से 16वीं सदी तक) 
विषय आठ : किसान, ज़मींदार और राज्य (कृषि समाज और मुगल साम्राज्य — लगभग 16वीं और 17वीं सदी) 

 

भाग — 3 

विषय नौ : उपनिवेशवाद और देहात (सरकारी अभिलेखों का अध्ययन) 
विषय दस : विद्रोही और राज (1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान) 
विषय ग्यारह : महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन (सविनय अवज्ञा और उससे आगे) 
विषय बारह : संविधान का निर्माण (एक नए युग की शुरुआत) 
Class 6 History Notes in Hindi
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