विषय 5: बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ
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Toggle14वीं से 17वीं सदी के अंत तक यूरोप के अनेक देशों में नगरों की संख्या बढ़ने से एक “नगरीय-संस्कृति” विकसित हो रही थी।
- नगर के लोग अपने आपको गाँव के लोगों से अधिक सभ्य समझने लगे थे।
- फ़्लोरेंस, वेनिस तथा रोम कला और विद्या के केंद्र बन गए।
- नगरों को राजाओं और चर्च से थोड़ी बहुत स्वायत्तता मिल रही थी।
- अमीर और अभिजात वर्ग के लोग कलाकारों और लेखकों के आश्रयदाता थे।
- इसी समय मुद्रण के आविष्कार से अनेक लोगों को छपी पुस्तकें उपलब्ध होने लगीं।
- यूरोप में लोग इतिहास को समझ कर “आधुनिक विश्व” की तुलना यूनानी व रोमन “प्राचीन दुनिया” से करने लगे थे।
- अब लोग अपनी इच्छानुसार धर्म चुन सकते थे।
- चर्च के, पृथ्वी के केंद्र संबंधी विश्वासों को वैज्ञानिकों ने गलत सिद्ध कर दिया।
➡ 14वीं सदी से यूरोपीय इतिहास की जानकारी दस्तावेज़ों, मुद्रित पुस्तकों, चित्रों, मूर्तियों, भवनों तथा वस्त्रों से प्राप्त होती है।
- 19वीं सदी के इतिहासकारों ने “रेनेसॉं” (अर्थーपुनर्जन्म /पुनर्जागरण) शब्द का प्रयोग उस काल के सांस्कृतिक परिवर्तनों को बताने के लिए किया।
- 1860 ई. में बर्कहार्ट ने “दि सिविलाईजेशन ऑफ दि रेनेसाँ इन इटली” नामक पुस्तक में साहित्य, वास्तुकला तथा चित्रकला और 14वीं से 17वीं सदी तक इटली के नगरों में “मानवतावादी” संस्कृति के पनपने के बारे में बताया है।
इटली के नगरों का पुनरुत्थान
पश्चिम रोम साम्राज्य के पतन के बाद इटली के राजनैतिक और सांस्कृतिक केन्द्रों का विनाश हो गया। इस समय कोई भी एकीकृत सरकार नहीं थी।
- एक अरसे से पश्चिमी यूरोप के क्षेत्र सामंती रूप लेकर लातिनी चर्च के नेतृत्व में एकीकरण कर रहे थे।
- इसी समय पूर्वी यूरोप पर बाइज़ेंटाइन साम्राज्य और पश्चिम में इस्लाम सभ्यता का निर्माण हो रहा था।
➡ इटली एक कमज़ोर देश जो टुकड़ों में बँटा हुआ था। परंतु इन्हीं परिवर्तनों ने इतालवी संस्कृति के पुनरुत्थान में सहायता की।
- बाइज़ेंटाइन साम्राज्य और इस्लामी देशों के बीच व्यापार बढ़ने से इटली के तटवर्ती बंदरगाह पुनर्जीवित हो गए।
- 12वीं सदी से मंगोलों के चीन के साथ “रेशम-मार्ग” से व्यापार आरंभ करने के कारण पश्चिमी यूरोपीय देशों के व्यापार को बढ़ावा मिला। इसमें इटली के नगरों ने मुख्य भूमिका निभाई।
- नगरों में फ़्लोरेंस और वेनिस, गणराज्य थे और कई अन्य दरबारी-नगर पर राजकुमार शासन चलाते थे।
- वेनिस और जिनेवा शहरों में धर्माधिकारी और सामंत वर्ग राजनैतिक दृष्टि से शक्तिशाली नहीं थे।
- शासन में नगर के धनी व्यापारी और महाजन सक्रिय रूप से भाग लेते थे जिससे नागरिकता की भावना पनपने लगी।
- नगरों का शासन सैनिक तानाशाहों के हाथ में जाने पर भी निवासी अपने आपको यहाँ का नागरिक कहने में गर्व का अनुभव करते थे।
चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दियाँ
- 1300 ㅡ इटली के पादुआ विश्वविद्यालय में मानवतावाद पढ़ाया जाने लगा
- 1341 ㅡ पेट्रार्क को रोम में “राजकवि” की उपाधि से सम्मानित किया गया
- 1349 ㅡ फ़्लोरेंस में विश्वविद्यालय की स्थापना
- 1390 ㅡ जेफ़्री चॉसर की “केन्टरबरी टेल्स” का प्रकाशन
- 1436 ㅡ ब्रुनेलेशी ने फ़्लोरेंस में ड्यूमा का परिरूप तैयार किया
- 1453 ㅡ कुंस्तुनतुनिया के बाइज़ेंटाइन शासक को ऑटोमन तुर्कों ने पराजित किया
- 1454 ㅡ गुटेनबर्ग ने विभाज्य टाइप से बाईबल का प्रकाशन किया
- 1484 ㅡ पुर्तगाली गणितज्ञों ने सूर्य का अध्ययन कर अक्षांश की गणना की
- 1492 ㅡ कोलंबस अमरीका पहुँचे
- 1495 ㅡ लियोनार्डो द विंची ने “द लास्ट सपर” चित्र बनाया
- 1512 ㅡ माइकल एन्जिलो ने सिस्टीन चैप्पल की छत पर चित्र बनाए
विश्वविद्यालय और मानवतावाद
यूरोप में सबसे पहले विश्वविद्यालय इटली के शहरों में स्थापित हुए। 11वीं सदी से पादुआ और बोलोनिया विश्वविद्यालय विधिशास्त्र के अध्ययन केंद्र रहे।
- इसका कारण यह था कि इन नगरों के प्रमुख क्रियाकलाप व्यापार सौर वाणिज्य संबंधी थे इसलिए वकीलों और नोटरी की बहुत ज़रूरत थी और कानून का अध्ययन प्रिय विषय बन गया।
- लेकिन कानून का अध्ययन रोमन संस्कृति के संदर्भ में किया जाने लगा।
- फ़्रांचेस्को पेट्रार्क (1304-1378) के अनुसार पुराकाल एक विशिष्ट सभ्यता थी जिसे प्राचीन यूनानियों और रोमनों के वास्तविक शब्दों के माध्यम से अच्छी तरह समझा जा सकता है।
➡ इस शिक्षा कार्यक्रम में हम बहुत कुछ जान सकते है जो केवल धार्मिक शिक्षण से नहीं जान पाते। इसी नयी संस्कृति को 19वीं सदी के इतिहासकारों ने “मानवतावाद” नाम दिया।
- 15वीं सदी के शुरू के दशकों में मानवतावादी शब्द व्याकरण, अलंकारशास्त्र, कविता, इतिहास और नीतिदर्शन विषय पढ़ाने वाले अध्यापकों के लिए प्रयुक्त होता था।
- रोम के वकील तथा निबंधकार सिसरो (106-43 ई.पू.) ने मानवतावाद को संस्कृति के अर्थ में लिया था। ये विषय धार्मिक की बजाय व्यक्ति के चर्चा और वाद-विवाद के बाद विकसित कौशल पर बल देते थे।
➡ इन क्रांतिकारी विचारों ने अनेक विश्वविद्यालयों का ध्यान आकर्षित किया। फ़्लोरेंस ने 15वीं सदी में व्यापार या शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की हासिल की। इसकी प्रसिद्धि में दो लोगों का बड़ा हाथ था।
- दाँते अलिगहियरी (1265-1321) ने धार्मिक विषयों पर लिखा।
- कलाकार जोटो (1267-1337) ने जीते-जागते रूपचित्र बनाए।
➡ इसके बाद धीरे-धीरे फ़्लोरेंस, इटली के सबसे जीवंत बौद्धिक नगर के रूप में जाना जाने लगा और कलात्मक कृतियों के सृजन का केंद्र बन गया।
- अनेक रुचियों और अनेक हुनर में महारत हासिल मनुष्य को “रेनेसॉ व्यक्ति” कहा जाता था।
इतिहास का मानवतावादी दृष्टिकोण
मानवतावादी समझते थे कि रोमन साम्राज्य के टूटने के बाद “अंधकारयुग” शुरू हुआ और यूरोप में 14वीं सदी के बाद नए युग का जन्म हुआ।
- उनका तर्क था कि मध्ययुग में चर्च के कारण यूनान और रोमवासियों का समस्त ज्ञान उनके दिमाग से निकल चुका था।
मानवतावादियों और बाद के विद्वानों द्वारा प्रयुक्त कालक्रम
5-14 सदी (मध्य युग)
5-9 सदी (अंधकार युग)
9-11 सदी (आरंभिक मध्य युग)
11-14 सदी (उत्तर मध्य युग)
15 सदी से (आधुनिक युग)
इस काल के यूरोप के बारे में कई खोजें और शोध होने के बाद अनेक इतिहासकारों ने किसी भी काल को “अंधकार युग” की संज्ञा देना अनुचित समझा।
विज्ञान और दर्शन 一 अरबीयों का योगदान
पूरे मध्यकाल में ईसाई गिरजाघरों और मठों के विद्वान यूनानी और रोमन विद्वानों की कृतियों से परिचित थे। पर इन लोगों ने इन रचनाओं का प्रचार-प्रसार नहीं किया।
- 14वीं सदी में अनेक विद्वानों ने प्लेटो और अरस्तू के ग्रंथों के अरबी अनुवादों को पढ़ना शुरू किया।
- दूसरी ओर यूनानी विद्वान अरबी और फ़ारसी विद्वानों की कृतियों (प्राकृतिक विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, औषधि विज्ञान और रसायन विज्ञान) को अन्य यूरोपीय लोगों के बीच प्रसार के लिए अनुवाद कर रहे थे।
➡ अरबी के हकीम और बुखारा (मध्यएशिया) के दार्शनिक इब्न-सिना (लातिनी में एविसिना 980-1037) और आयुर्विज्ञान विश्वकोश के लेखक अल-राज़ी (रेज़ेस) को इतालवी दुनिया में ज्ञानी माना जाता था।
➡ स्पेन के अरबी दार्शनिक इब्न रुश्द (लातिनी में अविरोज़ 1126-98) ने दार्शनिक ज्ञान और धार्मिक विश्वासों के बीच रहे तनावों को सुलझाने की चेष्टा की। उनकी पद्धति को ईसाई चिंतकों द्वारा अपनाया गया।
इटली के साथ यूरोप के अन्य देशों में विश्वविद्यालय में पाठ्यचर्या पर कानून, आयुर्विज्ञान और धर्मशास्त्र का दबदबा रहा, फिर भी मानवतावादी विषय धीरे-धीरे स्कूलों में पढ़ाया जाने लगा।
कलाकार और यथार्थवाद
मानवतावादियों ने उस काल के लोगों के विचारों को आकार देने के लिए औपचारिक शिक्षा के साथ कला, वास्तुकला और ग्रंथों की मदद ली।
- रोमन संस्कृति के प्राचीन ग्रंथों की तरह भौतिक अवशेषों की भी बड़ी उत्सुकता से खोज की गई। जिससे नए कलाकारों ने प्रेरणा ली।
- रोम साम्राज्य के पतन के 1000 साल बाद भी प्राचीन रोम और उसके उजाड़ नगरों के खंडहरों में कलात्मक वस्तुओं (आदमी और औरतों की संतुलित मूर्तियाँ) के प्रति आदर ने उस परंपरा को कायम रखने के लिए इतावली वास्तुविदों को प्रोत्साहित किया।
- 1416 में दोनातल्लो (1386-1466) ने सजीव मूर्तियाँ बनाकर नयी परंपरा कायम की।
➡ कलाकारों द्वारा हूबहू मूल आकृति जैसी मूर्तियों को बनाने की चाह में कलाकार नर-कंकालों का अध्ययन करने के लिए आयुर्विज्ञान कॉलेजों के प्रयोगशाला में गए।
- बेल्जियम मूल के आन्ड्रीयस वेसेलियस पादुआ विश्वविद्यालय में आयुर्विज्ञान के प्राध्यापक पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सूक्ष्म परीक्षण के लिए मनुष्य के शरीर की चीर-फाड़ की। इसी समय से आधुनिक शरीर-क्रिया विज्ञान का प्रारंभ हुआ।
➡ चित्रकारों के लिए प्राचीन कृतियाँ न होने पर भी उन्होंने यथार्थ चित्र बनाने की कोशिश की।
- अब उन्हें मालूम हो गया की रेखागणित के ज्ञान से वे अपने परिदृश्य को ठीक से समझ सकते हैं तथा प्रकाश के बदलते गुणों का अध्ययन करने से उनके चित्रों में त्रि-आयामी रूप आ सकता है।
- लेप चित्र के लिए तेल के प्रयोग ने चित्रों को पूर्व की तुलना में अधिक रंगीन और चटख बना दिया।
- वस्त्रों के डिज़ाइन और रंग संयोजन में चीनी तथा फ़ारसी चित्रकला का प्रभाव उन्हें मंगोलों से मिली थी।
इस तरह शरीर विज्ञान, रेखागणित, भौतिकी और सौंदर्य की उत्कृष्ट भावना ने इतालवी कला को नया रूप दिया जिसे बाद में यथार्थवाद कहा गया। यह परंपरा 19वीं सदी तक चलती रही।
वास्तुकला
1417 से पोप के राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली बनने के बाद उन्होंने रोम के इतिहास के अध्ययन को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित किया।
- पुरातत्वविदों द्वारा रोम के अवशेषों का उत्खनन करने से वास्तुकला की एक नई शैली को प्रोत्साहन मिला जिसे शास्त्रीय शैली कहा गया।
- शास्त्रीय वास्तुकला से परिचित वास्तुविदों को पोप, व्यापारियों और अभिजात वर्ग के लोगों ने नियुक्त किया। जिन्होंने भवनों को लेपचित्रों, मूर्तियों और उभरे चित्रों से भी सुसज्जित किया।
➡ इस काल में कुछ लोग कुशल चित्रकार, मूर्तिकार और वास्तुकार, सब कुछ थे। उदाहरण:—
- माईकल ऐंजेलो बुआनारोत्ती (1475-1564) जिन्होंने पोप के सिस्टीन चैपल की भीतरी छत में लेपचित्र, “दि पाइटा” नामक प्रतिमा और सेंट पीटर गिरजे के गुम्बद का डिज़ाइन बनाया।
- वास्तुकार फिलिप्पो ब्रूनेलेशी (1337-1446) जिन्होंने फ्लोरेंस के भव्य गुम्बद का परिरूप प्रस्तुत किया था।
अब कलाकारों की पहचान उसने संघ या श्रेणी (गिल्ड) के नाम की जगह उनके नाम से होने लगी।
प्रथम मुद्रित पुस्तकें
16वीं सदी की क्रांतिकारी मुद्रण प्रौद्योगिकी की वजह से इटली में लिखे गए साहित्य विदेशों तक पहुँच गए।
- यूरोप के व्यापारी और राजनयिक मंगोल शासकों के राज-दरबार में अपनी यात्राओं के दौरान मुद्रण, आग्नेयास्त्र, कंपास और फलक जैसे तकनीक से परिचित हुए थे।
- 1455 में जर्मनमूल के जोहानेस गूटेनबर्ग (1400-58), जिन्होंने पहले छापेखाने का निर्माण किया, जहाँ बाईबल की 150 प्रतियाँ छपीं। पहले एक भिक्षु केवल एक ही प्रति लिख पाता था।
- 15वीं सदी तक अनेक क्लासिकी ग्रंथों (अधिकतर लातिनी ग्रंथ) का मुद्रण इटली में हुआ था।
- मुद्रित पुस्तकों के उपलब्ध होने से क्रय संभव होने लगा।
- छात्रों को केवल अध्यापकों के व्याख्यानों से बने नोट पर निर्भर नहीं रहना पड़ा।
- नए विचारों को बढ़ावा देने वाली पुस्तकें कई सौ पाठकों के पास जल्दी पहुँचने लगी।
- अब पाठक बाज़ार से पुस्तकें खरीदकर एकांत में पढ़ सकते थे इससे लोगों में पढ़ने की आदत का विकास हुआ।
छपी हुई पुस्तकों के वितरण से 15वीं सदी के अंत से इटली की मानवतावादी संस्कृति आल्प्स पर्वत के पार तेज़ी से फैलने लगी।
मनुष्य की एक नयी संकल्पना
मानवतावादी संस्कृति की विशेषताओं में से एक था मानव जीवन पर धर्म का नियंत्रण कमज़ोर होना। इटली के निवासी भौतिक संपत्ति, शक्ति और गौरव से बहुत ज़्यादा आकृष्ट थे पर वे अधार्मिक नहीं थे।
- वेनिस के मानवतावादी फ्रेनचेस्को बरबारो (1390-1454) ने अपनी एक पुस्तिका में संपत्ति अधिग्रहण करने को एक विशेष गुण कहकर तरफ़दारी की।
- लोरेन्ज़ो वल्ला (1406-1457) विश्वास करते थे कि इतिहास का अध्ययन मनुष्य को पूर्णतया जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करता है, उन्होंने अपनी पुस्तक ऑनप्लेज़र में भोग-विलास पर लगाई गई ईसाई धर्म की निषेधाज्ञा की आलोचना की।
मानवतावाद का मतलब यह भी था कि व्यक्ति विशेष सत्ता और दौलत की होड़ को छोड़कर अन्य कई माध्यमों से अपने जीवन को रूप दे सकता था।
महिलाओं की आकांक्षाएँ
वैयक्तिकता और नागरिकता के नए विचारों से महिलाओं को दूर रखा गया। सार्वजनिक जीवन में अभिजात व संपन्न परिवार के पुरुषों का प्रभुत्व था जो घर-परिवार के मामलों में निर्णय लेते थे।
- उस समय लोग अपने लड़कों को ही शिक्षा देते थे जिससे उनके बाद वे खानदानी पेशे या जीवन की आम ज़िम्मेदारियों को उठा सकें और छोटे लड़कों को धार्मिक कार्य के लिए चर्च को सौंप देते थे।
- महिलाओं के दहेज को कारोबार में लगाने पर भी उन्हें राय देने का अधिकार नहीं था।
- कारोबारी मैत्री को सुदृढ़ करने के लिए दो परिवारों में आपस में विवाह संबंध होते थे।
- पर्याप्त दहेज का प्रबंध न होने पर शादीशुदा लड़कियों को भिक्षुणी का जीवन बिताने के लिए भेज दिया जाता था।
- महिलाओं को केवल घर-परिवार को चलाने वाले के रूप में देखा जाता था।
➡ व्यापारी परिवारों में महिलाओं की स्थिति कुछ भिन्न थी। दुकानदारों की स्त्रियाँ दुकानों को चलाने में उनकी मदद करती थीं।
- व्यापारी और साहूकार परिवारों की पत्नियाँ, परिवार के कारोबार को पति के व्यापार पर जाने की स्थिति में सँभालती थीं।
- या फिर पति की कम आयु में मृत्यु होने पर उसकी पत्नी सार्वजनिक जीवन में बड़ी भूमिका निभाने के लिए बाध्य होती थी।
➡ उस काल की कुछ महिलाएँ बौद्धिक रूप से बहुत रचनात्मक और मानवतावादी शिक्षा की भूमिका के बारे में संवेदनशील थीं।
- वेनिस निवासी कसान्द्रा फेदेले (1465-1558) ने इस विचारधारा को चुनौती दी कि एक मानवतावादी विद्वान के गुण एक महिला के पास नहीं हो सकते।
- उनका नाम यूनानी और लातिनी भाषा के विद्वानों के रूप में विख्यात था। उन्हें पादुआ विश्वविद्यालय में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया था।
- इस काल की एक अन्य प्रतिभाशाली महिला मंटुआ की मार्चिसा ईसाबेला दि इस्ते (1474-1539) जिन्होंने अपने पति की अनुपस्थिति में अपने राज्य पर शासन किया।
ईसाई धर्म के अंतर्गत वाद-विवाद
व्यापार और सरकार, सैनिक विजय और कूटनीतिक संपर्कों के कारण इटली के नगरों और राजदरबारों के दूर-दूर के देशों से संपर्क स्थापित हुए।
- नयी संस्कृति की शिक्षित और समृद्धिशाली की प्रशंसा करने के साथ लोगों ने उसे अपनाया भी। परंतु ये नए विचार निरक्षर लोगों तक नहीं पहुँच सके।
- 15वीं और आरंभिक 16वीं सदियों में उत्तरी यूरोप के विश्वविद्यालयों के अनेक विद्वानों ने मानवतावादी विचारों से आकर्षित होकर यूनान और रोम के क्लासिक ग्रंथों तथा ईसाई धर्मग्रंथों के अध्ययन पर अधिक ध्यान दिया।
- उन्होंने ईसाइयों को अपने पुराने धर्मग्रंथो में बताए तरीकों से धर्म का पालन करने का आह्वान कर अनावश्यक कर्मकांडों को त्यागने की बात कही।
- वे मानव को एक मुक्त विवेकपूर्ण कर्ता समझते थे और एक दूरवर्ती ईश्वर में विश्वास रखते थे।
➡ ईसाई मानवतावादी (इंग्लैंड के टॉमस मोर (14781535) और हालैंड के इरेस्मस (1466-1536) का मानना था कि चर्च एक लालची और साधारण लोगों से बात-बात पर लूट-खसोट करने वाली संस्था बन गई ।
- पादरियों का लोगों से धन ठगने का सबसे सरल तरीका पाप-स्वीकारोक्ति दस्तावेज़ था जो व्यक्ति को उसके सारे किए गए पापों से छुटकारा दिला सकता था।
- यूरोप के लगभग प्रत्येक भाग में किसानों ने चर्च द्वारा लगाए गए इस प्रकार के अनेक करों का विरोध किया। राजा भी राज-काज में चर्च की दखलंदाज़ी से चिढ़ते थे।
- मानवतावादियों ने सूचित किया कि न्यायिक और वित्तीय शक्तियों पर पादरियों का दावा “कॉन्स्टैनटाइन के अनुदान” दस्तावेज़ जालसाजी से तैयार किए गए थे।
➡ 1517 में मार्टिन लूथर ने कैथलिक चर्च के विरुद्ध अभियान छेड़ा और दलील पेश की कि मनुष्य को ईश्वर से संपर्क साधने के लिए पादरी की आवश्यकता नहीं है।
- वे ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखें क्योंकि केवल उनका विश्वास ही उन्हें एक सम्यक जीवन की ओर ले जा सकता है और उन्हें स्वर्ग में प्रवेश दिला सकता है।
- इस आंदोलन को प्रोटैस्टेंट सुधारवाद नाम दिया गया जिसके कारण जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड के चर्च ने पोप तथा कैथलिक चर्च से अपने संबंध समाप्त कर दिए।
- स्विट्ज़रलैंड में लूथर के विचारों को उलरिक ज़्विंगली (1484-1531) और उसके बाद जौं कैल्विन (1509-64)ने लोकप्रिय बनाया।
- व्यापारियों के समर्थन से सुधारकों की लोकप्रियता शहरों में अधिक थी, जबकि ग्रामीण इलाकों में कैथलिक चर्च का प्रभाव बरकरार रहा।
- अन्य जर्मन सुधारक एनाबेपटिस्ट संप्रदाय के नेता उग्र-सुधारक थे। उन्होंने मोक्ष के विचार को हर तरह की सामाजिक उत्पीड़न के अंत होने के साथ जोड़ दिया।
➡ लूथर के आह्वान पर जर्मन शासकों ने 1525 में किसान विद्रोह का दमन करने पर भी आमूल परिवर्तनवाद बना रहा।
- आमूल परिवर्तनवादी फ्रांस में प्रोटैस्टेंटों के विरोध से मिल गए जिन्होंने कैथलिक शासकों के अत्याचार के कारण यह दावा किया कि जनता अपने पसंद के शासक को चुन सकती है।
- इंग्लैंड के शासकों ने पोप से अपने संबंध तोड़कर चर्च के प्रमुख बन गए।
- कैथलिक चर्च ने इन विचारधाराओं से प्रभावित होकर अनेक आंतरिक सुधार करने प्रारंभ कर दिए।
- स्पेन और इटली में पादरियों ने सादा जीवन और निर्धनों की सेवा पर ज़ोर दिया।
- स्पेन में, प्रोटैस्टेंट लोगों से संघर्ष करने के लिए इग्नेशियस लोयोला ने 1540 में “सोसाइटी ऑफ जीसस” नामक संस्था की स्थापना की।
- उनके अनुयायी जेसुइट कहलाए, जिनका ध्येय निर्धनों की सेवा करना और दूसरी संस्कृतियों के बारे में अपने ज्ञान को व्यापक बनाना था।
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियाँ
- 1516 — टॉमस मोर की यूटोपिया का प्रकाशन
- 1517 — मॉर्टिन लूथर द्वारा नाइंटी फाईव थिसेज़ की रचना
- 1522 — लूथर द्वारा बाईबल का जर्मन में अनुवाद
- 1525 — जर्मनी में किसान विद्रोह
- 1543 — एंड्रीयास वेसेलियस द्वारा ऑन ऐनॉटमी ग्रंथ की रचना
- 1559 — इंग्लैंड में आँग्ल-चर्च की स्थापना जिसके प्रमुख राजा/रानी थे
- 1569 — गेरहार्ड्स मरकेटर ने पृथ्वी का पहला बेलनाकार मानचित्र बनाया
- 1582 — पोप ग्रैगरी XIII के द्वारा ग्रैगोरियन कैलेंडर का प्रचलन
- 1628 — विलियम हार्वे ने हृदय को रुधिर-परिसंचरण से जोड़ा
- 1673 — पेरिस में “अकादमी ऑफ साइंसेज़” की स्थापना
- 1687 — आइज़क न्यूटन के प्रिन्सिपिया मैथेमेटिका का प्रकाशन
कोपरनिकसीय क्रांति
ईसाइयों का विश्वास था कि पृथ्वी पापों से भरी होने के कारण ब्रह्मांड के बीच में स्थिर है जिसके चारों ओर खगोलीय गृह घूम रहे हैं।
- कोपरनिकस (1473-1543) ने घोषणा की की पृथ्वी समेत सारे ग्रह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं।
- उन्होंने परंपरावादी ईसाई धर्माधिकारियों के भय से अपनी पाण्डुलिपि दि रिवल्यूशनिबस को प्रकाशित नहीं किया।
- मृत्यु-शैया के समय उन्होंने इस पाण्डुलिपि को अपने अनुयायी जोशिम रिटिकस को सौंप दी।
- जोहानेस कैप्लर (1571-1630) ने अपने ग्रंथ कॉस्मोग्राफ़िकल मिस्ट्री में कोपरनिकस के सूर्य-केंद्रित सौरमंडलीय सिद्धांत को लोकप्रिय बनाया जिससे सिद्ध हुआ कि सारे ग्रह सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार रूप में नहीं बल्कि दीर्घ वृत्ताकार मार्ग पर परिक्रमा करते हैं।
- गैलिलियो गैलिली (1564-1642) ने अपने ग्रंथ दि मोशन में गतिशील विश्व के सिद्धांतों की पुष्टि की।
ब्रह्मांड का अध्ययन
इन विचारकों ने बताया कि ज्ञान विश्वास से हटकर अवलोकन एवं प्रयोगों पर आधारित है।
- जैसे-जैसे इन वैज्ञानिकों ने ज्ञान की खोज का रास्ता दिखाया वैसे-वैसे भौतिकी, रसायन शास्त्र और जीव विज्ञान के क्षेत्र में अनेक प्रयोग और अन्वेषण कार्य तेज़ी से पनपने लगे।
- इतिहासकारों ने मनुष्य और प्रकृति के ज्ञान के इस नए दृष्टिकोण को वैज्ञानिक क्रांति का नाम दिया।
- परिणामस्वरुप संदेहवादियों और नास्तिकों ने प्रकृति को ईश्वर मानने लगे।
- ईश्वर में विश्वास रखने वाले लोग दूरस्थ ईश्वर की बात करने लगे हैं जो भौतिक दुनिया में जीवन को प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित नहीं करता था।
➡ इस प्रकार के विचारों को वैज्ञानिक संस्थाओं के माध्यम से लोकप्रिय बनाया गया। 1670 में बनी पेरिस अकादमी और 1662 में वास्तविक ज्ञान के प्रसार के लिए लंदन में गठित रॉयल सोसाइटी ने लोगों की जानकारी के लिए व्याख्यानों का आयोजन किया और सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए प्रयोग करवाए।
चौदहवीं सदी में क्या यूरोप में “पुनर्जागरण” हुआ था?
इंग्लैंड के पीटर बर्क जैसे लेखकों का सुझाव था कि बर्कहार्ट इस काल और इससे पहले के कालों के फ़र्कों को कुछ बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे थे।
- पुनर्जागरण शब्द में अंतर्निहित है कि यूनानी और रोमन सभ्यताओं का 14वीं सदी में पुनर्जन्म हुआ और समकालीन विद्वानों और कलाकारों में ईसाई विश्वदृष्टि की जगह पूर्व ईसाई विश्वदृष्टि का प्रचार-प्रसार किया। दोनों ही तर्क अतिश्योक्तिपूर्ण थे।
- पिछली सदियों के विद्वान यूनानी और रोमन संस्कृतियों से परिचित थे और लोगों के जीवन में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान था।
➡ यह माना नहीं जा सकता कि पुनर्जागरण, गतिशीलता तथा कलात्मक सृजनशीलता का काल था और मध्यकाल, अंधकारमय काल था जिसमें किसी प्रकार का विकास नहीं हुआ।
- क्योंकि इटली में पुनर्जागरण से जुड़े अनेक तत्व 12वीं और 13वीं सदी में पाए जाते हैं।
- कुछ इतिहासकारों ने उल्लेख किया कि 9वीं सदी में फ्रांस में इसी प्रकार के साहित्यिक और कलात्मक रचनाओं के विचार पनपे।
➡ यूरोप में सांस्कृतिक बदलाव में रोम और यूनान की “क्लासिकी” सभ्यता के साथ रोमन संस्कृति के पुरातात्विक और साहित्यिक पुनरुद्धार का भी हाथ था।
- लेकिन एशिया में प्रौद्योगिकी और कार्य कुशलता यूनानी और रोमन लोगों की तुलना में काफी विकसित थी।
- विश्व का बहुत बड़ा क्षेत्र आपस में संबद्ध हो चुका था और नौसंचालन की नई तकनीक ने लोगों के लिए पहले की तुलना में दूरदराज़ के क्षेत्रों की जलयात्रा को संभव बनाया।
- इस्लाम के विस्तार और मंगोलों की विजयों ने एशिया एवं उत्तरी अफ़्रीका को यूरोप के साथ राजनीति, व्यापार और कार्य कुशलता के ज्ञान को सीखने के लिए आपस में जोड़ दिया।
- यूरोपियों ने यूनानियों और रोमवासियों के साथ भारत, अरब, ईरान, मध्य एशिया और चीन से भी ज्ञान प्राप्त किया।
➡ इस काल में निजी (परिवार और व्यक्ति का निजी धर्म) और सार्वजानिक (सरकार के कार्यक्षेत्र और औपचारिक धर्म) दो अलग-अलग क्षेत्र बनने लगे।
- व्यक्ति तीन वर्गों में से किसी एक वर्ग का सदस्य होने साथ अपने आप में एक स्वतंत्र व्यक्ति था।
- एक कलाकार किसी संघ या गिल्ड का सदस्य होने के साथ वह अपने हुनर के लिए भी जाना जाता था।
- 18वीं सदी में प्रत्येक व्यक्ति के एकसमान राजनीतिक अधिकार थे।
➡ इस काल में भाषा के आधार पर यूरोप के विभिन्न क्षेत्रों ने अपनी पहचान बनानी शुरू की।
- पहले, आंशिक रूप से रोमन साम्राज्य द्वारा और बाद में लातिनी भाषा तथा ईसाई धर्म द्वारा जुड़ा यूरोप अलग-अलग राज्यों में बँटने लगा।
- इन राज्यों के आंतरिक जुड़ाव का कारण सामान भाषा का होना था।
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विषय सूची
अनुभाग एक — प्रारंभिक समाज
विषय 1: लेखन कला और शहरी जीवन
अनुभाग दो — साम्राज्य
विषय 2: तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य
विषय 3: यायावर साम्राज्य
अनुभाग तीन — बदलती परंपराएँ
विषय 4: तीन वर्ग
अनुभाग चार — आधुनिकीकरण की ओर
विषय 6: मूल निवासियों का विस्थापन
विषय 7: आधुनिकीकरण के रास्ते
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