Class 10 History Chapter 3 Notes In Hindi

अध्याय 3: भूमंडलीकृत विश्व का बनना

आधुनिक युग से पहले

वैश्वीकरण एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था है जो लगभग पिछले 50 सालों में के ही सामने आई है। जिसमें व्यापार, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश, पूँजी प्रवाह, प्रवास और प्रौद्योगिकी के प्रसार के माध्यम से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं में एकीकरण होता है।

भूमंडलीकृत विश्व के बनने की प्रक्रिया का एक लंबा इतिहास रहा है जिसमें विभिन्न देशों के बीच व्यापार, निवेश, पर्यटन, प्रौद्योगिकी, सूचना और संचार, शिक्षा, संगठनात्मक विकास और साझा संस्कृति को मजबूत किया जाता है।

➡ प्राचीन काल से ही यात्री, व्यापारी, पुजारी और तीर्थयात्री ज्ञान, अवसरों और आध्यात्मिक शांति के लिए या उत्पीड़न जीवन से बचने के लिए दूर-दूर यात्राएँ करते रहे है। इन्हीं यात्राओं में लोग तरह-तरह की चीजें, पैसा, मूल्य-मान्यताएँ, हुनर, विचार, आविष्कार और कीटाणु व बीमारियाँ भी साथ लेकर चलते रहे हैं।

रेशम मार्ग (सिल्क रुट) से जुड़ती दुनिया

ईसा पूर्व के समय से रेशम मार्ग ज़मीन या समुद्र से होकर गुज़रने वाले ये रास्ते एशिया के विभिन्न क्षेत्रों को एक-दूसरे से जोड़ने के साथ यूरोप और उत्तरी अफ़्रीका से भी जोड़ते थे। जो लगभग 15वीं सदी तक अस्तित्व में रहे।

  • इसी रास्ते से चीनी पॉटरी और भारत व दक्षिण-पूर्व एशिया के कपड़े व मसाले दुनिया के दूसरे भागों में पहुँचते थे। वापसी में सोने-चाँदी जैसी कीमती धातुएँ यूरोप से एशिया पहुँचती थीं। 
  • शुरुआती काल के ईसाई मिशनरी, कुछ सदी बाद मुस्लिम धर्मोपदेशक और बौद्ध धर्म भी इसी मार्ग से दुनिया भर में फैला।

भोजन की यात्रा : स्पैघेत्ती और आलू

➡ प्राचीन काल से ही खाद्य पदार्थों का भी दूर देशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान होता रहा है। माना जाता है कि नूडल्स चीन से पश्चिम में पहुँचे और वहाँ उन्हें से स्पैघेत्ती का जन्म हुआ, या फिर पास्ता अरब यात्रियों के साथ 5वीं सदी में सिसली (इटली का एक टापू) पहुँचा।

➡ आलू, सोया, मूँगफली, मक्का, टमाटर, मिर्च, शकरकंद जैसे खाद्य पदार्थ यूरोप और एशिया में तब पहुँचे जब क्रिस्टोफर कोलंबस गलती से अज्ञात महाद्वीपों (अमेरिका) में पहुँच गया था।

  • सिर्फ आलू के इस्तेमाल से यूरोप के ग़रीबों की ज़िंदगी बदल गई। उनका भोजन बेहतर हो गया और उनकी औसत उम्र बढ़ने लगी।
  • 1840 के दशक में (आयरलैंड) आलू की फ़सल खराब होने के कारण लाखों लोग भुखमरी के कारण मारे गए।

विजय, बीमारी और व्यापार

16वीं सदी में यूरोपीय जहाज़ियों ने एशिया तक का समुद्री रास्ता और पश्चिमी सागर को पार करते हुए अमेरिका ढूँढ लिया था। अमेरिका की विशाल भूमि और बेहिसाब फ़सलें व खनिज पदार्थ हर दिशा में पहुँचने लगे थे।

  • पेरू और मैक्सिको के खानों के क़ीमती धातुओं (खासतौर से चाँदी) ने भी यूरोप की संपदा को बढ़ाया और पश्चिम एशिया के साथ के व्यापार को गति प्रदान की।
  • 17वीं सदी तक पूरे यूरोप में दक्षिण अमेरिका की धन-संपदा के क़िस्सों में एल डोराडो को सोने का शहर बताया गया।
  • 16वीं सदी के मध्य तक पुर्तगाली और स्पेनिश सेनाओं ने अमेरिका को उपनिवेश बनाना शुरू कर दिया था।

➡ शक्तिशाली हथियार के तौर पर चेचक जैसे कीटाणु जो स्पेनिश सैनिकों और अफ़सरों के साथ वहाँ पहुँचे थे। जो अमेरिका के लोगों के लिए मारक साबित हुई। यह संक्रमण पूरे महाद्वीप में फैल गया। जिसने पूरे समुदायों को खत्म कर डाला।

19वीं सदी तक यूरोप में गरीबी और भूख का ही साम्राज्य था।
  • शहरों में बेहिसाब भीड़ और बीमारियों का बोलबाला था।
  • धार्मिक असंतुष्टों को कड़ा दंड दिया जाता था।
  • इस वजह से हज़ारों लोग यूरोप से भागकर अमेरिका जाने लगे।

➡ 18वीं सदी तक अमेरिका में अफ़्रीका से पकड़ कर लाए गुलामों को काम में झोंक कर यूरोपीय बाज़ारों के लिए कपास और चीनी का उत्पादन किया जाता था।

  • 18वीं सदी का काफ़ी समय बीतने के बाद भी चीन और भारत को दुनिया का सबसे धनी देश कहा जाता था।
  • लेकिन 15वीं सदी से चीन के दूसरे देशों के साथ संबंध कम करने के कारण यूरोप विश्व व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र बन गया।

उन्नीसवीं शताब्दी (1815-1914)

19वीं सदी से आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और तकनीकी कारकों ने पूरे के पूरे समाजों को बदल दिया और विदेशी संबंधों को नया रूप दिया। अर्थशास्त्रियों ने अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक विनिमय में तीन तरह की गतियों या प्रवाहों का उल्लेख किया।

  1. व्यापार: 19वीं सदी में मुख्य रूप से वस्तुओं (जैसे कपड़ा या गेहूँ आदि) के व्यापार तक ही सीमित था।
  2. श्रम: इसमें लोग काम या रोज़गार की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं।
  3. पूँजी: जिसे अल्प या दीर्घ अवधि के लिए दूर-दराज़ के इलाक़ों में निवेश कर दिया जाता है।

➡ ये तीनों तरह के प्रवाह एक-दूसरे से जुड़ने के साथ टूट भी जाते थे। जो लोगों के जीवन को प्रभावित करते थे। उदाहरण: वस्तुओं या पूँजी की आवाजाही के मुक़ाबले श्रमिकों की आवाजाही पर ज़्यादा शर्तें और बंदिशें लगाई जाती थीं।

विश्व अर्थव्यवस्था का उदय

19वीं सदी में ब्रिटेन खाद्य आत्मनिर्भर होता तो वहाँ के लोगों का जीवनस्तर गिर जाता और सामाजिक तनाव फैलता। इस आशंका के पीछे यह कारण थे।

कॉर्न लॉ: 18वीं सदी के आखिरी दशकों में ब्रिटेन की आबादी तेज़ी से बढ़ने के कारण भोजन की माँग भी बढ़ी। बड़े भूस्वामियों के दबाव में सरकार ने कॉर्न लॉ के ज़रिए मक्का के आयात पर भी पाबंदी लगा दी थी।

  • खाद्य पदार्थों की ऊँची कीमतों से परेशान उद्योगपतियों और शहरी बाशिंदों ने सरकार को मजबूर कर कॉर्न लॉ समाप्त करवाया। जिससे बहुत कम कीमत पर खाद्य पदार्थों का आयात होने लगा।
  • आयातित खाद्य पदार्थों की लागत कम होने के कारण किसान उनसे मुक़ाबला नहीं कर पाए जिससे विशाल भूभागों पर खेती बंद हो गई। हज़ारों लोग बेरोज़गार हो गए। गाँवों से वे शहरों में या दूसरे देशों में जाने लगे।

➡ 19वीं सदी के मध्य से ब्रिटेन की औद्योगिक प्रगति तेज़ होने से लोगों की आय में वृद्धि हुई। इससे खाद्य पदार्थों का और भी ज़्यादा मात्रा में आयात होने लगा। इसकी पूर्ती के लिए पूर्वी यूरोप, रूस, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया, दुनिया के हर हिस्से में ज़मीनों को साफ़ करके खेती की जाने लगी।

  • खेतिहर इलाक़ों को बंदरगाहों से जोड़ने के लिए रेलवे बनाए गए।
  • ज़्यादा तादाद में माल ढुलाई के लिए नयी गोदियाँ और पुरानी गोदियों को फैलाया गया।
  • नयी जमीनों पर खेती करने के लिए नयी बस्तियाँ बसाई गई।
  • इसके लिए लंदन जैसे वित्तीय केंद्रों से पूँजी आने लगी।
  • अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में मज़दूरी के लिए लोगों को ले जाकर बसाया जाने लगा।
  • 19वीं सदी में यूरोप के लगभग 5 करोड़ लोग अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में जाकर बस गए।
  • खाद्य पदार्थों को पानी के जहाज़ों से दूसरे देशों में पहुँचाया जाता था।
  • इन जहाज़ों पर दक्षिण यूरोप, एशिया, अफ़्रीका और कैरीबियाई द्वीपसमूह के मज़दूरों से बहुत कम वेतन पर काम करवाया जाता था।

➡ इसी तरह ब्रिटिश भारतीय सरकार ने पंजाब की अर्द्ध- रेगिस्तानी परती जमीनों को उपजाऊ बनाने के लिए नहरों का जाल बिछा दिया ताकि निर्यात के लिए गेहूँ और कपास की खेती की जा सके।

  • नयी नहरों की सिंचाई वाले इलाक़ों में पंजाब के अन्य स्थानों के लोगों को लाकर बसाया गया। उनकी बस्तियों को केनाल कॉलोनी (नहर बस्ती) कहा जाता था।

तकनीक की भूमिका

रेलवे, भाप के जहाज़, टेलीग्राफ़, ये सब तकनीकी प्रगति सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारकों का परिणाम होती है। उदाहरण: औपनिवेशीकरण के कारण यातायात और परिवहन साधनों में भारी सुधार किए गए।

  • तेज़ चलने वाली रेलगाड़ियाँ बनीं।
  • बोगियों का भार कम किया गया।
  • जलपोतों का आकार बढ़ा जिससे किसी भी उत्पाद को खेतों से दूर-दूर के बाज़ारों में कम लागत पर और ज़्यादा आसानी से पहुँचाया जा सके।

➡ 1870 के दशक तक अमेरिका से यूरोप को मांस के निर्यात जगह केवल जिंदा जानवर ही भेजे जाते थे जो एक महँगा सौदा था और यूरोप के ग़रीबों की पहुँच से बाहर था।

  • पानी के जहाज़ों में रेफ़्रिजरेशन की तकनीक आने से अब अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया या न्यूजीलैंड, सब जगह से मांस ही यूरोप भेजा जाने लगा।
  • इससे समुद्री यात्रा में आने वाला खर्च कम होने के साथ यूरोप में मांस के दाम भी गिर गए।
  • अब बहुत सारे लोगों के भोजन में आलू और ब्रेड की के साथ मांसाहार (और मक्खन व अंडे) भी शामिल हो गया।
  • जीवनस्थिति सुधरने से देश में शांति स्थापित हुई और दूसरे देशों में साम्राज्यवादी मंसूबों को समर्थन मिला।

उन्नीसवीं सदी के आखिर में उपनिवेशवाद

19वीं सदी के आखिरी दशकों में यूरोपीयों की विजयों से बहुत सारे कष्टदायक आर्थिक, सामाजिक और परिस्थितिकीय परिवर्तन आए। औपनिवेशिक समाजों को विश्व अर्थव्यवस्था में समाहित कर लिया गया।

  • 1885 में यूरोप के ताकतवर देशों की बर्लिन में एक बैठक हुई जिसमें अफ़्रीका के नक़्शे पर सीधी लकीरें खींचकर आपस में बाँट लिया गया था।
  • 19वीं सदी के आखिरी में ब्रिटेन और फ़्रांस ने अपने विदेशी क्षेत्रफल में भारी वृद्धि कर ली थी। बेल्जियम और जर्मनी नई औपनिवेशिक ताक़तों के रूप में उभरा।
  • 1890 के दशक के आखिरी वर्षों में अमेरिका भी औपनिवेशिक ताक़त बन गया।

रिंडरपेस्ट या मवेशी प्लेग

अफ़्रीका में 1890 के दशक में रिंडरपेस्ट बीमारी के बहुत तेज़ी से फैलने के कारण लोगों की आजीविका और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ा।

प्राचीन काल से ही अफ़्रीका में ज़मीन और पालतू पशुओं की कोई कमी नहीं रही जबकि वहाँ की आबादी बहुत कम थी। सदियों तक अफ़्रीकियों की ज़िंदगी इन्हीं के सहारे चलती रही। 19वीं सदी के आखिर में अफ़्रीका में वेतन के पैसे से खरीदने वाले सामान बहुत कम थे।

19वीं सदी के आखिर में यूरोपीय ताक़तें अफ़्रीका के विशाल भूक्षेत्र और खनिज भंडारों की ओर आकर्षित होकर बागानी, खेती और खदानों का दोहन करना चाहते थे। लेकिन वहाँ के लोग वेतन पर काम नहीं करना चाहते थे।

मज़दूरों की भर्ती और उन्हें अपने पास रोकने के लिए मालिकों ने बहुत सारे हथकंडे आज़माएं—
  • उन पर भारी भरकम कर लाद दिए गए जिसका भुगतान करदाता बागानों या खदानों में काम करके कर सकता है।
  • उत्तराधिकार के नए कानून में किसानों के परिवार में केवल एक ही सदस्य को पैतृक संपत्ति मिलेगी।
  • खानकर्मियों को बाड़ों में बंद कर उनके खुलेआम घूमने-फिरने पर पाबंदी लगा दी गई।

➡ तभी वहाँ रिंडरपेस्ट नामक विनाशकारी पशु रोग फैल गया। यह बीमारी सबसे पहले 1880 के दशक के आखिर सालों में पूर्वी अफ़्रीका में एरिट्रिया, फिर पश्चिमी अफ़्रीका, 1892 में अटलांटिक तट, 5 साल बाद केप (अफ़्रीका का धुर दक्षिणी हिस्सा) तक भी पहुँच गई।

  • पशुओं के खत्म होने से अफ़्रीकियों के रोज़ी-रोटी के साधन खत्म हो गए।

अपनी सत्ता को और मज़बूत करने तथा अफ़्रीकियों को श्रम बाज़ार में ढकेलने के लिए वहाँ के बागान, खान मालिकों और औपनिवेशिक सरकारों ने बचे-खुचे पशु भी अपने क़ब्ज़े में ले लिए। 

भारत से अनुबंधित श्रमिकों का जाना

19वीं सदी में भारत और चीन के लाखों मज़दूरों को बागानों, खदानों और सड़क व रेलवे निर्माण परियोजनाओं में काम करने के लिए दूर-दूर के देशों में ले जाया जाता था।

  • भारतीय अनुबंधित (गिरमिटिया) श्रमिकों को अनुबंध या एग्रीमेंट के तहत ले जाया जाता था। शर्त के अनुसार मज़दूर अपने मालिक के बागानों में 5 साल काम करने के बाद स्वदेश लौट सकता था।

➡ 19वीं सदी के मध्य पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य भारत और तमिलनाडु के सूखे इलाक़ों में कुटीर उद्योग खत्म हो रहे थे, ज़मीन का भाड़ा बढ़ गया था, खानों और बागानों के लिए ज़मीनों को साफ़ किया जा रहा था।

  • गरीब किसान बँटाई पर ज़मीन ले लेते थे पर भाड़ा न चुकाने के कारण उन पर क़र्ज़ा बढ़ता जाता था। इस कारण भारत के ज़्यादातर अनुबंधित श्रमिक इन्हीं इलाक़ों से जाते थे।

➡ इन्हें मुख्य रूप से कैरीबियाई द्वीप समूह (त्रिनिदाद, गुयाना और सुरीनाम), मॉरिशस व फ़िजी, तमिल आप्रवासी कप सीलोन और मलाया, और बहुत सारे श्रमिकों को असम के चाय बागानों में काम करने के लिए ले जाया जाता था।

  • मज़दूरों की भर्ती का काम मालिकों के एजेंट द्वारा कमिशन पर किया जाता था।
  • बहुत सारे आप्रवासी अपने गाँव में होने वाले उत्पीड़न और ग़रीबी से बचने के लिए भी इन अनुबंधों को मान लेते थे।
  • एजेंट भी भावी आप्रवासियों को झूठी जानकारी के साथ ले जाते थे।
  • किसी मज़दूर के राजी न होने पर एजेंट द्वारा उसका अपहरण तक कर लिया जाता था।

➡ इस अनुबंध व्यवस्था को बहुत सारे लोगों ने “नयी दास प्रथा” का नाम दिया है।  बागानों में या कार्यस्थल पर पहुँचने के बाद मज़दूरों को वहाँ की हालात का पता चलता था।

  • नयी जगह की जीवन एवं कार्य स्थितियाँ कठोर थीं।
  • मज़दूरों के पास क़ानूनी अधिकार कहने भर भी कुछ नहीं था।
  • बहुत सारे तो जंगलों में भाग गए, मगर पकड़े जाने पर उन्हें भारी सज़ा दी जाती थी।

➡ बहुतों ने अपनी पुरानी और नई संस्कृतियों का सम्मिश्रण करते हुए व्यक्तिगत और सामूहिक आत्माभिव्यक्ति के नए रूप खोज लिए। जैसे: त्रिनिदाद में मुहर्रम के सालाना जुलूस को एक विशाल मेले (होसे) का रूप दे दिया गया। उसमें सभी धर्मों व नस्लों के मज़दूर हिस्सा लेते थे।

  • इसी प्रकार रास्ताफारियानवाद नामक विद्रोही धर्म में भी भारतीय आप्रवासियों और कैरीबियाई द्वीपसमूह के संबंध दिखते है।
  • भारतीय आप्रवासियों के पहुँचने के बाद त्रिनिदाद और गुयाना में मशहूर “चटनी म्यूजिक़” सामने आई।
  • सांस्कृतिक समागम के ये स्वरूप एक नई वैश्विक दुनिया के उदय की प्रक्रिया का अंग थे। 

ज़्यादातर अनुबंधित श्रमिक अनुबंध समाप्त हो जाने के बाद भी वापस नहीं लौटे। जो वापस लौटे कुछ समय बाद अपने नए ठिकानों पर वापस चले गए। इसी कारण इन देशों में भारतीय मूल के लोगों की संख्या ज़्यादा पाई जाती है।

  • 20वीं सदी के शुरुआती सालों से ही भारतीय राष्ट्रवादी नेता इस अपमानजनक और क्रूर प्रथा का विरोध करते रहे। अंततः 1921 में इसे खत्म कर दिया गया।
  • लेकिन इसके बाद भी कई दशक तक बहुत भारतीय अनुबंधित मज़दूरों के वंशज कैरीबियाई द्वीप समूह में अल्पसंख्यकों का जीवन जीते रहे। वहाँ के लोग उन्हें “कुली” मानते थे। 

विदेश में भारतीय उद्यमी

बड़े बागानों को फ़सलें उगाने के लिए बाज़ार और बैंकों से पैसा मिल जाता था लेकिन छोटे-मोटे किसानों को देशी साहूकार और महाजन ही पैसे देते थे।

  • शिकारीपूरी श्रॉफ और नट्टूकोट्टई चेट्टियार मध्य एवं दक्षिण पूर्व एशिया में निर्यातोन्मुखी खेती के लिए कर्ज़े देते थे। उन्होंने व्यावसायिक संगठनों और क्रियाकलापों के देशी स्वरूप भी विकसित कर लिए थे।

➡ अफ़्रीका में यूरोपीय उपनिवेशकारों के पीछे-पीछे भारतीय व्यापारी और महाजन भी जा पहुँचे। 1860 के दशक से उन्होंने दुनिया भर के बंदरगाहों पर अपने बड़े-बड़े एंपोरियम खोल दिए। जिसमें सैलानियों को आकर्षक स्थानीय और विदेशी चीज़ें मिलती थीं।

भारतीय व्यापार, उपनिवेशवाद और वैश्विक व्यवस्था

भारत के कपास का यूरोपीय देशों को निर्यात होता था परंतु औद्योगीकरण के बाद ब्रिटेन में भी कपास का उत्पादन बढ़ने के कारण वहाँ के उद्योगपतियों ने सरकार पर दबाव डालकर कपास के आयात को रोक दिया।

  • ब्रिटिश में सीमा शुल्क लगने के बाद भारतीय कपड़ों को दूसरे अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों से भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा।
  • सूती कपड़े का निर्यात लगातार घटकर 1800 के आसपास 30%, 1815 में 15% और 1870 तक केवल 3% रह गया था।
  • निर्मित वस्तुओं का निर्यात घटा परंतु 1812 से 1871 के बीच कच्चे कपास का निर्यात 5% से बढ़कर 35% तक पहुँच गया था।

कपड़ों की रँगाई के लिए नील का भी कई दशक तक बड़े पैमाने पर निर्यात होता था। ब्रिटेन की सरकार भारत में अफ़ीम की खेती करवा कर चीन को निर्यात करती थी। इससे जो पैसा मिलता था उसके बदले चीन से ही चाय और दूसरे पदार्थों का आयात किया जाता था।

19वीं सदी में भारतीय बाज़ारों में ब्रिटिश औद्योगिक उत्पादों की बाढ़ आ गई थी। भारत से ब्रिटेन और शेष विश्व को निर्यात होने वाले खाद्यान्न व कच्चे मालों में इज़ाफ़ा हुआ। भारत का ब्रिटेन के साथ आपसी व्यापार में हमेशा ब्रिटेन को ही फ़ायदा (व्यापार अधिशेष) होता था।

  • ब्रिटेन इस मुनाफ़े से दूसरे देशों के साथ होने वाले व्यापारिक घाटे की भरपाई, ब्रितानी अफ़सरों और व्यापारियों द्वारा अपने घर में भेजी गई निजी रकम, भारतीय बाहरी क़र्ज़े पर ब्याज और भारत में काम कर चुके ब्रितानी अफ़सरों की पेंशन देता था। 

महायुद्धों के बीच अर्थव्यवस्था

पहला महायुद्ध यूरोप में लड़ा गया था। परंतु उसके दुष्प्रभाव पूरी दुनिया में पड़े। युद्ध के कारण संकट में गई विश्व अर्थव्यवस्था को उभरने में तीन दशक से भी ज़्यादा समय लग गया। इस दौरान पूरी दुनिया में आर्थिक एवं राजनीतिक अस्थिरता बनी रही।

युद्धकालीन रूपांतरण

पहला विश्वयुद्ध दो खेमों (मित्र राष्ट्र ㅡ ब्रिटेन, फ़्रांस और रूस; केंद्रीय शक्तियाँ ― जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और ऑटोमन तुर्की) के बीच लड़ा गया था।

  • इस युद्ध में दुनिया के औद्योगिक राष्ट्र एक-दूसरे के शत्रुओं को ख़त्म करने के लिए आधुनिक औद्योगिक शक्ति का इस्तेमाल कर रहे थे।
  • मशीनगानों, टैंको, हवाई जहाज़ों और रासायनिक हथियारों का भयानक पैमाने पर इस्तेमाल किया गया था।
  • दुनिया भर से असंख्यक सिपाहियों की भर्ती करके उन्हें जलपोतों और रेलगाड़ियों के ज़रिए युद्ध के मोर्चों पर ले जाया जाता था।
  • युद्ध में 90 लाख से ज़्यादा लोग मारे गए और 2 करोड़ घायल हुए।
  • इस महाविनाश के कारण यूरोप में कामकाज के लायक लोगों की संख्या कम होने के कारण परिवारों की आय भी गिर गई।
  • युद्ध संबंधी सामग्री का उत्पादन करने के लिए उद्योगों का पुनर्गठन किया गया।
  • मर्दों के मोर्चे पर जाने के कारण अब घर के बाहर का काम भी औरतों को सँभालना पड़ता था।

इस युद्ध के लिए ब्रिटेन को अमेरिकी बैंकों और अमेरिकी जनता से भारी क़र्ज़ा लेना पड़ा। फलस्वरुप अमेरिका अब क़र्ज़दार की बजाय क़र्ज़दाता देश बन गया।

युद्धोत्तर सुधार

युद्ध से पहले ब्रिटेन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था। युद्ध के समय भारी विदेशी क़र्ज़ों और भारत तथा जापान में उद्योग विकसित होने के कारण युद्ध के बाद भारतीय बाजार में पहले वाली वर्चस्वशाली स्थिति प्राप्त करना मुश्किल था।

  • युद्ध के कारण माँग, उत्पादन और रोज़गारों में भारी इज़ाफ़ा हुआ था। पर इस आर्थिक उत्साह के शांत होने पर उत्पादन गिरने लगा और बेरोज़गारी बढ़ने लगी।
  • सरकार ने भारी-भरकम युद्ध संबंधी व्यय में भी कटौती शुरू कर दी। इन सारे प्रयासों से रोज़गार भारी तादाद में खत्म हुए।

➡ युद्ध से पहले पूर्वी यूरोप विश्व बाज़ार में गेहूँ की आपूर्ति करने वाला एक बड़ा केंद्र था। युद्ध के दौरान आपूर्ति अस्त-व्यस्त होने पर कनाडा, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में गेहूँ के पैदावार अचानक बढ़ने लगी।

  • लेकिन युद्ध समाप्त होते ही पूर्वी यूरोप में गेहूँ की पैदावार सुधरने से विश्व बाजारों में गेहूँ की अति होने के कारण अनाज की कीमतें गिर गईं, ग्रामीण आय कम हो गई और किसान गहरे क़र्ज़ संकट में फँस गए।

बड़े पैमाने पर उत्पादन और उपभोग

1920 के दशक की अमेरिकी अर्थव्यवस्था की विशेषता बृहत उत्पादन था। इसके प्रणेता कार निर्माता हेनरी फ़ोर्ड थे। उन्होंने शिकागो के एक बूचड़खाने की असेंबली लाइन की तर्ज़ पर डेट्रॉयट के अपने कारखाने में भी आधुनिक असेंबली लाइन स्थापित की थी। इस पद्धति से बनी पहली कार टी-मॉडल थी।

  • शुरु में फ़ोर्ड फ़ैक्ट्री के मज़दूरों को असेंबली लाइन की रफ़्तार को नियंत्रण न कर पाने की वजह से थकान झेलना मुश्किल हुआ। जिससे बहुत सारे मज़दूर काम छोड़ गए।
  • इससे निपटने के लिए फ़ोर्ड ने जनवरी 1914 से वेतन दोगुना (5 डॉलर प्रतिदिन) कर दिया। साथ में उन्होंने अपने कारखानों में ट्रेन यूनियन गतिविधियों पर भी पाबंदी लगा दी।
  • वेतन बढ़ाने से हेनरी फ़ोर्ड के मुनाफ़े में आई कमी की भरपाई के लिए अपनी असेंबली लाइन की रफ़्तार बार-बार बढ़ने लगे। इससे मज़दूरों पर काम का बोझ लगातार बढ़ता रहता था।

➡ इस पद्धति को पूरे अमेरिका में, और बीस के दशक में यूरोप में भी उनकी नक़ल की जाने लगी। इससे चीजों की लागत और कीमत में कमी आ गई।

  • बेहतर वेतन के चलते अब बहुत सारे मज़दूर भी कार खरीद सकते थे। 1919 में अमेरिका में 20 लाख कारों का उत्पादन हुआ जो 1929 में बढ़कर 50 लाख से ऊपर जा पहुँचा।
  • इसके साथ ही बहुत सारे लोग फ़्रिज, वॉशिंग मशीन, रेडियो, ग्रामोफ़ोन प्लेयर्स आदि “हायर-परचेज़” व्यवस्था के तहत खरीदने लगे।
  • 1920 के दशक में मकानों के निर्माण और घरेलू ज़रूरत की चीज़ों में निवेश से रोज़गार और माँग बढ़ने से दूसरे उपभोग भी बढ़े।
  • इसके लिए ज़्यादा निवेश करने से नए रोज़गार व आमदनी में वृद्धि होने लगी।

1923 में अमेरिका शेष विश्व को पूँजी का निर्यात करके दुनिया में सबसे बड़ा क़र्ज़दाता देश बन गया। अमेरिका द्वारा आयात और पूँजी निर्यात ने यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं को संकट से उभरने में मदद की। लेकिन 1929 से दुनिया को आर्थिक महामंदी का सामना करना पड़ा।

महामंदी

आर्थिक महामंदी 1929 से शुरू होकर 1930 के दशक के मध्य तक बना रहा। इस दौरान दुनिया के ज़्यादातर हिस्सों के उत्पादन, रोज़गार, आय और व्यापार में भयानक गिरावट दर्ज की गई। इस मंदी का सबसे बुरा असर कृषि क्षेत्रों और समुदायों पर पड़ा क्योंकि औद्योगिक उत्पादों की तुलना में खेतिहर उत्पादों की कीमतों में ज़्यादा भारी और ज़्यादा समय तक कमी बनी रही।

इस महामंदी के कई कारण थे:—

1. कृषि क्षेत्र में अति उत्पादन होने के कारण उत्पादों की कीमतें गिरने से स्थिति और खराब हो गई थी।

  • किसानों ने आमदनी बढ़ाने के लिए उत्पादन बढ़ाने का प्रयास किया ताकि कम कीमत पर ही सही आय स्तर बना रहे।
  • फलस्वरुप, बाज़ार में कृषि उत्पादों की और भी अति बढ़ने के कारण कीमतें और नीचे चली गईं। अब खरीदारों के अभाव में कृषि उपज पड़ी-पड़ी सड़ने लगी।

2. 1920 के दशक के मध्य में बहुत सारे देशों ने अमेरिका से क़र्ज़े लेकर अपनी निवेश संबंधी ज़रूरतों को पूरा किया था। लेकिन महामंदी आने से अमेरिकी क़र्ज़े पर सबसे ज़्यादा निर्भर देशों के सामने गहरा संकट आ गया।

  • इस कारण यूरोप में कई बड़े बैंक धराशाही हो गए। कई देशों की मुद्रा की कीमत बुरी तरह गिर गई।
  • लैटिन अमेरिका और अन्य स्थानों पर कृषि एवं कच्चे मालों की क़ीमतें तेज़ी से गिरने लगीं।
  • अमेरिकी सरकारी इस महामंदी से अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए आयातित वस्तुओं पर दो गुना सीमा शुल्क वसूलने लगी।

➡ कीमतों में कमी और मंदी की आशंका को देखते हुए अमेरिकी बैंकों ने घरेलू क़र्ज़े देना बंद कर दिया। जो क़र्ज़े दिए जा चुके थे उनकी वसूली तेज़ कर दी गई।

  • किसान के उपज नहीं बेच पाने के कारण परिवार तबाह हो गए, कारोबार ठप पड़ गए।
  • अमेरिका के बहुत सारे परिवार के क़र्ज़े न चुका पाने के कारण उनके मकान, कार और सारी ज़रूरी चीजें ज़ब्त कर ली गईं।
  • बेरोज़गारी बढ़ने से लोग काम की तलाश में दूर-दूर तक जाने लगे।

निवेश से अपेक्षित लाभ न पा सकने, क़र्ज़े वसूल न कर पाने और जमाकर्ताओं की जमा पूँजी न लौटा पाने के कारण हज़ारों बैंक दिवालिया हो गए और 1933 तक 4,000 से ज़्यादा बैंक बंद कर दिए गए। 1935 में जाकर ज़्यादातर औद्योगिक देशों में आर्थिक संकट से उबरने के संकेत दिखे।

भारत और महामंदी

20वीं सदी की शुरुआत तक वैश्विक अर्थव्यवस्था के एकीकृत होने से दुनिया भर में लोगों की ज़िंदगी, अर्थव्यवस्थाएँ और समाज प्रभावित हो रहे थे। अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कीमतें गिरने से 1928 से 1934 के बीच भारत के आयात-निर्यात घटकर आधे (भारत में गेहूँ की कीमत 50% गिर गई) रह गए थे।

  • कृषि उत्पादों की कीमतें गिरने पर भी सरकार ने लगान वसूली में छूट नहीं दी। इस कारण शहरी निवासियों के मुक़ाबले किसानों और काश्तकारों को ज़्यादा नुक़सान हुआ।
  • बंगाल से टाट का निर्यात बंद होने के कारण कच्चे पटसन की कीमत 60% से भी ज़्यादा गिर गई।
  • जिन किसानों ने उपज बढ़ाने के लिए क़र्ज़े लिए थे। उपज का सही मोल न मिलने पर वे दिनोंदिन कर्जों में डूबते गए।
  • खर्चे पूरे करने के चक्कर में उनकी बचत खत्म हो चुकी थी, ज़मीन सूदखोरों के पास गिरवी पड़ी थी, घर में जो भी गहने-ज़ेवर थे बिक चुके थे।

➡ मंदी के इन्हीं सालों में भारत के सोने का निर्यात करने से ब्रिटेन की आर्थिक दशा सुधरी लेकिन भारतीय किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीन्स का मानना था कि भारतीय सोने के निर्यात से भी वैश्विक अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में काफ़ी मदद मिली।

  • इस दौरान शहर के जमींदारों और मध्यवर्गीय वेतनभोगी कर्मचारियों की हालत ठीक रही। राष्ट्रवादी खेमे के दबाव में उद्योगों की रक्षा के लिए सीमा शुल्क बढ़ा दिए गए थे जिससे औद्योगिक क्षेत्र में निवेश में तेज़ी आई।

विश्व अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण : युद्धोत्तर काल

दूसरा विश्व युद्ध (1939-45) दो बड़े खेमों के बीच (धुरी शक्तियाँ ㅡ नात्सी जर्मनी, जापान और इटली + मित्र राष्ट्रों ㅡ ब्रिटेन, सोवियत संघ, फ़्रांस और अमेरिका) ज़मीन, हवा और पानी में असंख्यक मोर्चों पर लड़ा गया था।

  • माना जाता है कि इस जंग के कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से करीब 6 करोड़ लोग (1939 की वैश्विक जनसंख्या का लगभग 3%) मारे गए और करोड़ों लोग घायल हुए।
  • यूरोप और एशिया के विशाल भूभाग तबाह हुए। कई शहर हवाई बमबारी या लगातार गोलाबारी के कारण मिट्टी में मिल गए। इस युद्ध में बेहिसाब आर्थिक और सामाजिक तबाही हुई।
  • युद्धोत्तर काल में पुनर्निर्माण का काम दो बड़े प्रभावों के साये में आगे बढ़ा। पश्चिम विश्व में अमेरिका और पूर्व में सोवियत संघ आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से एक वर्चस्वशाली ताकत बन चुका था।

युद्धोत्तर बंदोबस्त और ब्रेटन-वुड्स संस्थान

दो महायुद्धों के बीच मिले आर्थिक अनुभवों से अर्थशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों ने दो हम सबक़ निकाले।

1. बृहत उत्पादन पर आधारित किसी औद्योगिक समाज को व्यापक उपभोग के बिना क़ायम नहीं रखा जा सकता। इसके लिए आमदनी काफ़ी ज़्यादा और स्थिर होना आवश्यक था। और आर्थिक स्थिरता केवल सरकारी हस्तक्षेप के ज़रिए सुनिश्चित की जा सकती थी।

2. पूर्ण रोज़गार का लक्ष्य, सरकार के पास वस्तुओं, पूँजी और श्रम की आवाजाही को नियंत्रित करने की ताक़त से हासिल किया जा सकता है।

युद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य औद्योगिक विश्व में आर्थिक स्थिरता एवं पूर्ण रोज़गार बनाए रखना था।

➡ जुलाई 1944 में न्यू हैम्पशर के ब्रेटन वुड्स सम्मेलन (अमेरिका) में सदस्य देशों के विदेश व्यापार में लाभ और घाटे से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और युद्धोत्तर पुनर्निर्माण के लिए पैसे का इंतज़ाम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक (विश्व बैंक) का गठन किया गया।

  • विश्व बैंक और आई.एम.एफ. ने 1947 में औपचारिक रूप से काम करना शुरू किया। इन संस्थाओं की निर्णय प्रक्रिया पर पश्चिमी औद्योगिक देशों का नियंत्रण रहता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था राष्ट्रीय मुद्राओं और मौद्रिक व्यवस्थाओं को एक-दूसरे से जोड़ने वाली व्यवस्था है। ब्रेटन वुड्स व्यवस्था में राष्ट्रीय मुद्राएँ, जैसे भारतीय मुद्राーरुपयाーडॉलर के साथ एक निश्चित विनिमय दर से बँधा हुआ था।

प्रारंभिक युद्धोत्तर वर्ष

ब्रेटन वुड्स व्यवस्था ने पश्चिमी औद्योगिक राष्ट्रों और जापान के लिए व्यापार तथा आय में वृद्धि का सूत्रपात किया। 1950 से 1970 के बीच विश्व व्यापार की विकास दर सालाना 8% से भी ज़्यादा रही।

  • औद्योगिक देशों में बेरोज़गारी औसतन 5% से भी कम रही।
  • इन दशकों में तकनीक और उद्यम का विश्वव्यापी प्रसार हुआ।
  • विकासशील देशों ने विकसित औद्योगिक देशों के बराबर पहुँचने के लिए आधुनिक तकनीक से चलने वाले संयंत्रों और उपकरणों के आयात पर बेहिसाब पूँजी का निवेश किया।

अनौपनिवेशीकरण और स्वतंत्रता

दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद भी दुनिया का एक बहुत बड़ा भाग यूरोपीय औपनिवेशिक शासन के अधीन था। अगले दो दशकों में एशिया और अफ़्रीका के ज़्यादातर उपनिवेश स्वतंत्र, स्वाधीन राष्ट्र बनने के बाद ग़रीबी व संसाधनों की कमी से जूझ रहे थे।

  • आई.एम.एफ. और विश्व बैंक का गठन भूतपूर्व उपनिवेशों में गरीबी की समस्या और विकास की कमी से निपटने के लिए नहीं बल्कि औद्योगिक देशों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बना था।
  • लेकिन यूरोप और जापान ने बिना इसकी मदद के अपनी अर्थव्यवस्थाओं का पुनर्गठन किया था इसी कारण 50 के दशक के आखिरी सालों में ये संस्थान विकासशील देशों पर भी ध्यान देने लगे थे।

➡ अनौपनिवेशीकरण के बहुत सालों के बाद भी ब्रिटेन और फ़्रांस के रह चुके उपनिवेशों की खनिज संपदा और ज़मीन पर अभी भी उनकी कंपनियों का ही नियंत्रण था।

  • विकासशील देशों को 50 और 60 के दशक में पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं की प्रगति से कोई लाभ न मिलने पर वे एक अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रणाली और समूह 77 (जी-77) के रूप में संगठित हो गए।
  • एन.आई.ई.ओ. व्यवस्था से उनका आशय था, जिसमें उन्हें अपने संसाधनों पर सही मायनों में नियंत्रण मिले, विकास के लिए अधिक सहायता मिले, कच्चे माल के सही दाम और अपने तैयार मालों को विकसित देशों के बाज़ारों में बेचने के लिए बेहतर पहुँच मिले।

ब्रेटन वुड्स का समापन और वैश्वीकरण की शुरुआत

60 के दशक से ही विदेशों में अपनी गतिविधियों की भारी लागत ने अमेरिका की वित्तीय और प्रतिस्पर्धी क्षमता को कमज़ोर कर दिया था।

  • सोने की तुलना में डॉलर की कीमत गिरने लगी थी।
  • अंततः स्थिर विनिमय दर की व्यवस्था विफल हो गई और प्रवाहमयी या अस्थिर विनिमय दर की व्यवस्था शुरू की गई।

➡ 70 के दशक के मध्य विकासशील देश क़र्ज़े और विकास संबंधी सहायता के लिए अंतर्राष्ट्रीय संसाधनों की शरण ले सकते थे लेकिन पश्चिम व्यावसायिक बैंकों और निजी ऋणदाता संस्थाओं से क़र्ज़ न लेने के लिए बाध्य किया गया।

  • विकासशील विश्व में समय-समय पर क़र्ज़ संकट पैदा होने के कारण आय में गिरावट और गरीबी बढ़ने लगती थी। जैसे: अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका में।

➡ चीन 1949 की क्रांति के बाद विश्व अर्थव्यवस्था से अलग-थलग ही था। परंतु चीन में नयी आर्थिक नीतियों और सोवियत खेमे के बिखराव तथा पूर्वी यूरोप में सोवियत शैली की व्यवस्था समाप्त हो जाने के बाद बहुत सारे देश दोबारा विश्व अर्थव्यवस्था का अंग बन गए।

  • चीन जैसे देशों में वेतन तुलनात्मक रूप से कम होने के कारण विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने जमकर निवेश करना शुरू कर दिया।
  • उद्योगों को कम वेतन वाले देशों में ले जाने से वैश्विक व्यापार और पूँजी प्रभावों पर भी असर पड़ा।

पिछले दो दशक में भारत, चीन और ब्राज़ील आदि देशों की अर्थव्यवस्थाओं में आए भारी बदलावों के कारण दुनिया का आर्थिक रूप भी बदल चुका है। 

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इसे भी पढ़े 

खण्ड Ⅰ : घटनाएँ और प्रक्रियाएँ 

अध्याय 1: यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय 

अध्याय 2: भारत में राष्ट्रवाद 

खण्ड Ⅱ : जीविका, अर्थव्यवस्था एवं समाज 

अध्याय 4: औद्योगीकरण का युग 

खण्ड III : रोज़ाना की ज़िंदगी, संस्कृति और राजनीति 

अध्याय 5: मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया 

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