अध्याय 2: भारत में राष्ट्रवाद
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Toggleभारत में आधुनिक राष्ट्रवाद का उदय उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के साथ हुआ था। उत्पीड़न और दमन के साझा भाव ने विभिन्न समूहों को एक-दूसरे से बाँध तो दिया।
- लेकिन हर वर्ग और समूह के उपनिवेशवाद के साथ अलग-अलग अनुभव थे। इसलिए उनके स्वतंत्रता के मायने भी भिन्न थे।
- महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने इन समूहों को इकट्ठा करके एक विशाल आंदोलन खड़ा किया। परंतु इस एकता में भी टकराव थे।
पहला विश्वयुद्ध, ख़िलाफ़त और असहयोग
पहले विश्व युद्ध ने एक नई आर्थिक और राजनीतिक स्थिति पैदा कर दी थी। इसके कारण रक्षा व्यय में भारी इज़ाफ़ा हुआ।
- खर्च की भरपाई करने के लिए युद्ध के नाम पर क़र्ज़े लिए गए और करों में वृद्धि की गई।
- सीमा शुल्क बढ़ा दिया गया और आयकर शुरू किया गया।
- 1913 से 1918 के बीच क़ीमतें दोगुना होने के कारण आम लोगों की मुश्किलें बढ़ गई थीं।
- गाँवों में सिपाहियों की जबरन भर्ती के कारण ग्रामीण इलाक़ों में व्यापक गुस्सा था।
- 1918-19 और 1920-21 में देश के बहुत सारे हिस्सों में फसल खराब होने के कारण खाद्य पदार्थों का भारी अभाव पैदा हो गया। उसी समय फ़्लू की महामारी फैल गई।
- 1921 की जनगणना के अनुसार दुर्भिक्ष और महामारी के कारण 120-130 लाख लोग मारे गए।
सत्याग्रह का विचार
महात्मा गांधी ने जनवरी 1915 में भारत लौटने से पहले दक्षिण अफ़्रीका में नस्लभेदी सरकार को सत्याग्रह आंदोलन के ज़रिए हराया था।
➡ सत्याग्रह : सत्य की शक्ति पर आग्रह और सत्य की खोज पर ज़ोर देना। इसका अर्थ यह था कि अगर आपका उद्देश्य सच्चा है, संघर्ष अन्याय के ख़िलाफ़ है तो आप बिना शारीरिक बल के शत्रु से मुक़ाबला कर सकते हैं। केवल अहिंसा के सहारे भी संघर्ष में सफल हो सकते है। इसके लिए दमनकारी शत्रु की चेतना झिंझोड़ना होगा। गांधीजी का विश्वास था कि अहिंसा का यह धर्म सभी भारतीयों को एकता की सूत्र में बाँध सकता है।
भारत आने के बाद गांधीजी ने कई स्थानों पर सत्याग्रह आंदोलन चलाए।
- 1917 में (बिहार-चंपारण) दमनकारी बागान व्यवस्था के ख़िलाफ़ किसानों को संघर्ष के लिए प्रेरित किया।
- 1917 में (गुजरात-खेड़ा जिला) फ़सल खराब हो जाने और प्लेग की महामारी के कारण लगान वसूली में ढील के लिए सत्याग्रह आंदोलन।
- 1918 में (अहमदाबाद) सूती कपड़ा कारखानों के मज़दूरों के बीच सत्याग्रह आंदोलन।
रॉलट एक्ट
1919 में इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल द्वारा रॉलट एक्ट कानून पारित किया गया था। इस कानून के ज़रिए सरकार को राजनीतिक गतिविधियों को कुचलने और क़ैदियों को 2 साल तक बिना मुक़दमा चलाए जेल में बंद रखने का अधिकार मिल गया था।
गांधीजी ने रॉलट एक्ट के ख़िलाफ़ एक राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह आंदोलन को 6 अप्रैल को एक हड़ताल से शुरू किया।
- विभिन्न शहरों में रैली-जुलूसों का आयोजन किया गया।
- रेलवे वर्कशॉप्स में कामगार हड़ताल पर चले गए।
- रेलवे व टेलीग्राफ़ जैसी संचार सुविधाओं के भंग हो जाने की आशंका से भयभीत अंग्रेजों ने राष्ट्रवादियों पर दमन शुरू कर दिया।
- अमृतसर में बहुत सारे स्थानीय नेताओं को हिरासत में ले लिया गया।
10 अप्रैल को पुलिस ने अमृतसर में एक शांतिपूर्ण जुलूस पर गोली चला दी। और लोगों द्वारा बैंकों, डाकखानों और रेलवे स्टेशनों पर हमला करने पर मार्शल लॉ लागू कर दिया गया।
जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड
- 13 अप्रैल को अमृतसर में बहुत सारे गाँव वाले वैसाखी मेले में शामिल होने के लिए जलियाँवाला बाग़ मैदान (चारों तरफ़ से बंद) में जमा हुए थे।
- काफी लोग सरकार द्वारा लागू किए गए दमनकारी कानून का विरोध प्रकट करने के लिए एकत्रित हुए।
- इन लोगों को मार्शल लॉ लागू होने के बारे में पता नहीं था।
- जनरल डायर ने हथियारबंद सैनिकों के साथ पहुँचते ही बाहर निकालने के सारे रास्तों को बंद करके अंधाधुंध गोलियाँ चलवा दीं। जिससे सैंकड़ों लोग मारे गए।
- इस हत्याकांड की खबर फैलते ही उत्तर भारत के बहुत सारे शहरों में लोग सड़कों पर उतरने लगे।
- हड़तालें होने लगीं, लोग पुलिस से मोर्चा लेने लगे और सरकारी इमारतों पर हमला करने लगे।
- सरकार ने इन कार्रवाइयों को कुचलने के लिए लोगों को अपमानित और आतंकित करना शुरू किया।
- सत्याग्रहियों को ज़मीन पर नाक रगड़ने के लिए, सड़क पर घिसट कर चलने और सारे साहिबों को सलाम करने के लिए मजबूर किया गया।
- लोगों को कोड़े मारे गए और गाँवों (गुजराँवाला, पंजाब) पर बम बरसाए गए। हिंसा फैलने के कारण गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया।
➡ रॉलट सत्याग्रह एक बड़ा आंदोलन होने पर भी मुख्य रूप से शहरों और कस्बों तक ही सीमित था। गांधीजी हिंदू-मुसलमानों को एक साथ लाकर ज़्यादा जनाधार वाला आंदोलन चलाना चाहते थे।
➡ प्रथम विश्वयुद्ध में ऑटोमन तुर्की की हार के बाद ख़लीफ़ा पर सख्त शांति संधि थोपी गई। ख़लीफ़ा की तात्कालिक शक्तियों की रक्षा के लिए मार्च 1919 में (मुंबई) ख़िलाफ़त समिति का गठन हुआ।
➡ मोहम्मद अली और शौकत अली बंधुओं के साथ कई युवा मुस्लिम नेताओं के इस मुद्दे पर गांधीजी से चर्चा के बाद सितंबर 1920 में (कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन) गांधीजी ने दूसरे नेताओं को ख़िलाफ़तーअसहयोग आंदोलन को एक साथ शुरू करने के लिए राज़ी किया।
असहयोग की क्यों?
गांधीजी ने अपनी पुस्तक हिंद स्वराज (1909) में कहा था कि भारत में ब्रिटिश शासन भारतीयों के सहयोग से स्थापित हुआ और चल रहा है। अगर वह अपना सहयोग वापस ले लें तो साल भर में ही ब्रिटिश शासन ढहकर स्वराज की स्थापना हो जाएगी।
- लोग सरकार द्वारा दी गई पदवियों को लौटा दें।
- सरकारी नौकरियों, सेना, पुलिस, अदालतों, विधायी परिषदों, स्कूलों और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करें।
- सरकार के दमन करने पर व्यापक सविनय अवज्ञा अभियान भी शुरू करें।
➡ 1920 की गर्मियों में गांधीजी और शौकत अली ने आंदोलन के लिए समर्थन जुटाते हुए देश में यात्राएँ कीं। आंदोलन में हिंसा के भय से कांग्रेस नवंबर 1920 में विधायी परिषद के लिए होने वाले चुनावों के बहिष्कार से हिचकिचा रही थी।
- सितंबर से दिसंबर तक कांग्रेस में बहस के बाद दिसंबर 1920 में (कांग्रेस का नागपुर अधिवेशन) एक समझौते के बाद असहयोग कार्यक्रम को स्वीकृति मिल गई।
आंदोलन के भीतर अलग-अलग धाराएँ
असहयोगーख़िलाफ़त आंदोलन जनवरी 1921 में शुरू हुआ। इस आंदोलन में विभिन्न सामाजिक समूहों ने हिस्सा लिया लेकिन हरेक की अपनी-अपनी आकांक्षाएँ थीं। सभी ने स्वराज को स्वीकार तो किया लेकिन उनके लिए उसके अर्थ अलग-अलग थे।
शहरों में आंदोलन
- हज़ारों विद्यार्थियों ने स्कूल-कॉलेज छोड़ दिए।
- हेडमास्टरों और शिक्षकों ने इस्तीफ़े दे दिए।
- वकीलों ने मुक़दमे लड़ना बंद कर दिया।
- मद्रास के अलावा ज़्यादातर प्रांतों में परिषद चुनावों का बहिष्कार किया गया।
- मद्रास में ग़ैर-ब्राह्मणों की जस्टिस पार्टी का मानना था कि काउंसिल में प्रवेश के ज़रिए उन्हें ब्राह्मणों के बराबर अधिकार मिल सकते हैं।
- विदेशी सामानों का बहिष्कार किया गया।
- शराब की दुकानों की पिकेटिंग (लोगों द्वारा दुकान, फ़ैक्ट्री या दफ़्तर के अंदर जाने का रास्ता रोकना) की गई।
- विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। 1921-1922 के बीच विदेशी कपड़ों का आयात आधा (क़ीमत 102 करोड़ से घटकर 57 करोड़) रह गया।
- व्यापारियों ने विदेशी चीजों का व्यापार करने या विदेशी व्यापार में पैसा लगाने से मना कर दिया।
- लोगों द्वारा केवल भारतीय कपड़ों का इस्तेमाल करने से भारतीय कपड़ा मिलों और हथकरघों का उत्पादन भी बढ़ने लगा।
कुछ समय बाद शहरों में आंदोलन धीमा पड़ने के कई कारण थे:ー
- खादी का कपड़ा मिलों के कपड़ों से महँगा होने के कारण ग़रीब उसे खरीदने में असमर्थ थे।
- वैकल्पिक भारतीय संस्थानों की स्थापना की प्रक्रिया धीमी होने के कारण समस्या पैदा हो गई थी।
- फलस्वरूप, विद्यार्थी और शिक्षक सरकारी स्कूलों में लौटने लगे और वकील दोबारा अदालतों में दिखने लगे।
ग्रामीण इलाक़ों में विद्रोह
अवध में संन्यासी बाबा रामचंद्र (पहले फिजी में गिरमिटिया मज़दूर थे) तलुक़दारों और ज़मींदारों के ख़िलाफ़ किसानों का नेतृत्व कर रहे थे।
- वह किसानों से भारी-भरकम लगान और तरह-तरह के कर वसूलते थे।
- किसानों को बेगार करनी पड़ती थी।
- पट्टेदार के तौर पर उन्हें बार-बार पट्टे की ज़मीन से हटा दिया जाता था।
- किसानों की माँग थी कि लगान कम किया जाए, बेगार खत्म हो और दमनकारी ज़मींदारों का सामाजिक बहिष्कार (नाई-धोबी की सुविधा बंद) किया जाए।
➡ जून 1920 में जवाहर लाल नेहरू के अवध के गाँवों में दौरे के बाद अक्टूबर तक उनके, बाबा रामचंद्र तथा कुछ अन्य लोगों के नेतृत्व में अवध किसान सभा का गठन किया गया।
- महीने भर में इस पूरे इलाक़े के गाँवों में संगठन की 300 से ज़्यादा शाखाएँ बन गई।
- असहयोग आंदोलन शुरू होने पर कांग्रेस ने अवध के किसान संघर्ष को आंदोलन में शामिल करने का प्रयास किया परंतु उनके संघर्ष का स्वरूप भिन्न था।
- 1921 में आंदोलन फैलने पर उन्होंने तालुक़दारों और व्यापारियों के मकानों पर हमले किए।
- बाजारों में लूटपाट की और अनाज के गोदामों पर क़ब्ज़ा कर लिया।
- गांधीजी के नाम पर स्थानीय नेताओं ने किसानों को लगान न भरने और जमीन गरीबों में बाँटने की अपनी सारी कार्रवाइयों और आकांक्षाओं को सही ठहरने लगे।
आदिवासी किसानों ने गांधीजी के संदेश और स्वराज के विचार का अपना ही मतलब निकाला।
- अंग्रेजी सरकार ने बड़े-बड़े जंगलों में लोगों के जाने पर पाबंदी लगा दी थी।
- लोग इन जंगलों में न तो मवेशियों को चरा सकते थे और न ही जलावन के लिए लकड़ी और फल बीन सकते थे।
- रोज़ी-रोटी के साथ परंपरागत अधिकार छिनने से पहाड़ों के लोग परेशान और गुस्सा थे।
➡ सरकार के सड़कों के निर्माण के लिए बेगार करने पर मजबूर करने पर लोगों ने बग़ावत कर दी। उनका नेतृत्व अल्लूरी सीताराम राजू ने किया था।
- उनका कहना था कि वह गांधीजी के असहयोग आंदोलन से प्रेरित हैं। उन्होंने लोगों को खादी पहनने तथा शराब छोड़ने के लिए प्रेरित किया।
- परंतु उनका दावा था कि भारत केवल बलप्रयोग से ही आज़ाद हो सकता है।
- गुडेम विद्रोहियों ने पुलिस थानों पर हमले किए, ब्रिटिश अधिकारियों को मारने की कोशिश की और स्वराज प्राप्ति के लिए गुरिल्ला युद्ध चलाते रहे। अंतत: 1924 में राजू को फाँसी दे दी गई।
बगानों में स्वराज
गांधीजी के विचारों और स्वराज की अवधारणा के बारे में असम के बागानी मज़दूरों का यह मतलब था कि वह जब चाहे अपने गाँव आ-जा सकते थे।
- 1859 के इंग्लैंड इमिग्रेशन एक्ट के तहत बागानों में काम करने वाले मज़दूरों को बिना इजाज़त बागान से बाहर जाने की छूट नहीं थी।
- असहयोग आंदोलन के बारे में सुनते ही हज़ारों मज़दूर बागान छोड़कर अपने घर को चल दिए।
- लेकिन पहुँचने से पहले रेलवे और स्टीमरों की हड़ताल के कारण रास्ते में ही उन्हें पुलिस ने पकड़ लिया और बुरी तरह पिटाई की।
सविनय अवज्ञा की ओर
फरवरी 1922 में चौरी-चौरा (गोरखपुर) में बाज़ार से गुज़र रहा एक शांतिपूर्ण जुलूस का पुलिस के साथ हिंसक टकराव होने के कारण गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया।
- कांग्रेस की कुछ नेता इन जनसंघर्षों की जगह 1919 के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट के तहत गठित की गई प्रांतीय परिषदों के चुनाव में हिस्सा लेना चाहते थे।
- उनको यह महत्वपूर्ण लगता था कि परिषदों में रहते हुए ब्रिटिश नीतियों का विरोध करें, सुधारो की वकालत करें, और यह दिखाएं कि परिषदें लोकतांत्रिक संस्था नहीं है।
- सी.आर. दास और मोतीलाल नेहरू कांग्रेस के भीतर ही स्वराज पार्टी का गठन किया।
- जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे युवा नेता ज़्यादा उग्र जनांदोलन और पूर्ण स्वतंत्रता चाहते थे।
20 के दशक के आखिरी सालों में दो तत्वों ने भारतीय राजनीति की रूपरेखा बदल दी।
1. विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का असर
1926 से कृषि उत्पादों की क़ीमतें गिरने लगी जो 1930 के बाद तो पूरी तरह धराशायी हो गईं। इस कारण किसानों को अपनी उपज बेचना और लगान चुकाना भारी हो गया।
2. साइमन कमीशन का भारत आना
सरकार द्वारा सर जॉन साइमन के नेतृत्व में राष्ट्रवादी आंदोलन के जवाब में गठित किए गए वैधानिक आयोग को भारत में संवैधानिक व्यवस्था की कार्यशैली का अध्ययन करके सुझाव देना था। परंतु इस आयोग में एक भी भारतीय सदस्य नहीं था सारे अंग्रेज़ थे।
➡ 1928 में साइमन कमीशन के भारत पहुँचने पर उसका स्वागत “साइमन कमीशन वापस जाओ” के नारो से हुआ। कांग्रेस और मुस्लिम लीग, सभी पार्टियों ने प्रदर्शनों में हिस्सा लिया।
- इस विरोध को शांत करने के लिए वायसराय लॉर्ड इरविन ने अक्टूबर 1929 में भारत के लिए “डोमीनियन स्टेटस” का ऐलान किया।
- और भावी संविधान के बारे में चर्चा करने के लिए गोलमेज़ सम्मेलन आयोजित होगा।
- उदारवादी और मध्यमार्गी नेता ब्रिटिश डोमीनियन के भीतर ही संवैधानिक व्यवस्था के पक्ष में थे।
- परंतु इस प्रस्ताव से जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में कांग्रेस के नेता संतुष्ट नहीं थे।
दिसंबर 1929 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में “पूर्ण स्वराज” की माँग को औपचारिक रूप से मान लिया गया। 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाकर पूर्ण स्वराज के लिए संघर्ष की शपथ ली गई।
नमक यात्रा और सविनय अवज्ञा आंदोलन
31 जनवरी 1930 को गांधीजी ने वायसराय इरविन को लिखे एक खत में 11 माँगों का उल्लेख किया था। इनमें उद्योगपतियों से लेकर किसानों तक विभिन्न तबक़ों से जुड़ी माँगें थीं। और सबसे महत्वपूर्ण माँग नमक कर को खत्म करने के बारे में थी।
- वह इसके ज़रिए समाज के सभी वर्गों को अपने साथ जोड़ना चाहते थे।
- यह भी लिखा कि 11 मार्च तक माँगें न मानने पर कांग्रेस सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ देगी।
- इरविन के न झुकने पर गांधीजी ने 12 मार्च 1930 को साबरमती आश्रम से अपने 78 विश्वस्त स्वयंसेवको के साथ नमक यात्रा शुरू कर दी।
- गांधीजी की टोली ने 24 दिन तक हर रोज़ लगभग 10 मील का सफ़र तय किया। वह जहाँ भी रुकते हज़ारों लोग उन्हें सुनने आते।
- इन सभाओं में उन्होंने स्वराज का अर्थ स्पष्ट किया और शांतिपूर्वक अवज्ञा की बात कही।
- 6 अप्रैल को वह दांडी पहुँचे और समुद्र का पानी उबालकर नमक बनाकर कानून का उल्लंघन किया।
➡ यहीं से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू होता है। इस बार लोगों को अंग्रेज़ों का सहयोग न करने के साथ औपनिवेशिक क़ानूनों का उल्लंघन करने के लिए भी कहा गया।
- देश के विभिन्न भागों में हज़ारों लोगों ने नमक कानून तोड़ा और सरकारी नमक कारखानों के सामने प्रदर्शन किए।
- आंदोलन फैला तो विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया जाने लगा। शराब की दुकानों की पिकेटिंग होने लगीं।
- किसानों ने लगान और चौकीदारी कर चुकाने से इनकार कर दिया।
- गाँवों में तैनात कर्मचारी इस्तीफ़े देने लगे।
- जंगलों में रहने वाले वन कानूनों का उल्लंघन कर लकड़ी बीनने और मवेशियों को चराने के लिए आरक्षित वनों में घुसने लगे।
➡ अप्रैल 1930 में अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान को गिरफ़्तार करने पर गुस्साई भीड़ सशस्त्र बख़्तरबंद गाड़ियों और पुलिस की गोलियों का सामना करते हुए सड़कों पर उतर गई इसमें बहुत सारे लोग मारे गए।
➡ गांधीजी के गिरफ़्तार करने पर शोलापुर के औद्योगिक मज़दूरों ने अंग्रेज़ी शासन का प्रतीक पुलिस चौकियों, नगरपालिका भवनों, अदालतों और रेलवे स्टेशनों पर हमले शुरू कर दिए।
➡ भयभीत सरकार ने शांतिपूर्ण सत्याग्रहियों पर हमले किए, औरतों व बच्चों को मारा-पीटा गया और लगभग 1 लाख लोग गिरफ़्तार किए गए। इस कारण गांधीजी ने फिर आंदोलन वापस लेकर 5 मार्च 1931 को इरविन के साथ समझौते पर दस्तखत कर दिए।
- इसके ज़रिए लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए मान गए (पहले गोलमेज़ सम्मेलन का कांग्रेस बहिष्कार कर चुकी थी)। इसके बदले सरकार ने राजनीतिक क़ैदियों को रिहा कर दिया।
➡ दिसंबर 1931 में सम्मेलन की वार्ता बीच में ही टूट जाने के कारण उन्हें निराश वापस लौटना पड़ा। वापस लौटकर उन्होंने पाया कि गफ़्फ़ार ख़ान और जवाहरलाल नेहरू जेल में थे।
- कांग्रेस को ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया गया था।
- सभाओं, प्रदर्शनों और बहिष्कार जैसी गतिविधियों को रोकने के लिए सख़्त क़दम उठाए गए थे।
- भारी आशंकाओं के बीच गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन दोबारा शुरू कर दिया।
- साल भर तक आंदोलन चला लेकिन 1934 तक आते-आते उसकी गति मंद पड़ गई थी।
लोगों ने आंदोलन को कैसे लिया?
गाँवों में संपन्न किसान समुदाय (गुजरात के पटीदार और उत्तर प्रदेश के जाट)
- व्यावसायिक फसलों की खेती करने के कारण व्यापार में मंदी और गिरती क़ीमतों से परेशान।
- नक़द आय खत्म होने पर सरकारी लगान चुकाना नामुमकिन हो गया।
- सरकार के लगान कम न करने के कारण चारों तरफ़ असंतोष था।
- उन्होंने आंदोलन अपने समुदायों को एकजुट कर आंदोलन का बढ़-चढ़ कर समर्थन किया।
- लेकिन 1931 में लगानों के घटे बिना आंदोलन वापस होने के कारण उन्हें बड़ी निराशा हुई।
- फलस्वरूप 1932 में आंदोलन दुबारा शुरू होने पर बहुतों ने उसमें हिस्सा लेने से मना कर दिया।
ग़रीब किसान
- ग़रीब किसान लगान में कमी के साथ ज़मींदारों को चुकाने वाले भाड़े की माफ़ी भी चाहते थे।
- इसके लिए उन्होंने कई रेडिकल आंदोलनों में हिस्सा लिया जिनका नेतृत्व समाजवादियों और कम्युनिस्टों ने किया था।
- अमीर किसानों और ज़मींदारों की नाराज़गी के भय से कांग्रेस “भाड़ा विरोधी” आंदोलनों को समर्थन देने में हिचकिचाती थी।
- इसी कारण ग़रीब किसानों और कांग्रेस के बीच संबंध अनिश्चित बने रहे।
व्यवसायी वर्ग
- पहले विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय व्यापारियों और उद्योगपतियों ने भारी मुनाफ़ा कमाया था। उन्होंने व्यावसायिक गतिविधियों में रुकावट वाली औपनिवेशिक नीतियों का विरोध किया।
- वे विदेशी वस्तुओं के आयात से सुरक्षा और रुपया-स्टर्लिंग विदेशी विनमय अनुपात में बदलाव चाहते थे।
- उन्होंने 1920 में भारतीय औद्योगिक एवं व्यावसायिक कांग्रेस और 1927 में भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग परिसंघ का गठन किया।
- पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास और जी.डी. बिरला जैसे जाने-माने उद्योगपतियों के नेतृत्व में उद्योगपतियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर औपनिवेशिक नियंत्रण का विरोध किया।
- उन्होंने आंदोलन को आर्थिक सहायता दी और आयातित वस्तुओं को खरीदने या बेचने से मना कर दिया।
- व्यवसायियों ने स्वराज को ऐसे युग के रूप में देखा जहाँ कारोबार पर औपनिवेशिक पाबंदियाँ न हो।
गोलमेज़ सम्मेलन की विफलता के बाद व्यावसायिक संगठनों का उत्साह भी मंद पड़ गया था। उन्हें उग्र गतिविधियों का भय, लंबी अशांति की आशंका और कांग्रेस के युवा सदस्यों में समाजवाद के बढ़ते प्रभाव का डर था।
श्रमिक वर्ग
- उद्योगपतियों के कांग्रेस के नज़दीक आने के कारण मज़दूर कांग्रेस से दूर होने लगे थे।
- फिर भी कुछ मज़दूरों ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार जैसे कुछ गांधीवादी विचारों को कम वेतन व खराब कार्यस्थितियों के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई से जोड़ दिया।
- 1930 में रेलवे कामगारों ने और 1932 में गोदी कामगारों ने हड़ताले की।
- 1930 में छोटा नागपुर की टिन खानों के हज़ारों मज़दूरों ने गांधी टोपी पहनकर रैलियों और बहिष्कार अभियानों में हिस्सा लिया।
फिर भी, उद्योगपति के आंदोलन से दूर जाने और साम्राज्यवाद विरोधी ताक़तों में फूटने के भय से कांग्रेस अपने कार्यक्रम में मज़दूरों की माँगों को शामिल करने से हिचकिचा रही थी।
महिलाएँ
- औरतों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में बड़े पैमाने पर हिस्सा लिया था।
- नमक सत्याग्रह के दौरान भी औरतों ने जुलूसों में हिस्सा लिया, गांधीजी की बात सुनने आई, नमक बनाया, विदेशी कपड़ों व शराब की दुकानों की पिकेटिंग की। बहुत सारी महिलाएँ जेल भी गईं।
- शहरी इलाकों में ऊँची जातियों की महिलाएँ जबकि ग्रामीण इलाकों में संपन्न किसान परिवारों की महिलाएँ आंदोलन में हिस्सा ले रही थीं।
गांधीजी का मानना था कि घर और चूल्हा-चौका औरत का असली कर्तव्य है इसलिए लंबे समय तक कांग्रेस ने संगठन में औरतों को जगह देने के बजाय उनकी प्रतीकात्मक उपस्थिति में ही दिलचस्पी रखी।
सविनय अवज्ञा की सीमाएँ
कांग्रेस ने रूढ़िवादी सवर्ण हिंदू सनातनपंथियों के डर से लंबे समय तक दलितों पर ध्यान नहीं दिया था। लेकिन गांधीजी ने ऐलान किया कि अस्पृश्यता (छुआछूत) को खत्म किए बिना सौ साल तक भी स्वराज की स्थापना नहीं की जा सकती।
- उन्होंने “अछूतों” को हरिजन यानी ईश्वर की संतान बताया। उन्हें मंदिरों, सार्वजनिक तालाबों, सड़कों और कुओं पर समान अधिकार दिलाने के लिए सत्याग्रह किया।
- मैला ढोनेवालों के काम को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए वे खुद शौचालय साफ़ करने लगे।
- उन्होंने ऊँची जातियों से अपना हृदय परिवर्तन कर अस्पृश्यता के पाप को छोड़ने का आह्वान किया।
➡ लेकिन बहुत सारे दलित नेता अपने समुदाय की समस्याओं का राजनीतिक हल ढूँढ़ना चाहते थे। उन्होंने खुद को संगठित कर शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के लिए आवाज़ उठाई और अलग निर्वाचन क्षेत्रों की बात कही ताकि वहाँ से विधायी परिषदों के लिए केवल दलितों को ही चुनकर भेजा जा सके।
- डॉ. अंबेडकर ने 1930 में दलितों को दमित वर्ग में संगठित किया।
- दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों के सवाल पर दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में महात्मा गांधी के साथ उनका काफ़ी विवाद हुआ।
- ब्रिटिश सरकार के द्वारा अंबेडकर की माँग मानने पर गांधीजी आमरण अनशन पर बैठ गए। क्योंकि उनका मत था कि ऐसा करने से समाज में उनके एकीकरण की प्रक्रिया धीमी पड़ जाएगी।
- आखिरकार अंबेडकर ने गांधीजी की राय मानकर सितंबर 1932 में पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर कर दिए।
- इसमें दमित वर्गों (अनुसूचित जाति) को प्रांतीय एवं केंद्रीय विधायी परिषदों में आरक्षित सीटें मिल गईं हालाँकि उनके लिए मतदान सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में ही होता था।
➡ भारत के कुछ मुस्लिम राजनीतिक संगठनों ने भी सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति कोई खास उत्साह नहीं दिखाया। असहयोग-ख़िलाफ़त आंदोलन के शांत होने के बाद मुसलमानों का एक बहुत बड़ा तबक़ा कांग्रेस से कटा हुआ महसूस करने लगा था।
- 1920 के दशक के मध्य से कांग्रेस हिंदू महासभा जैसी हिंदू धार्मिक राष्ट्रवादी संगठनों के करीब दिखने लगी थी।
- हिंदू-मुसलमानों के बीच संबंध खराब होने से दोनों समुदाय उग्र धार्मिक जुलूस निकालने लगे। इससे कई शहरों में सांप्रदायिक टकराव व दंगे हुए और उनके बीच फ़ासला बढ़ता गया।
➡ कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने 1927 में एक बार फिर गठबंधन का प्रयास किया। मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा कि यदि मुसलमानों को केंद्रीय सभा में आरक्षित सीटें दी जाएँ और मुस्लिम बहुल प्रांतों (बंगाल और पंजाब) में मुसलमानों को आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाए तो वे मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचिका की माँग छोड़ देंगे।
- परंतु 1928 में आयोजित सर्वदलीय सम्मेलन में हिंदू महासभा के एम.आर. जयकर ने इस समझौते के प्रयासों की खुलेआम निंदा कर दी।
- जिस कारण समाधान की सारी संभावनाएँ खत्म हो गईं।
सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू होने पर कांग्रेस से कटे हुए मुसलमानों का बड़ा तबक़ा किसी संयुक्त संघर्ष के लिए तैयार नहीं था। हिंदू बहुसंख्या के वर्चस्व की स्थिति में अल्पसंख्यकों की संस्कृति और पहचान खोने का भय बहुत सारे मुस्लिम नेता और बुद्धिजीवी को था।
भारत छोड़ो आंदोलन
क्रिप्स मिशन की असफलता एवं द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभावों के कारण भारत में व्यापक असंतोष का जन्म हुआ। वर्धा में 14 जुलाई 1942 को कांग्रेस कार्य समिति ने “भारत छोड़ो” प्रस्ताव पारित किया। जिसमें सत्ता का भारतीयों को तत्काल हस्तांतरण एवं भारत छोड़ने की माँग की गई।
- 8 अगस्त 1942 को मुंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने इस प्रस्ताव का समर्थन कर पूरे देश में व्यापक पैमाने पर अहिंसक जन संघर्ष का आहवान किया।
- इसी अवसर पर गांधीजी ने “करो या मरो” भाषण दिया था। इससे देश के अधिकतर हिस्सों में राज्य व्यवस्था ठप्प हो गई।
- लोगों ने हड़तालें की और राष्ट्रीय गीतों एवं नारों के साथ प्रदर्शन किए एवं जुलूस निकाले।
- यह आंदोलन वास्तव में एक जन आंदोलन था जिसमें छात्र, मजदूर और किसान जैसे हजारों साधारण लोगों ने हिस्सा लिया।
- इसमें नेताओं जैसे: जयप्रकाश नारायण, अरुणा आसफ अली एवं राम मनोहर लोहिया बहुत सारी महिलाएँ जैसे: मातांगिनी हाजरा (बंगाल), कनकलता बरूआ (असम) और रमा देवी (उड़ीसा) आदि की भागीदारी थी।
- अंग्रेजों द्वारा पूरे बल प्रयोग के बावजूद इसे दबाने में एक वर्ष से अधिक समय लग गया।
सामूहिक अपनेपन का भाव
जब लोगों को महसूस होता है कि वे एक ही राष्ट्र के अंग है, तब राष्ट्रवाद की भावना पनपती है। सामूहिक अपनेपन की यह भावना आंशिक रूप संयुक्त संघर्षों और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं के ज़रिए राष्ट्रवाद लोगों की कल्पना और दिलोदिमाग़ पर छा गया था।
- इतिहास व साहित्य, लोक कथाएँ व गीत, चित्र व प्रतीक, सभी ने राष्ट्रवाद को साकार करने में अपना योगदान दिया था।
- 20वीं सदी में राष्ट्रवाद के विकास के साथ भारत की पहचान भी भारत माता की छवि का रूप लेने लगी। इसके निर्माण का आरंभ बंकिम चन्द्र चटटोपाध्याय ने किया था।
- उन्होंने “वंदे मातरम” गीत लिखा जिसे बाद में अपने उपन्यास आनन्दमठ में शामिल कर लिया। यह गीत बंगाल में स्वदेशी आंदोलन में खूब गया गया था।
➡ राष्ट्रवाद का विचार भारतीय लोक कथाओं को पुनर्जीवित करने के आंदोलन से भी मज़बूत हुआ। 19वीं सदी के आखिर में राष्ट्रवादियों ने गाँव-गाँव घूम कर भाटों व चारणों द्वारा गाई-सुनाई जाने वाली लोक कथाओं को दर्ज करना शुरू कर दिया।
- बंगाल में रबीन्द्रनाथ टैगोर भी लोक-गाथा गीत, बाल गीत और मिथकों को इकट्ठा करने निकल पड़े।
- मद्रास में नटेसा शास्त्री ने “द फ़ोकलोर्स ऑफ़ सदर्न इंडिया” के नाम से तमिल लोक कथाओं का विशाल संकलन चार खंडों में प्रकाशित किया।
➡ राष्ट्रीय आंदोलन के आगे बढ़ने पर राष्ट्रवादी नेताओं ने लोगों को एकजुट करने और उनमें राष्ट्रवाद की भावना भरने के लिए चिह्नों और प्रतीकों का सहारा लिया।
- बंगाल में स्वदेशी आंदोलन के दौरान एक तिरंगा झंडा (हरा, पीला, लाल) जिसमें ब्रिटिश भारत के आठ प्रांतों का प्रतिनिधित्व करते कमल के 8 फूल और हिंदुओं व मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता एक अर्धचंद्र दर्शाया गया था।
- 1921 तक गांधीजी का स्वराज का तिरंगा (सफ़ेद, हरा, लाल) जिसके मध्य चरखा (स्वावलंबन का प्रतीक) था। जुलूसों में यह झंडा थामे चलना शासन के प्रति अवज्ञा का संकेत था।
➡ अंग्रेजों की नज़र में भारतीय पिछड़े और आदिम लोग थे जो अपना शासन खुद नहीं सँभाल सकते। इसके जवाब में 19वीं सदी के अंत तक बहुत सारे भारतीयों ने राष्ट्र के प्रति गर्व का भाव जगाने के लिए गौरवमयी प्राचीन युग के बारे में लिखा।
- जब कला और वास्तुशिल्प, विज्ञान और गणित, धर्म और संस्कृति, क़ानून और दर्शन, हस्तकला और व्यापार फल-फूल रहे थे।
- उनका कहना था कि इस महान युग के बाद पतन का समय आया और भारत को ग़ुलाम बना लिया गया।
- इस राष्ट्रवादी इतिहास के ज़रिए ब्रिटिश शासन के तहत दुर्दशा से मुक्ति के लिए संघर्ष का मार्ग अपनाने का आहवान किया।
जिस अतीत का गौरवगान और छवियों का सहारा लिया जा रहा था वह हिंदुओं का अतीत और प्रतीक थे। इसलिए अन्य समुदायों के लोग अलग-थलग महसूस करने लगे थे।
निष्कर्ष
अंग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ बढ़ते गुस्से ने विभिन्न भारतीय समूहों और वर्गों को स्वतंत्रता के संघर्ष में साथ किया था।
- गांधीजी आंदोलन के ज़रिए पूरे देश को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास किया। लेकिन इन आंदोलनों में विभिन्न समूह और वर्ग अपनी-अपनी आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के साथ हिस्सा ले रहे थे।
- कांग्रेस ने हमेशा प्रयास किया कि एक समूह की माँगों के कारण कोई दूसरा समूह दूर न चला जाए। इस कारण ही आंदोलन भीतर से अकसर बिखर जाता था।
संक्षेप में, जो राष्ट्र उभर रहा था वह औपनिवेशिक शासन से मुक्ति की चाह रखने वाली बहुत सारी आवाज़ों का पुंज था।
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इसे भी पढ़े
खण्ड Ⅰ : घटनाएँ और प्रक्रियाएँ
अध्याय 1: यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय
खण्ड Ⅱ : जीविका, अर्थव्यवस्था एवं समाज
अध्याय 3: भूमंडलीकृत विश्व का बनना
अध्याय 4: औद्योगीकरण का युग
खण्ड III : रोज़ाना की ज़िंदगी, संस्कृति और राजनीति
अध्याय 5: मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया
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