Class 9 History Chapter 3 Notes In Hindi

अध्याय 3: नात्सीवाद और हिटलर का उदय

हिटलर जर्मनी को दुनिया का सबसे ताकतवर देश बनाकर पूरे यूरोप को जीत लेना चाहता था। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान उसने लगभग 60 लाख यहूदी, 2 लाख जिप्सी और 10 लाख पोलैंड के नागरिकों का जनसंहार करवाया था। साथ ही मानसिक व शारीरिक रूप से अपंग घोषित किए गए 70,000 जर्मन नागरिकों को भी मरवा दिया। इनके अलावा न जाने कितने ही राजनीतिक विरोधियों को मौत दी गई। 

➡ मई 1945 में जर्मनी ने मित्र राष्ट्रों के सामने समर्पण कर दिया। अपने हश्र का अंदाज़ा होने पर, अप्रैल में ही हिटलर और उसके प्रचार मंत्री ग्योबल्स ने बर्लिन के एक बंकर में पूरे परिवार के साथ आत्महत्या कर ली थी।

  • युद्ध खत्म होने के बाद न्यूरेम्बर्ग अदालत ने शांति के विरुद्ध, मानवता के खिलाफ़ किए गए अपराधों और युद्ध अपराधों के लिए नात्सी युद्धबंदियों पर मुकदमा चलाया।
  • जिसमें केवल 11 मुख्य नात्सियों को ही मौत की सज़ा दी गई। बाकी आरोपियों में से बहुतों को उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई। परंतु उनकी बर्बरता और उनके ज़ुल्मों के मुकाबले यह सज़ा बहुत छोटी थी।

वाइमर गणराज्य का जन्म

20वीं सदी के शुरुआती सालों में जर्मनी एक ताकतवर साम्राज्य था। उसने ऑस्ट्रियाई साम्राज्य के साथ मिलकर मित्र राष्ट्रों (इंग्लैंड, फ़्रांस और रूस) के खिलाफ़ पहला विश्वयुद्ध (1914-1918) लड़ा था।

  • फ़्रांस और बेल्जियम पर कब्ज़ा करके जर्मनी ने शुरुआत में सफलताएँ हासिल की।
  • लेकिन 1917 में जब अमेरिका भी मित्र राष्ट्रों में शामिल हो गया तो आखिरकार, नवंबर 1918 में उन्होंने केंद्रीय शक्तियों को हराने के बाद जर्मनी को भी हरा दिया।

➡ साम्राज्यवादी जर्मनी की पराजय और सम्राट के पदत्याग के बाद संसदीय पार्टियों ने संघीय आधार पर एक लोकतांत्रिक संविधान पारित किया।

  • अब जर्मन संसद यानी राइख़स्टाग के लिए जनप्रतिनिधियों का चुनाव किया जाने लगा जिसमें औरतों सहित सभी वयस्क नागरिकों को समान और सार्वभौमिक मताधिकार प्रदान किया गया।
  • इस नए गणराज्य से जर्मनी के लोग खुश नहीं थे, क्योंकि पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय के बाद विजयी देशों ने उस पर बहुत कठोर शर्तें थोप दी थी।
  • मित्र राष्ट्रों के साथ वर्साय में हुई शांति-संधि जर्मनी की जनता के लिए बहुत कठोर और अपमानजनक थी।
  • इस संधि की वजह से जर्मनी को अपने सारे उपनिवेश, तकरीबन 10% आबादी, 13% भूभाग, 75% लौह भंडार और 26% कोयला भंडार फ़्रांस, पोलैंड, डेनमार्क और लिथुआनिया को देना पड़ा। साथ में उसकी सेना भी भंग कर दी।

➡ युद्ध अपराधबोध अनुच्छेद के तहत युद्ध के कारण हुई सारी तबाही के लिए जर्मनी को ज़िम्मेदार ठहरा कर उस पर 6 अरब पौंड का जुर्माना लगाया गया। खनिज संसाधनों वाले राईनलैंड पर भी मित्र राष्ट्रों का ही कब्ज़ा रहा। बहुत सारे जर्मनों ने इन सब का ज़िम्मेदार वाइमर गणराज्य को ही ठहराया।

युद्ध का असर

इस युद्ध ने पूरे महाद्वीप की मनोवैज्ञानिक और आर्थिक दशा ख़राब कर दी। यूरोप कल तक कर्ज़ देने वालों का महाद्वीप कहलाता था जो युद्ध खत्म होते-होते कर्ज़दारों का महाद्वीप बन गया।

  • वाइमर गणराज्य के हिमायती समाजवादी, कैथलिक और डेमोक्रैट खेमे के लोगों को रूढ़िवादी/पुरातनपंथी राष्ट्रवादियों ने ‘नवंबर के अपराधी’ कहा।
  • पहले विश्वयुद्ध का यूरोपीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था पर गहरा असर पड़ा। सिपाहियों को आम नागरिकों के मुकाबले ज़्यादा सम्मान दिया जाने लगा।
  • राजनेता और प्रचारक इस बात पर ज़ोर देने लगे कि पुरुषों को आक्रामक, ताकतवर और मर्दाना गुणों वाला होना चाहिए।
  • मीडिया में खंदकों (युद्ध के मोर्चे पर सैनिकों के छिपने के लिए खोदे गए गड्ढे) की ज़िंदगी का महिमामंडन किया जा रहा था। लेकिन सिपाहियों का जीवन यहाँ बहुत कठिन था।
  • वे लाशों को खाने वाले चूहों से घिरे रहते थे। वे ज़हरीली गैस और दुश्मनों की गोलाबारी का बहादुरी से सामना करते हुए भी अपने साथियों को पल-पल मरते देखते थे।

➡ हाल ही में सत्ता में आए रूढ़िवादी तानाशाहों को व्यापक जनसमर्थन मिलने लगा। उस वक्त लोकतंत्र एक नया और बहुत नाज़ुक विचार था जो दोनों महायुद्धों के बीच पूरे यूरोप में फैली अस्थिरता का सामना करने में असमर्थ था।

राजनीतिक रैडिकलवाद (आमूल परिवर्तनवाद) और आर्थिक संकट

वाइमर गणराज्य की स्थापना के समय जर्मनी में स्पार्टकिस्ट लीग अपने क्रांतिकारी विद्रोह की योजनाओं को अंजाम देने लगी। बहुत सारे शहरों में मज़दूरों और नविकों की सोवियतें बनाई गईं। बर्लिन में सोवियत किस्म की शासन व्यवस्था के लिए नारे गूँज रहे थे।

  • इसलिए समाजवादियों, डेमोक्रैट्स और कैथलिक गुटों ने विरोध में एक लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना कर, वाइमर गणराज्य ने पुराने सैनिकों के फ़्री कोर नामक संगठन की मदद से इस विद्रोह को कुचल दिया।
  • इसके बाद स्पार्टकिस्टों ने जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी की नींव डाली। अब कम्युनिस्ट (साम्यवादी) और समाजवादी एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन हो गए।

➡ जर्मनी ने पहला विश्वयुद्ध मोटे तौर पर कर्ज़ लेकर लड़ा था। और युद्ध के बाद तो उसे स्वर्ण मुद्रा में हर्जाना भी भरना पड़ा। इस दोहरे बोझ के कारण जर्मनी के स्वर्ण भंडार लगभग समाप्त हो गए थे।

  • 1923 में जर्मनी के कर्ज़ और हर्जाना चुकाने से मना करने पर फ़्रांसीसियों ने जर्मनी के मुख्य औद्योगिक इलाके रुर पर कब्ज़ा कर लिया। यह जर्मनी के विशाल कोयला भंडारों वाला इलाका था।
  • जर्मनी ने फ्रांस के विरुद्ध बड़े पैमाने पर कागज़ी मुद्रा छापना शुरू कर दिया। इस कारण मुद्रा मार्क का मूल्य तेज़ी से गिरने लगा और ज़रूरी चीज़ों की कीमतें बढ़ने लगी। इस संकट को अति-मुद्रास्फीति का नाम दिया गया।

जर्मनी को इस संकट से निकलने के लिए अमेरिकी सरकार ने डॉव्स योजना बनाई। इस योजना में हर्जाने की शर्तों को दोबारा तय किया गया।

मंदी के साल

1924 से 1928 तक जर्मनी में कुछ स्थिरता रही। परंतु 1929 में वॉल स्ट्रीट एक्सचेंज (शेयर बाजार) धराशाही होने पर जर्मनी को मिल रही मदद बंद हो गई। कीमतों में गिरावट की आशंका में 24 अक्टूबर को केवल एक दिन में 1.3 करोड़ शेयर बिके।

➡ 1929 से 1932 तक में अमेरिका की राष्ट्रीय आय केवल आधी रह गई। फ़ैक्ट्रियाँ बंद हो गई थीं, निर्यात गिरता जा रहा था, किसानों की हालत खराब थी और सट्टेबाज बाज़ार से पैसा खींचते जा रहे थे। इस मंदी का सबसे बुरा प्रभाव जर्मनी अर्थव्यवस्था पर पड़ा। 1932 में जर्मनी का औद्योगिक उत्पादन केवल 40% रह गया था।

  • मज़दूर या तो बेरोज़गार होते जा रहे थे या उनके वेतन काफ़ी गिर चुके थे। बेरोज़गारों की संख्या 60 लाख तक जा पहुँची।
  • बेरोज़गार नौजवान ताश खेलते, नुक्क्ड़ों पर झुंड लगाए या रोज़गार के दफ़्तरों के बाहर लंबी-लंबी कतार में खड़े पाए जाते थे।
  • रोज़गार ख़त्म होने के कारण युवा वर्ग आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होता जा रहा था।
  • मुद्रा का अवमूल्यन होने के कारण मध्यमवर्ग, खासतौर से वेतनभोगी कर्मचारी और पेंशनधारियों की बचत भी सिकुड़ती जा रही थी।
  • कारोबार ठप्प हो जाने से छोटे-मोटे व्यवसायी, स्वरोज़गार में लगे लोग और खुदरा व्यापारियों की हालत भी खराब होती जा रही थी।
  • समाज के इन तबकों को सर्वहाराकरण (गरीब होते-होते मज़दूर वर्ग की आर्थिक स्थिति में पहुँच जाना) का भय सता रहा था।
  • किसानों का एक बहुत बड़ा वर्ग कृषि उत्पादों की कीमतों में बेहिसाफ गिरावट की वजह से परेशान था।
  • युवाओं कों अपना भविष्य अंधकारमय दिख रहा था। अपने बच्चों का पेट भरने में औरतें असफल थी।

➡ वाइमर संविधान में इन कमियों की वजह से गणराज्य कभी भी अस्थिरता और तानाशाह का शिकार बन सकता था।

  1. आनुपातिक प्रतिनिधित्व: इस प्रावधान की वजह से किसी पार्टी को बहुमत मिलना लगभग नामुमकिन बन गया था। हर बार गठबंधन की सरकार सत्ता में आ रही थी। 
  2. अनुच्छेद 48: इसमें राष्ट्रपति को आपातकाल लागू करने, नागरिक अधिकार रद्द करने और अध्यादेशों के ज़रिए शासन चलाने का अधिकार दिया गया था।

अपने छोटे से जीवनकाल में वाइमर गणराज्य का शासन 20 मंत्रिमंडलों के हाथों में रहा और उसकी औसत अवधि 239 दिन से ज़्यादा नहीं रही। इस दौरान अनुच्छेद 48 का जमकर इस्तेमाल किया गया। इस कारण लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था में लोगों का विश्वास खत्म होने लगा।

हिटलर का उदय

1889 में ऑस्ट्रिया में जन्मे हिटलर की युवावस्था बहुत ही गरीबी में गुज़री थी। रोज़ी-रोटी के लिए उसने पहले विश्वयुद्ध की शुरुआत में फ़ौज में भर्ती ले ली। उसने अग्रिम मोर्चे पर संदेशवाहक का काम किया, कॉर्पोरल बना और बहादुरी के लिए कुछ तमगे भी हासिल किए।

  • जर्मन सेना की पराजय ने तो उसे हिला दिया था, लेकिन वर्साय की संधि ने तो उसे आग-बबूला ही कर दिया।
  • 1919 में उसने जर्मन वर्कर्स पार्टी की सदस्यता ले ली। धीरे-धीरे इस संगठन को अपने नियंत्रण में लेकर उसे नैशनल सोशलिस्ट पार्टी का नाम दिया। इसी पार्टी को बाद में नात्सी पार्टी के नाम से जाना गया।

1932 में ही हिटलर ने बवेरिया पर कब्ज़ा करने, बर्लिन पर चढ़ाई करने और सत्ता में कब्ज़ा करने की योजना में असफल रहा। उसे गिरफ्तार कर उस पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया। लेकिन कुछ समय बाद उसे रिहा कर दिया गया।

➡ महामंदी के दौरान नात्सीवाद एक जन आंदोलन बन गया। क्योंकि नात्सी प्रोपेगैंडा में लोगों को एक बेहतर भविष्य की उम्मीद दिखाई देती थी। 1929 में नात्सी पार्टी को जर्मन संसद一राइख़स्टाग一 के लिए चुनावों में सिर्फ़ 2.6 फ़ीसदी वोट मिले थे। 1932 तक आते-आते इस पार्टी को 37 फ़ीसदी वोट मिले।

  • हिटलर ज़बर्दस्त वक्ता था। उसका जोश और उसके शब्द लोगों को हिलाकर रख देते थे।
  • वह अपने भाषणों में एक शक्तिशाली राष्ट्र की स्थापना, वर्साय संधि में हुई नाइंसाफ़ी के प्रतिशोध और जर्मन समाज को खोई हुई प्रतिष्ठा वापस दिलाने का आश्वासन देता था।
  • उसने वादा किया कि वह बेरोज़गारों को रोज़गार और नौजवानों को एक सुरक्षित भविष्य देगा।
  • उसने देश को विदेशी प्रभाव से मुक्त कराने और तमाम विदेशी ‘साज़िशों’ का मुँहतोड़ जवाब देने का आश्वासन दिया।

हिटलर के प्रति भारी समर्थन दर्शाने और लोगों में परस्पर एकता का भाव पैदा करने के लिए नात्सियों ने बड़ी-बड़ी रैलियाँ और जनसभाएँ आयोजित कीं। स्वस्तिक छपे लाल झंडे, नात्सी सैल्यूट और भाषणों के बाद खास अंदाज़ में तालियों की गड़गड़ाहट一ये सारी चीज़ें शक्ति प्रदर्शन का हिस्सा थीं।

लोकतंत्र का ध्वंस

30 जनवरी 1933 को राष्ट्रपति हिंडनबर्ग द्वारा हिटलर के चांसलर बनने के बाद उसने लोकतांत्रिक शासन की संरचना और संस्थाओं को भंग करना शुरू कर दिया।

➡ फरवरी में जर्मन संसद भवन में हुए रहस्यमय अग्निकांड के बाद 28 फरवरी 1933 को अग्नि अध्यादेश के ज़रिए अभिव्यक्ति, प्रेस एवं सभा करने की आज़ादी जैसे नागरिक अधिकारों को अनिश्चितकाल के लिए निलंबित कर दिया गया।

  • ज़्यादातर कम्युनिस्टों को रातों-रात कंसन्ट्रेशन कैंपों में बंद कर दिया गया। नात्सी शासन ने कुल 52 किस्म के लोगों को अपने दमन का निशाना बनाया था।
  • 3 मार्च 1933 को प्रसिद्ध विशेषाधिकार अधिनियम के ज़रिए जर्मनी में तानाशाही स्थापित कर दी गई।
  • नात्सी पार्टी और उससे जुड़े संगठनों के अलावा सभी राजनीतिक पार्टियों और ट्रेड यूनियनों पर पाबंदी लगा दी गई।
  • अर्थव्यवस्था, मीडिया, सेना और न्यायपालिका पर राज्य का पूरा नियंत्रण स्थापित हो गया।

➡ पूरे समाज को नात्सियों के हिसाब से नियंत्रित और व्यवस्थित करने के लिए मौजूद हरी वर्दीधारी पुलिस और स्टॉर्म ट्रूपर्स (एसए) के अलावा गेस्तापो (गुप्तचर राज्य पुलिस), एसएस (अपराध नियंत्रण पुलिस) और सुरक्षा सेवा (एसडी) का भी गठन किया गया।

  • इन दस्तों को बेहिसाब असंवैधानिक अधिकार मिलने की वजह से नात्सी राज्य को एक खूंखार आपराधिक राज्य की छवि प्राप्त हुई।
  • किसी को भी गेस्तापो के यंत्रणा गृहों में बंद करना, यातना गृहों में भेजना, बिना कानूनी कार्रवाई के देश से निकाला या गिरफ़्तार किया जा सकता था।

पुनर्निर्माण

हिटलर ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की ज़िम्मेदारी अर्थशास्त्री हालमार शाख़्त को सौंपी। उसने सबसे पहले सरकारी पैसे से चलाए जाने वाले रोज़गार संवर्धन कार्यक्रम के ज़रिए 100 फ़ीसदी उत्पादन और 100 फ़ीसदी रोज़गार उपलब्ध कराने का लक्ष्य तय किया। मशहूर जर्मन सुपर हाइवे और जनता की कार फ़ॉक्सवैगन इस परियोजना की देन थी।

  • 1933 में हिटलर ने ‘लीग ऑफ़ नेशंस’ से पल्ला झाड़ लिया। 1936 में राईनलैंड पर दोबारा कब्ज़ा किया और एक जन, एक साम्राज्य, एक नेता के नारे की आड़ में 1938 में ऑस्ट्रिया को जर्मनी में मिला दिया।
  • इसके बाद चेकोस्लोवाकिया के कब्ज़े वाले जर्मनभाषी सुडेंटनलैंड प्रांत पर कब्ज़ा कर पूरे चेकोस्लोवाकिया को हड़प लिया। इस दौरान उसे इंग्लैंड का भी खामोश समर्थन मिल रहा था।

➡ शाख़्त के सलाह देने पर कि सेना और हथियारों पर ज़्यादा पैसा खर्च न किया जाए क्योंकि सरकारी बजट अभी भी घाटे में चल रहा है, तो हिटलर ने शाख़्त को पद से हटा दिया। हिटलर ने आर्थिक संकट से निकलने के लिए युद्ध का विकल्प चुना।

  • राष्ट्रीय सीमाओं का विस्तार करते हुए ज़्यादा से ज़्यादा संसाधन इकट्ठा करने के लिए उसने सितंबर 1939 में पोलैंड हमला कर दिया। इस कारण से फ़्रांस और इंग्लैंड के साथ भी उसका युद्ध शुरू हो गया।
  • सितंबर 1940 में जर्मनी ने इटली और जापान के साथ एक त्रिपक्षीय संधि पर हस्ताक्षर किए। यूरोप के ज़्यादातर देशों में नात्सी जर्मनी की समर्थन वाली कठपुतली सरकारें बिठा दी गईं।
  • अब हिटलर जर्मन जनता के लिए संसाधन और रहने की जगह का इंतज़ाम करना चाहता था। जून 1941 में उसने सोवियत संघ पर हमला किया। यह हिटलर की एक ऐतिहासिक बेवकूफ़ी थी।
  • इस आक्रमण से जर्मन पश्चिमी मोर्चा ब्रिटिश वायुसैनिकों के बमबारी की चपेट में आ गया जबकि पूर्वी मोर्चे पर सोवियत सेनाएँ हरा रही थी।
  • सोवियत लाल सैनिकों ने पीछे हटते जर्मन सिपाहियों का आखिर तक पीछा किया और अंत में वे बर्लिन के बीचोंबीच जा पहुँचे। इस कारण समूचे पूर्वी यूरोप पर सोवियत वर्चस्व स्थापित हो गया।
  • जापान ने फ़्रेंच-इंडो-चाइना पर कब्ज़ा कर लिया था। जापान के हिटलर को समर्थन देने और पर्ल हार्बर पर अमेरिकी ठिकानों पर बमबारी करने से अमेरिका भी दूसरे विश्वयुद्ध में कूद पड़ा।
  • यह युद्ध मई 1945 में हिटलर की पराजय और जापान के हिरोशिमा शहर पर अमेरिकी परमाणु बम गिराने के साथ खत्म हुआ।

नात्सियों का विश्व दृष्टिकोण

नात्सी विचारधारा में सभी समाजों को बराबरी का हक नहीं था। ब्लॉन्ड, नीली आँखों वाले, नॉर्डिक जर्मन आर्य सबसे बेहतर और यहूदी सबसे कमतर माने जाते थे।  यहूदियों को नस्ल विरोधी, आर्यों का कट्टर शत्रु माना जाता था। बाकी तमाम समाजों को उनके बाहरी रंग-रूप के हिसाब से जर्मन आर्यों और यहूदियों के बीच में रखा गया था।

चार्ल्स डार्विन एक प्रकृति विज्ञानी थे जिन्होंने विकास और प्राकृतिक चयन की अवधारणा के ज़रिए पौधों और पशुओं के उत्पत्ति की व्याख्या का प्रयास किया था। इसे विशुद्ध प्राकृतिक प्रक्रिया कहा गया था और इसमें कभी भी इंसानी हस्तक्षेप की वकालत नहीं की गई।

हर्बर्ट स्पेंसर ने ‘अति जीविता का सिद्धांत’ — जो सबसे योग्य है, वही ज़िंदा बचेगा — यह विचार दिया। इसका मतलब था कि जो प्रजातियाँ बदलती हुई वातावरणीय परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढाल सकती है वही पृथ्वी पर ज़िंदा रहती हैं।

  • लेकिन नस्लवादी विचारकों और राजनेताओं ने पराजित समाजों पर अपने साम्राज्यवादी शासन को सही ठहरने के लिए उनके विचारों का अपना मतलब निकाला। सबसे ताकतवर नस्ल ज़िंदा रहेगी; कमजोर नस्लें खत्म हो जाएँगी।

➡ हिटलर की विचारधारा का दूसरा पहलू लेबेन्स्त्राउम या जीवन-परिधि की भू-राजनीतिक अवधारणा से संबंधित था। वह मानता था कि अपने लोगों को बसाने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा इलाकों पर कब्ज़ा करना जरूरी है। इस तरह जर्मन राष्ट्र के लिए संसाधन और बेहिसाब शक्ति इकट्ठा की जा सकती थी। पोलैंड इस धारणा की पहली प्रयोगशाला बना।

नस्लवादी राज्य की स्थापना

नात्सी ‘शुद्ध और स्वस्थ नॉर्डिक आर्यों का समाज बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने साम्राज्य में मौजूद ‘अवांछित’ माने जाने वाले समाजों या नस्लों को खत्म करना शुरू कर दिया।

  • यूथनेज़िया (दया मृत्यु) कार्यक्रम के तहत नात्सी अफ़सरों ने मानसिक या शारीरिक रूप से अयोग्य जर्मनों को मौत के घाट उतारा था।
  • यहूदियों के अलावा जर्मनी में रहने वाले जिप्सियों और अश्वेतों, रूसी और पोलिश मूल के लोगों को भी अवांछित माना गया था।
  • पोलैंड और रूस के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा करने के बाद स्थानीय लोगों को भयानक परिस्थितियों में गुलामों की तरह काम में झोंक दिया गया। जहाँ वे काम के बोझ और भूख से ही मर गए।

➡ ईसाइयों का आरोप था कि ईसा मसीह को यहूदियों ने ही मारा था। ईसाइयों की नज़र में यहूदी आदतन हत्यारे और सूदखोर थे। मध्यकाल तक यहूदियों को ज़मीन का मालिक बनने की मनाही थी। ये लोग मुख्य रूप से व्यापार और उधार देने का धंधा करके अपना गुज़ारा चलाते थे। वे बाकी समाज से अलग बस्तियों घेटो (दड़बा) में रहते थे।

  • इनके बचने का एक रास्ता धर्म परिवर्तन था। आधुनिक काल में बहुत सारे यहूदियों ने ईसाई धर्म अपना लिया और जर्मन संस्कृति में ढल गए। परंतु हिटलर यहूदियों को पूरी तरह खत्म कर देना चाहता था।
  • 1933 से 1938 तक नात्सियों ने यहूदियों को तरह-तरह से आतंकित कर उनके आजीविका के साधनों को छीन लिया और उन्हें शेष समाज से अलग-थलग कर डाला। इस कारण यहूदी देश छोड़कर जाने लगे।
  • 1939 से 1945 के दौर में यहूदियों को कुछ खास इलाकों में इकट्ठा करने और अंततः पोलैंड में बनाए गए गैस चेंबरों में ले जाकर मार देने की रणनीति अपनाई गई।

नस्ली कल्पनालोक (यूटोपिया)

युद्ध के साए में नात्सी अपने कातिलाना, नस्लवादी कल्पनालोक या आदर्श विश्व के निर्माण में लग गए। पराजित पोलैंड को तहस-नहस कर, उत्तरी-पश्चिमी पोलैंड का ज़्यादातर हिस्सा जर्मनी में मिला लिया गया। पोलैंडवासियों को खदेड़ कर जनरल गवर्नमेंट इलाके में पहुँचा दिया गया। जहाँ कुछ विशालतम घेटो और गैस चेंबर थे।

➡ पोलैंड के बुद्धिजीवियों को बड़े पैमाने पर मौत के घाट उतारा गया। आर्य जैसे दिखने वाले पोलैंड के बच्चों को उनके माँ-बाप से छीन कर जाँच के लिए नस्ल विशेषज्ञों के पास पहुँचा दिया जाता। जाँच में कामयाब होने पर जर्मन परिवारों में पाला जाता। वरना अनाथाश्रमों में डाल दिया जाता जहाँ ज़्यादातर मर जाते थे।

मौत का सिलसिला

पहला चरण : बहिष्कार : 1933-39

हमारे बीच तुम्हें नागरिकों की तरह रहने का कोई हक नहीं।
न्यूरेम्बर्ग नागरिकता अधिकार, सितंबर 1935 :
  1. जर्मन या उससे संबंधित रक्त वाले व्यक्ति ही जर्मन नागरिक होंगे और उन्हें जर्मन साम्राज्य का संरक्षण मिलेगा।
  2. यहूदियों और जर्मनों के बीच विवाह पर पाबंदी।
  3. यहूदियों और जर्मनों के बीच विवाहेतर संबंधों को अपराध घोषित कर दिया गया। 
  4. यहूदियों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराने पर पाबंदी लगा दी गई।
अन्य कानूनी उपाय :
  • यहूदी व्यवसायों का बहिष्कार।
  • सरकारी सेवाओं से निकाला जाना।
  • यहूदियों की संपत्ति की ज़ब्ती और बिक्री।

➡ इसके अलावा नवंबर 1938 के एक जनसंहार में यहूदियों की संपत्तियों को तहस-नहस कर लूट गया, उनके घरों पर हमले हुए, यहूदी प्रार्थनाघर जला दिए गए और उन्हें गिरफ़्तार किया गया। इस घटना को ‘नाइट ऑफ़ ब्रोकन ग्लास’ के नाम से याद किया जाता है।

दूसरा चरण : दड़बाबंदी : 1940-44

तुम्हें हमारे बीच रहने का कोई हक नहीं।
  • सितंबर 1941 से सभी यहूदियों को डेविड का पीला सितारा अपनी छाती पर लगा कर रखने का हुक्म दिया गया।
  • उनके पासपोर्ट, तमाम कानूनी दस्तावेजों और घरों के बाहर भी यह पहचान चिन्ह छाप दिया गया।
  • जर्मनी में उन्हें यहूदी मकानों में और पूर्वी क्षेत्र के लोदज एवं वॉरसा जैसे घेटो बस्तियों में कष्टपूर्ण और दरिद्रता की स्थिति में रखा जाता था।
  • घेटो में दाखिल होने से पहले यहूदियों को अपनी सारी संपत्ति छोड़ देने के लिए मजबूर किया गया।
  • कुछ ही समय में घेटो बस्तियों में वंचना, भुखमरी, गंदगी और बीमारियों का साम्राज्य व्याप्त हो गया।

तीसरा चरण : सर्वनाश : 1941 के बाद

तुम्हें जीने का अधिकार नहीं।
  • समूचे यूरोप के यहूदी मकानों, यातना गृहों और घेटो बस्तियों में रहने वाले यहूदियों को मालगाड़ियों में भर-भर कर मौत के कारखानों में लाया जाने लगा।
  • पोलैंड तथा अन्य पूर्वी इलाकों में, मुख्य रूप से बेलज़ेक, औषवित्स, सोबीबोर, त्रेबलिंका, चेल्म्नो तथा मायदानेक में उन्हें गैस चैंबरों में झोंक दिया गया।
  • औद्योगिक और वैज्ञानिक तकनीकों के सहारे बहुत सारे लोगों को पलक झपकते मौत के घाट उतार दिया गया।

नात्सी जर्मनी में युवाओं की स्थिति

हिटलर का मानना था कि एक शक्तिशाली नात्सी समाज की स्थापना के लिए बच्चों को नात्सी विचारधारा की घुट्टी पिलाना बहुत ज़रूरी है इसलिए स्कूल के अंदर और बाहर, दोनों जगह बच्चों पर पूरा नियंत्रण रखा गया।

➡ तमाम स्कूलों में यहूदी या ‘राजनीतिक रूप से अविश्वासनीय दिखाई देने वाले शिक्षकों को नौकरी से हटाकर मौत के घाट उतार दिया गया। बच्चों को अलग-अलग बिठाया जाने लगा। बाद में ‘अवांछित बच्चों’ को यानी यहूदियों, जिप्सियों के बच्चों और विकलांग बच्चों को स्कूल से निकाल दिया गया। 40 के दशक में तो उन्हें भी गैस चेंबरों में झोंक दिया गया।

  • ‘अच्छे जर्मन’ बच्चों को नात्सी शिक्षा देने के लिए नए सिरे से पाठ्यपुस्तकों को लिखा गया।
  • नस्ल विज्ञान के नाम से एक नया विषय जोड़ा गया।
  • गणित की कक्षाओं में भी यहूदियों की खास छवि गढ़ने की कोशिश की गई।
  • बच्चों को वफादार व आज्ञाकारी, यहूदियों से नफ़रत और हिटलर की पूजा करना सिखाया गया।
  • खेल-कूद के ज़रिए बच्चों में हिंसा और आक्रामकता की भावना पैदा की गई।

जर्मन बच्चों और युवाओं को ‘राष्ट्रीय समाजवाद की भावना’ से लैस करने की ज़िम्मेदारी युवा संगठनों को सौंपी गई।

  • 10 साल की उम्र के बच्चों को युंगफ़ोक में दाखिल कराया जाता था।
  • 14 साल की उम्र में सभी लड़कों को नात्सियो के युवा संगठन –हिटलर यूथ– की सदस्यता लेनी पड़ती थी।
  • इस संगठन में वे युद्ध की उपासना, आक्रामकता व हिंसा, लोकतंत्र की निंदा और यहूदियों, कम्युनिस्टों, जिप्सियों व अन्य ‘अवांछितों’ से घृणा का सबक सीखते थे।
  • गहन विचारधारात्मक और शारीरिक प्रशिक्षण के बाद लगभग 18 साल की उम्र में वे लेबर सर्विस (श्रम सेवा) में शामिल हो जाते थे।
  • इसके बाद उन्हें सेना में काम करना पड़ता था और किसी नात्सी संगठन की सदस्यता लेनी पड़ती थी।

नात्सी यूथ लीग का गठन 1922 में हुआ था। (4 साल बाद नया नाम—हिटलर यूथ) 1933 तक इस संगठन में 12.5 लाख से ज़्यादा बच्चे थे।

मातृत्व की नात्सी सोच

नात्सी जर्मनी में प्रत्येक बच्चे को बार-बार औरतों और मर्दों की भिन्नता को बताया जाता था। लड़कों को आक्रामक, मर्दाना और पत्थरदिल होना सिखाया जाता था। जबकि लड़कियों का फर्ज़ एक अच्छी माँ बनना और शुद्ध आर्य रक्त वाले बच्चों को जन्म देना और उनका पालन-पोषण करना था।

1933 में हिटलर ने कहा था : ‘मेरे राज्य की सबसे महत्वपूर्ण नागरिक माँ है।’

➡ लेकिन नात्सी जर्मनी में अवांछित बच्चों को जन्म देने वाली औरतों को दंडित किया जाता था जबकि नस्ली तौर पर वांछित बच्चों को जन्म देने वाली माताओं को इनाम दिया जाता था। हिटलर ने खूब सारे बच्चों को जन्म देने वाली माताओं के लिए तमगे देने का इंतजाम किया था।

  • 4 बच्चे पैदा करने वाली माँ को काँसे का
  • 6 बच्चे पैदा करने वाली माँ को चाँदी का
  • 8 या उससे ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाली माँ को सोने का

प्रचार की कला

नात्सियों ने अपने अधिकृत दस्तावेज़ों में हत्या या मौत जैसे शब्दों का इस्तेमाल कभी नहीं किया।

  • सामूहिक हत्याओं को विशेष व्यवहार, अंतिम समाधान (यहूदियों के संदर्भ में), युथनेज़िया (विकलांगों के लिए), चयन और संक्रमण-मुक्ति आदि शब्दों का प्रयोग किया।
  • ‘इवैक्युएशन’ (खाली कराना) का आशय था लोगों को गैस चैंबरों में ले जाना। गैस चैंबरों को ‘संक्रमण मुक्ति-क्षेत्र’ कहा जाता था जो स्नानघर जैसे दिखाई देते थे और उनमें नकली फ़व्वारे भी लगे होते थे।

➡ शासन के लिए समर्थन हासिल करने और नात्सी विचारों को फैलाने के लिए तस्वीरों, फ़िल्मों, रेडियो, पोस्टरों, आकर्षक नारों और इश्तहारी पर्चों का खूब सहारा लिया गया। पोस्टरों में जर्मनों के दुश्मनों का मज़ाक उड़ाया, उन्हें अपमानित किया और उन्हें शैतान के रूप में पेश किया जाता था।

  • समाजवादियों और उदारवादियों को कमज़ोर और पथभ्रष्ट के रूप में प्रस्तुत तथा विदेशी एजेंट कहकर बदनाम किया जाता था।
  • ‘द एटर्नल ज्यू’ (अक्षय यहूदी) जैसी फिल्मों में यहूदियों के प्रति नफ़रत फैलाया जाता था।
  • यहूदियों को दाढ़ी बढ़ाए और काफ़्तान (चोगा) पहने दिखाया जाता था, जबकि वास्तव में जर्मन यहूदियों और बाकी जर्मनों में कोई फ़र्क करना असंभव था।
  • उन्हें केंचुआ, चूहा और कीड़ा जैसे शब्दों से संबोधित और उनकी चाल-ढाल को छछुंदरी जीवों जैसा बताया जाता था।

➡ नात्सीवाद ने लोगों की भावनाओं को भड़का कर उनके गुस्से और नफ़रत को अवांछितों पर केंद्रित कर दिया। पूरे समाज को अपनी तरफ़ आकर्षित करने के लिए उन्होंने लोगों को एहसास कराया कि उनकी समस्याओं का सिर्फ़ नात्सी ही हल कर सकते हैं।

आम जनता और मानवता के खिलाफ़ अपराध

बहुत सारे लोग नात्सी शब्दाडंबर और धुआँधार प्रचार के कारण दुनिया को नात्सी नज़रों से देखने लगे। किसी भी यहूदी को देखने पर अपने भीतर नफ़रत और गुस्से में उन्होंने यहूदियों के घरों के बाहर निशान लगा दिए और जिन पड़ोसियों पर शक था उनके बारे में पुलिस को बता दिया। क्योंकि उन्हें विश्वास था कि नात्सीवाद ही देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाएगा।

  • लेकिन जर्मनी का हर व्यक्ति नात्सी नहीं था। बहुत सारे लोगों ने पुलिस के दमन और मौत के डर के बावजूद नात्सीवाद का जमकर विरोध किया।
  • लेकिन जर्मन आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा कोई विरोधी कदम उठाने, अपना मतभेद व्यक्त करने, नात्सीवाद का विरोध करने से डरते थे।
  • पादरी नीम्योलर ने नात्सियों का लगातार विरोध किया। उन्होंने पाया कि नात्सी साम्राज्य के निर्मम और संगठित ज़ुल्म का जर्मनी की आम जनता विरोध नहीं कर पाती थी।

➡ शार्लट बेराट ने अपनी किताब “थर्ड राइख़ ऑफ़ ड्रीम्स” में बताया है कि एक समय के बाद यहूदी अपने बारे में नात्सियों द्वारा फैलाई जा रही रूढ़ छवियों पर यकीन करने लगे थे। नात्सी प्रेस द्वारा छापी गई यहूदियों की छवियाँ और तस्वीरें दिन-रात व सपनों में यहूदियों का पीछा कर रही थी। बहुत सारे यहूदी गैस चेंबर में पहुँचने से पहले ही दम तोड़ गए।

महाध्वंस (होलोकॉस्ट) के बारे में जानकारियाँ

नात्सियों द्वारा भीषण रक्तपात और बर्बर दमन का अंदाजा जर्मनी के हार जाने के बाद लग पाया। यहूदी दुनिया को उन भीषण अत्याचारों और पीड़ाओं के बारे में बताना चाहते थे जो उन्होंने नात्सी कत्लेआम में झेली थीं। इन्हीं कत्लेआमों को महाध्वंस (होलोकॉस्ट) कहा जाता है।

  • घेटो और कैंपों में नारकीय जीवन भोगने वालों में बहुतों ने डायरियाँ लिखीं, नोटबुक लिखीं और दस्तावेज़ों के संग्रह बनाए।
  • लेकिन नात्सियों की पराजय तय थी इसलिए उन्होंने दफ़्तरों में मौजूद तमाम सबूतों को नष्ट करने के लिए कर्मचारियों को पेट्रोल बाँटना शुरू कर दिया।

दुनिया के बहुत सारे हिस्सों में स्मृति लेखों, साहित्य, वृत्तचित्रों, शायरी, स्मारकों और संग्रहालयों में इस महाधवंश का इतिहास और स्मृति आज भी ज़िंदा है। 

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