Class 9 History Chapter 2 Notes In Hindi

अध्याय 2: यूरोप में समाजवाद एवं रूसी क्रांति

सामाजिक परिवर्तन का युग

फ़्रांसीसी क्रांति के कारण यूरोप में स्वतंत्रता और समानता के विचार फैलते जा रहे थे। फ़्रांसीसी क्रांति ने सामाजिक संरचना के क्षेत्र में आमूल परिवर्तन की संभावनाओं का सूत्रपात्र कर दिया था। भारत में भी राजा राममोहन रॉय और डेरोज़ियो ने फ़्रांसीसी क्रांति के महत्व का उल्लेख किया। उपनिवेशों में घटी घटनाओं ने भी इन विचारों को एक नया रूप दिया। परंतु यूरोप में सभी लोग आमूल समाज परिवर्तन के पक्ष में नहीं थे।

उदारवादी, रैडिकल और रूढ़िवादी

फ़्रांसीसी क्रांति के बाद पैदा हुई राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान सामाजिक परिवर्तन पर केंद्रित कई विचारधाराओं का जन्म हुआ। इन विचारधाराओं के बीच काफ़ी टकराव हुए।

उदारवादी

  • उदारवादी एक ऐसा राष्ट्र चाहते थे जिनमें सभी धर्मों को बराबर का सम्मान और जगह मिले। 
  • वंश-आधारित शासकों की अनियंत्रित सत्ता के विरोधी थे।
  • सरकार के समक्ष व्यक्ति मात्र के अधिकारों की रक्षा के पक्षधर थे।
  • शासकों और अफ़सरों के प्रभाव से मुक्त और सुप्रशिक्षित न्यायपालिका द्वारा स्थापित किए गए कानूनों के अनुसार शासन-कार्य चलाने वाली निर्वाचित सरकार के पक्ष में थे।
  • ये लोग सिर्फ़ वोट का अधिकार संपत्तिधारियों को ही देना चाहते थे।

रैडिकल

  • रैडिकल देश की आबादी के बहुमत के समर्थन पर आधारित सरकार के पक्ष में थी। 
  • इनमें से बहुत सारे लोग महिला मताधिकार आंदोलन के भी समर्थक थे।
  • ये लोग बड़े ज़मींदारों और संपन्न उद्योगपतियों को प्राप्त किसी भी तरह के विशेषाधिकारों के खिलाफ़ थे।
  • वे निजी संपत्ति के विरोधी नहीं थे लेकिन केवल कुछ लोगों के पास संपत्ति के संकेंद्रण का विरोध करते थे।

रूढ़िवादी

  • रूढ़िवादी तबका रैडिकल और उदारवादी, दोनों के खिलाफ़ था।
  • 18वीं सदी में रूढ़िवादी परिवर्तन के विचारों का विरोध करते थे लेकिन 19वीं सदी तक आते-आते वे परिवर्तन को आवश्यक मानने लगे थे।
  • वे चाहते थे कि अतीत का सम्मान करते हुए बदलाव की प्रक्रिया धीरे-धीरे हो। 

औद्योगिक समाज और सामाजिक परिवर्तन

इस दौर में सामाजिक एवं आर्थिक बदलाव हुए। इस समय नए शहर और नए-नए औद्योगिक क्षेत्र विकसित हो रहे थे। रेलवे का काफी विस्तार हो चुका था और औद्योगिक क्रांति संपन्न हो चुकी थी।

  • औद्योगीकरण ने औरतों-आदमियों और बच्चों, सबको कारखानों में ला दिया। इनके काम के घंटे बहुत लंबे और मज़दूरी बहुत कम थी।
  • औद्योगिक वस्तुओं की माँग में गिरावट आने पर बेरोज़गारी और बढ़ गई थी।
  • शहर के तेज़ी से फैलने के कारण आवास और साफ़-सफ़ाई का काम मुश्किल होता जा रहा था।
  • उदारवादी और रैडिकल, इन समस्याओं का हल खोजने की कोशिश कर रहे थे। 
  • लगभग सभी उद्योग व्यक्तिगत स्वामित्व में थे। बहुत सारे रैडिकल और उदारवादियों के पास काफी संपत्ति थीं उनके यहाँ बहुत सारे लोग नौकरी करते थे। 

उनका व्यक्तिगत प्रयास, श्रम और उद्यमशीलता में गहरा विश्वास था। उनकी मान्यता थी कि हरेक व्यक्ति को स्वतंत्रता देने, गरीबों को रोज़गार मिलने, और जिनके पास पूँजी है उन्हें बिना रोक-टोक काम करने देने पर समाज तरक्की कर सकता है। यह जन्मजात मिलने वाले विशेषाधिकारों के विरुद्ध थे। 

यूरोप में 1815 में बनी सरकारों से छुटकारा पाने के लिए कुछ राष्ट्रवादी, उदारवादी और रैडिकल आंदोलनकारी क्रांति के पक्ष में थे। ऐसे लोग फ़्रांस, इटली, जर्मनी और रूस में क्रांतिकारी हो गए और राजाओं के तख्तापलट का प्रयास करने लगे। यह सभी नागरिकों के लिए समान अधिकारों वाले राष्ट्रों की स्थापना करना चाहते थे। 

यूरोप में समाजवाद का आना 

19वीं सदी के मध्य तक यूरोप में समाजवादी विचारों की तरफ़ बहुत सारे लोग आकर्षित हो रहे थे। समाजवादी निजी संपत्ति के विरुद्ध थे। उनका मानना था कि यदि संपत्ति पर पूरे समाज का नियंत्रण हो तो साझा सामाजिक हितों पर अच्छी तरह ध्यान दिया जा सकता है। 

  • इंग्लैंड के रॉबर्ट ओवेन ने इंडियाना (अमेरिका) में नया समन्वय के नाम से एक समुदाय की रचना का प्रयास किया।
  • फ़्रांस में लुई ब्लांक चाहते थे कि सरकार पूँजीवादी उद्यमों की जगह सामूहिक उद्यमों को बढ़ावा दें।

कोऑपरेटिव (सामूहिक उद्यम) ऐसे लोगों के समूह थे जो मिलकर चीज़ें बनाते थे और मुनाफ़े को प्रत्येक सदस्य द्वारा किए गए काम के हिसाब से आपस में बाँट लेते थे।

कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स ने इस दिशा में कई नए तर्क पेश किए।

मार्क्स का विचार था कि जब तक निजी पूँजीपति अपना मुनाफ़ा इकट्ठा करते रहेंगे तब तक मज़दूरों की स्थिति में सुधार नहीं होगा। मज़दूरों को पूँजीवादी पर आधारित शासन को उखाड़ कर एक ऐसा समाज बनाना होगा, जिसमें संपत्ति पर पूरे समाज का नियंत्रण हो। उन्होंने इस समाज को साम्यवादी (कम्युनिस्ट) समाज का नाम दिया। 

समाजवाद के लिए समर्थन

1870 के दशक तक समाजवादी विचार पूरे यूरोप में फैल चुका था। समाजवादियों ने द्वितीय इंटरनैशनल के नाम से एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था बना ली थी।

  • इंग्लैंड और जर्मनी के मज़दूरों ने अपनी जीवन और कार्यस्थितियों में सुधार लाने के लिए संगठन बनाए।
  • इन संगठनों ने संकट के समय अपने सदस्यों को मदद पहुँचाने के लिए कोष स्थापित किए और काम के घंटों में कमी तथा मताधिकार के लिए आवाज़ उठाना शुरू कर दिया।
  • जर्मनी में सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी के साथ इन संगठनों के काफी गहरे रिश्ते थे।
  • 1905 तक ब्रिटेन के समाजवादियों और ट्रेड यूनियन आंदोलनकारियों ने लेबर पार्टी के नाम से अलग पार्टी बनाई। और फ़्रांस में सोशलिस्ट पार्टी के नाम से।

➡ 1914 तक यूरोप में समाजवादी कहीं भी सरकार नहीं बना पाई। लेकिन संसदीय राजनीति में उनके प्रतिनिधि बड़ी संख्या में जीतते रहे, उन्होंने कानून बनवाने में अहम भूमिका निभाई।

रूसी क्रांति

1917 की अक्टूबर क्रांति के ज़रिए रूस की सत्ता पर समाजवादियों ने कब्ज़ा कर लिया। फरवरी 1917 में राजशाही के पतन और अक्टूबर की घटनाओं को ही अक्टूबर क्रांति कहा जाता है।

रूसी साम्राज्य, 1914

1914 में रूस और उसके पूरे साम्राज्य पर ज़ार निकोलस Ⅱ शासन था। मास्को के आसपास का भूक्षेत्र, आज का फ़िनलैंड, लातविया, लिथुआनिया, एस्तोनिया तथा पोलैंड, यूक्रेन व बेलारूस के कुछ हिस्से, मध्य एशियाई राज्यों के साथ-साथ जॉर्जिया, आर्मेनिया व अज़रबैज़ान भी इसी साम्राज्य के अंतर्गत आते थे। यह साम्राज्य प्रशांत महासागर तक फैला हुआ था।

➡ रूस में ग्रीक ऑर्थोडॉक्स चर्च से उपजी शाखा रूसी ऑर्थोडॉक्स क्रिश्चियैनिटी को मानने वाले बहुमत में थे। लेकिन इस साम्राज्य में कैथलिक, प्रोटेस्टेंट, मुस्लिम और बौद्ध भी शामिल थे।

अर्थव्यवस्था और समाज

रूसी साम्राज्य की लगभग 85% जनता आजीविका के लिए खेती पर ही निर्भर थी। लेकिन फ़्रांस और जर्मनी में खेती पर निर्भर आबादी 40-50% से ज़्यादा नहीं थी। किसान अपनी ज़रूरतों के साथ-साथ बाज़ार के लिए भी पैदावार करते थे। रूस अनाज का एक बड़ा निर्यातक था।

  • सेंट पीटर्सबर्ग और मास्को ही प्रमुख औद्योगिक इलाके थे। कारीगरों की वर्कशॉपों के साथ-साथ बड़े-बड़े कल-कारखाने भी मौजूद थे।
  • 1890 के दशक में रूस के रेल नेटवर्क के फैलने पर बहुत सारे कारखाने चालू हुए। 
  • रूसी उद्योगों में विदेशी निवेश बढ़ने लगे। इन कारकों के चलते कुछ ही सालों में रूस के कोयला उत्पादन में दोगुना और स्टील उत्पादन में चार गुना वृद्धि हो गई।

➡ ज़्यादातर कारखाने उद्योगपतियों की निजी संपत्ति थी। मज़दूरों को न्यूनतम वेतन मिले और काम की पाली के घंटे निश्चित रहे, इसलिए सरकारी विभाग बड़ी फ़ैक्ट्रियों पर नज़र रखते थे। फिर भी कारीगरों की इकाइयों और वर्कशॉपों में काम की पाली 15 घंटे और कारखानों में मज़दूर 10-12 घंटे की पाली में काम करते थे। मज़दूरों के रहने के लिए कमरों से लेकर डॉर्मिटरी तक तरह-तरह की व्यवस्था मौजूद थी।

➡ कुछ मज़दूर अपने मूल गाँवों से अभी भी जुड़े हुए थे। लेकिन बहुत सारे मज़दूर स्थायी रूप से शहरों में ही बस चुके थे। उनके बीच योग्यता और दक्षता के स्तर पर भी काफी फ़र्क था।  1914 में फ़ैक्ट्री मज़दूरों में औरतों की संख्या 31% होने पर भी उन्हें पुरुष मज़दूरों के मुकाबले कम वेतन मिलता था।

➡ मज़दूरों के बीच उनके पहनावे और व्यवहार में भी फ़ासला दिखाई देता था।  यद्यपि कुछ मज़दूरों ने बेरोज़गारी या आर्थिक संकट के समय एक-दूसरे की मदद करने के लिए संगठन बना लिए थे लेकिन ऐसे संगठन बहुत कम थे। इन विभेदों के बावजूद, किसी को नौकरी से निकालने या मालिकों से शिकायत होने पर मज़दूर एकजुट होकर हड़ताल भी कर देते थे।

1896-1897 के बीच कपड़ा उद्योग में और 1902 में धातु उद्योग में ऐसी हड़ताले बड़ी संख्या में आयोजित की गई।

  • देहात की ज़्यादातर ज़मीन पर किसान खेती करते थे। लेकिन विशाल संपत्तियों पर सामंतो, राजशाही और ऑर्थोडॉक्स चर्च का कब्ज़ा था।
  • किसान बहुत धार्मिक स्वभाव के थे। इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर वे सामंतों और नवाबों का बिल्कुल सम्मान नहीं करते थे।
  • वे चाहते थे कि नवाबों की ज़मीन छीनकर किसानों के बीच बाँट दी जाए। बहुधा वह लगान भी नहीं चुकाते थे।
  • ज़मींदारों की हत्या की घटनाएँ 1902 में दक्षिणी रूस में बड़े पैमाने पर घटीं। 1905 में तो पूरे रूस में ही ऐसी घटनाएँ घटने लगीं।

यहाँ के किसान समय-समय पर सारी ज़मीन को अपने कम्यून (मीर) को सौंप देते थे और फिर कम्यून ही प्रत्येक परिवार की ज़रूरत के हिसाब से किसानों को ज़मीन बाँटता था।

रूस में समाजवाद

रूस में 1914 से पहले सभी राजनीतिक पार्टियाँ गैरकानूनी थीं। मार्क्स के विचारों को मानने वाले समाजवादियों ने 1898 में रशियन सोशल डेमोक्रैटिक वर्कर्स पार्टी (रूसी सामाजिक लोकतांत्रिक श्रमिक पार्टी) का गठन किया था। उनका एक अखबार निकलता था, उसने मज़दूरों को संगठित किया और हड़ताल आदि कार्यक्रम आयोजित किए।

  • रूसी किसानों का समय-समय पर ज़मीन बाँटते रहने से कुछ रूसी समाजवादियों को लगता था कि वह स्वाभाविक रूप से समाजवादी भावना वाले लोग हैं।
  • 19वीं सदी के आखिर में रूस के ग्रामीण इलाकों में समाजवादी काफी सक्रिय थे। 1900 में उन्होंने सोशलिस्ट रेवलूशनरी पार्टी (समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी) का गठन कर लिया।
  • इस पार्टी ने किसानों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया और माँग की कि सामंतों के कब्ज़े वाली ज़मीन किसानों को सौंपी जाए।
  • किसानों के सवाल पर सामाजिक लोकतंत्रवादी खेमा समाजवादी क्रांतिकारियों से सहमत नहीं था।

➡ लेनिन (बोल्शेविक खेमे के मुखिया) का मानना था कि किसानों में एकजुटता नहीं है; वे बँटे हुए हैं। पार्टी अनुशासित होनी चाहिए तथा अपने सदस्यों की संख्या व स्तर पर उसका पूरा नियंत्रण होना चाहिए। दूसरा खेमा (मेन्शेविक) मानता था कि पार्टी में सभी को सदस्यता दी जानी चाहिए।

उथल-पुथल का समय : 1905 की क्रांति

रूस एक निरकुंश राजशाही था। 20वीं सदी की शुरुआत में भी ज़ार राष्ट्रीय संसद के अधीन नहीं था। उदारवादियों ने 1905 की क्रांति के दौरान संविधान की रचना के लिए सोशल डेमोक्रेट और समाजवादी क्रांतिकारियों को साथ लेकर किसानों और मज़दूरों के बीच काफी काम किया।

उन्हें राष्ट्रवादियों (पोलैंड में) और इस्लाम के आधुनिकीकरण के समर्थक जदीदियों (मुस्लिम-बहुल इलाकों में) का भी समर्थन मिला।

➡ 1904 में ज़रूरी चीज़ों की कीमतें बढ़ने पर वास्तविक वेतन में 20% तक की गिरावट आ गई। 1904 में ही गठित की गई असेंबली ऑफ़ रशियन वर्कर्स (रूसी श्रमिक सभा) के चार सदस्यों को प्युतिलोव आयरन वर्क्स में नौकरी से हटाने पर मज़दूरों ने आंदोलन छेड़ दिया।

  • कुछ दिनों के भीतर सेंट पीटर्सबर्ग के 110,000 से ज़्यादा मज़दूर काम के घंटे घटाकर 8 घंटे किए जाने, वेतन में वृद्धि और कार्यस्थितियों में सुधार की माँग करते हुए हड़ताल पर चले गए।

➡ 1905 की क्रांति की शुरुआत खूनी रविवार से हुई थी। इस दिन जब पादरी गैपॉन के नेतृत्व में मज़दूरों का एक जुलूस विंटर पैलेस (ज़ार का महल) के सामने पहुँचा तो पुलिस और कोसैक्स ने मज़दूरों पर हमला बोल दिया।

  • इस घटना में 100 से ज़्यादा मज़दूर मारे गए और लगभग 300 घायल हुए।
  • सारे देश में हड़ताल होने लगीं। नागरिक स्वतंत्रता के अभाव का विरोध करते हुए विद्यार्थियों ने अपनी कक्षाओं का बहिष्कार किया तो विश्वविद्यालय भी बंद कर दिए गए।
  • वकीलों, डॉक्टरों, इंजीनियरों और अन्य मध्यवर्गीय कामगारों ने संविधान सभा के गठन की माँग करते हुए यूनियन ऑफ़ यूनियंस की स्थापना कर दी।

➡ 1905 की क्रांति के दौरान ज़ार ने एक निर्वाचित परामर्शदाता संसद या ड्यूमा के गठन पर अपनी सहमति दे दी। पहली ड्यूमा को मात्र 75 दिन के भीतर और दूसरी ड्यूमा को 3 महीने के भीतर बर्खास्त कर दिया। तीसरी ड्यूमा में उसने मतदान कानूनों में फेरबदल करके रूढ़िवादी राजनेताओं को भर दिया। 

पहला विश्व युद्ध और रूसी साम्राज्य

पहला विश्वयुद्ध 1914 में दो यूरोपीय गठबंधनों के बीच शुरू हुआ। एक खेमे में जर्मनी, ऑस्ट्रिया और तुर्की (केंद्रीय शक्तियाँ) थे तो दूसरे खेमे में फ़्रांस, ब्रिटेन व रूस (बाद में इटली और रूमानिया भी शामिल हो गए) थे।

  • युद्ध को शुरू-शुरू में रूसियों का काफ़ी समर्थन मिला। लेकिन युद्ध के लंबा खिंचने पर ज़ार ने ड्यूमा में मौजूद मुख्य पार्टियों से सलाह लेना छोड़ दिया। जिस कारण ज़ार के प्रति जनसमर्थन कम होने लगा।
  • जर्मन-विरोधी भावनाओं के कारण लोगों ने सेंट पीटर्सबर्ग (जर्मन नाम) का नाम बदल कर पेत्रोग्राद रख दिया। ज़ारीना (ज़ार की पत्नी-महारानी) अलेक्सांद्रा के जर्मन मूल का होने और उसके घटिया सलाहकारों (खास तौर से रासपुतिन) ने राजशाही को और अलोकप्रिय बना दिया।

➡ पश्चिम में सैनिक पूर्वी फ़्रांस की सीमा पर बनी खाइयों से लड़ाई लड़ रहे थे जबकि पूर्वी मोर्चे पर सेना ने काफ़ी बड़ा फ़ासला तय कर लिया था। इस मोर्चे पर सैनिकों की मौत और सेना की पराजय ने रूसियों का मनोबल तोड़ दिया।

  • 1914 से 1916 के बीच जर्मनी और ऑस्ट्रिया में रूसी सेनाओं की भारी पराजय हुई। 1917 तक 70 लाख लोग मारे जा चुके थे।
  • पीछे हटती रूसी सेनाओं ने रास्ते में पड़ने वाली फ़सलों और इमारतों को भी नष्ट कर डाला ताकि दुश्मन की सेना वहाँ टिक ही न सके।
  • फ़सलों और इमारतों के विनाश से रूस में 30 लाख से ज़्यादा लोग शरणार्थी हो गए।

इस कारण सरकार और ज़ार दोनों आलोकप्रिय हो गए। सिपाही भी अब युद्ध से तंग आ चुके थे।

➡ युद्ध से उद्योगों पर भी बुरा असर पड़ा। बाल्टिक समुंद्र के रास्ते आने वाली विदेशी औद्योगिक सामान, जर्मनी के कब्ज़े के कारण बंद हो गई।

  • रूस के औद्योगिक उपकरण भी ज़्यादा तेजी से बेकार होने लगे। 1916 तक रेलवे लाइनें टूटने लगीं।
  • अच्छी सेहत वाले मर्दों को युद्ध में झोंक दिया गया। देश भर में मज़दूरों की कमी पड़ने पर ज़रूरी सामान बनाने वाली छोटी-छोटी वर्कशॉप्स बंद होने लगीं।
  • ज़्यादातर अनाज सैनिकों के लिए मोर्चे पर भेजा जाने लगा। 1916 की सर्दियों में रोटी की दुकानों पर अकसर दंगे होने लगे।

पेत्रोग्राद में फरवरी क्रांति

नेवा नदी के दाएँ तट पर मज़दूरों के क़्वार्टर और कारखाने थे। बाएँ किनारे पर फैशनेबल इलाके, विंटर पैलेस और सरकारी इमारतें थीं।

फरवरी 1917 में भीषण कोहरा और बर्फ़बारी के कारण मज़दूरों के इलाकों में खाद्य पदार्थों की भारी कमी हो गई थी। निर्वाचित सरकार को बचाने के लिए संसदीय प्रतिनिधि ज़ार द्वारा ड्यूमा को भंग करने की कोशिशों का विरोध कर रहे थे।

  • 22 फरवरी को दाएँ तट पर स्थित एक फ़ैक्ट्री में तालाबंदी घोषित करने पर, अगले दिन मज़दूरों के समर्थन में 50 फ़ैक्ट्रियों के मज़दूरों ने भी हड़ताल का एलान कर दिया।
  • बहुत सारे कारखानों में हड़ताल का नेतृत्व औरतें कर रही थीं। फ़ैशनेबल रिहायशी इलाकों और सरकारी इमारतों को मज़दूरों द्वारा घेरे जाने पर सरकार ने कर्फ़्यू लगा दिया।
  • लेकिन 24 और 25 तारीख को उनके फिर इकट्ठा होने पर, सरकार ने उन पर नज़र रखने के लिए घुड़सवार सैनिकों और पुलिस को तैनात कर दिया।
  • रविवार, 25 फरवरी को सरकार ने ड्यूमा को बर्खास्त कर दिया।
  • 26 तारीख को प्रदर्शनकारी बहुत बड़ी संख्या में बाएँ तक के इलाके में इकट्ठा हो गए।
  • 27 को उन्होंने पुलिस मुख्यालयों पर हमला करके उन्हें तहस-नहस कर दिया।

रोटी, तनख्वाह, काम के घंटों में कमी और लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में नारे लगाते लोगों के सड़कों पर जमा होने पर सरकार ने एक बार फिर घुड़सवार सैनिकों को तैनात कर दिया। लेकिन उन्होंने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से मना कर लिया।

गुस्साए सिपाहियों ने एक रेजीमेंट की बैरक में अपने ही एक अफ़सर पर गोली चला दी। तीन दूसरी रेज़ीमेंटों ने भी बगावत कर दी और हड़ताली मज़दूरों के साथ आ मिले। उस शाम को सिपाही और मज़दूरों ने मिलकर एक सोवियत या परिषद का गठन किया। यहीं से पेत्रोग्राद सोवियत का जन्म हुआ।

➡ अगले दिन एक प्रतिनिधिमंडल ज़ार से मिलने गया। सैनिक कमांडरों की सलाह से ज़ार ने 2 मार्च को राजगद्दी छोड़ दी। सोवियत और ड्यूमा के नेताओं ने देश का शासन चलाने के लिए एक अंतरिम सरकार बना ली। अब रूस के भविष्य की ज़िम्मेदारी संविधान सभा की होगी और उसका चुनाव सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होगा।

फरवरी के बाद

अंतरिम सरकार में सैनिक अधिकारी, भूस्वामी और उद्योगपति प्रभावशाली थे। उनमें उदारवादी और समाजवादी जल्द से जल्द निर्वाचित सरकार का गठन चाहते थे। जन सभा करने और संगठन बनाने पर लगी पाबंदी हटा ली गई। पेत्रोग्राद सोवियत की तर्ज़ पर सब जगह सोवियतें बना ली गईं। 

➡ अप्रैल 1917 में व्लादिमीर लेनिन ने (जिनके नेतृत्व में बोल्शेविक 1914 से ही युद्ध का विरोध कर रहे थे) रूस लौट कर तीन माँगों को रखा जिसे “अप्रैल थीसिस” कहते है। 

  1. युद्ध समाप्त किया जाए। 
  2. सारी ज़मीन किसानों के हवाले की जाए।
  3. बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाए।

उनका कहना था कि अब सोवियतों को सत्ता अपने हाथों में ले लेनी चाहिए। और अपने रैडिकल उद्देश्यों को स्पष्ट करने के लिए बोल्शेविक पार्टी का नाम कम्युनिस्ट पार्टी रख दिया जाए। कुछ लोगों ने फ़िलहाल अंतरिम सरकार के समर्थन का कहा, लेकिन अगले कुछ महीनों की घटनाओं ने उनकी सोच बदल दी। 

  • औद्योगिक इलाकों में फ़ैक्ट्री कमेटियाँ बनाई गईं। इन कमेटियों के माध्यम से मज़दूर फ़ैक्ट्री चलाने के मालिकों के तौर-तरीकों पर सवाल करने लगे।
  • ट्रेड यूनियनों की तादाद बढ़ने लगी। सेना में सिपाहियों की समितियाँ बनने लगीं।
  • जून में लगभग 500 सोवियतों ने अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस में अपने प्रतिनिधि भेजें।
  • अंतरिम सरकार की ताकत कमज़ोर होने पर बोल्शेविकों का प्रभाव बढ़ने लगा।
  • सरकार ने मज़दूरों द्वारा फ़ैक्ट्रियाँ चलाने की कोशिशों को रोकना और उनके नेताओं को गिरफ़्तार करना शुरू कर दिया।
  • जुलाई 1917 में बोल्शेविक के विशाल प्रदर्शनों का भारी दमन किया गया। इनके नेताओं को छिपना या भागना पड़ा। 
  • गाँवों में किसान और उनके समाजवादी क्रांतिकारी नेताओं ने भूमि पुनर्वितरण के लिए भूमि समितियाँ बनाई। जुलाई से सितंबर के बीच किसानों ने बहुत सारी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया। 

अक्टूबर 1917 की क्रांति

अंतरिम सरकार और बोल्शेविकों के बीच टकराव बढ़ने पर, सितंबर में लेनिन ने सरकार के खिलाफ विद्रोह के लिए सेना और फ़ैक्ट्री सोवियतों में मौजूद बोल्शेविकों को इकट्ठा किया। 16 अक्टूबर 1917 को लेनिन ने पेत्रोग्राद सोवियत और बोल्शेविक पार्टी को सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए राजी कर लियॉन ट्रॉटस्की के नेतृत्व में एक सैनिक क्रांतिकारी समिति का गठन किया। 

  • 24 अक्टूबर को विद्रोह शुरू हो गया। प्रधानमंत्री केरेंस्की सैनिक टुकड़ियों को इकट्ठा करने गए। तड़के ही सरकार के वफ़ादार सैनिकों ने दो बोल्शेविक अखबारों के दफ़्तरों को घेर लिया।
  • टेलीफ़ोन और टेलीग्राफ़ दफ़्तरों पर नियंत्रण प्राप्त करने और विंटर पैलेस की रक्षा करने के लिए सरकार समर्थक सैनिकों को भेजा गया।
  • क्रांतिकारी समिति ने भी अपने समर्थकों को आदेश दे दिया कि सरकारी कार्यालयों पर कब्ज़ा कर मंत्रियों को गिरफ़्तार कर लें।
  • उसी दिन ऑरोरा नामक युद्धपोत ने विंटर पैलेस पर बमबारी  शुरू कर दी। अन्य युद्धपोतों ने नेवा के रास्ते से आगे बढ़ते हुए विभिन्न सैनिक ठिकानों को अपने नियंत्रण में ले लिया।

शाम तक पूरा शहर क्रांतिकारी समिति के नियंत्रण में आ चुका था और मंत्रियों ने आत्मसमर्पण कर दिया था। दिसंबर तक मास्को-पेत्रोग्राद इलाके पर बोल्शेविकों का नियंत्रण स्थापित हो चुका था। 

अक्टूबर के बाद क्या बदला?

  1. बोल्शेविक निजी संपत्ति की व्यवस्था के पूरी तरह खिलाफ थे। ज़्यादातर उद्योगों और बैंकों का नवंबर 1917 में ही राष्ट्रीयकरण किया जा चुका था।
  2. ज़मीन को सामाजिक संपत्ति घोषित कर दिया गया। किसानों को सामंतों की ज़मीनों पर कब्ज़ा करने की खुली छूट दे दी गई।
  3. शहरों में बोल्शेविकों  ने मकान-मालिकों के लिए पर्याप्त हिस्सा छोड़कर उनके बड़े मकानों  के छोटे-छोटे हिस्से कर दिए ताकि बेघरबार या ज़रूरतमंद लोगों को भी रहने की जगह दी जा सके।
  4. अभिजात्य वर्ग द्वारा पुरानी पदवियों के इस्तेमाल पर रोक लगा दी। सेना और सरकारी अफ़सरों की वर्दियाँ बदल दी गई। 1918 के परिधान प्रतियोगिता में सोवियत टोपी (बुदियोनोव्का) का चुनाव किया गया। 
  5. बोल्शेविक पार्टी का नाम बदल कर रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) रख दिया गया।  नवंबर 1917 में बोल्शेविकों द्वारा संविधान सभा के लिए कराए गए चुनावों में उन्हें बहुमत नहीं मिल पाया।
  6. जनवरी 1918 में असेंबली द्वारा बोल्शेविकों के प्रस्तावों को खारिज करने पर लेनिन ने  असेंबली बर्खास्त कर दी।
  7. मार्च 1918 में अन्य राजनीतिक सहयोगियों की असहमति के बावजूद बोल्शेविकों ने ब्रेस्ट लिटोव्स्क में जर्मनी से संधि कर ली।
  8. आने वाले सालों में बोल्शेविक पार्टी अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस (देश की संसद का दर्जा मिला) के लिए होने वाले चुनावों  में हिस्सा लेने वाली एकमात्र पार्टी रह गई।
  9. रूस एक-दलीय राजनीतिक व्यवस्था वाला देश बन गया। ट्रेड यूनियनों पर पार्टी का नियंत्रण रहता था।
  10. गुप्तचर पुलिस (जिसे पहले चेका और बाद में ओजीपीयू तथा एनकेवीडी का नाम दिया गया) बोल्शेविकों की आलोचना करने वालों को दंडित करती थी।
  11. बहुत सारे युवा लेखक और कलाकार भी पार्टी की तरफ़ आकर्षित हुए क्योंकि वह समाजवाद और परिवर्तन के प्रति समर्पित थी।
  12. अक्टूबर 1917 के बाद ऐसे कलाकारों और लेखकों ने कला और वास्तुशिल्प के क्षेत्र में नए प्रयोग शुरू किए। लेकिन पार्टी द्वारा सेंसरशिप के कारण बहुत सारे लोगों का पार्टी से मोह भंग भी  होने लगा था। 

गृह युद्ध

ज़मीन के पुनर्वितरण के आदेश पर रूसी सेना टूटने लगी। क्योंकि ज़्यादातर सिपाही किसान थे। वे भूमि पुनर्वितरण के लिए घर लौटना चाहते थे। गैर-बोल्शेविक समाजवादियों, उदारवादियों और राजशाही के समर्थकों ने बोल्शेविकों (रेड्स) खिलाफ़ दक्षिणी रूस में टुकड़ियाँ संगठित करने लगे। 

1918 और 1919 में रूसी साम्राज्य के ज़्यादातर हिस्सों पर सामाजिक क्रांतिकारियों (ग्रीन्स) और ज़ार-समर्थकों (व्हाइट्स) का ही नियंत्रण रहा। उन्हें फ़्रांसीसी, अमेरिकी, ब्रिटेन और जापानी टुकड़ियों का भी समर्थन मिल रहा था। इन टुकड़ियों और बोल्शेविकों के बीच चले गृह युद्ध के दौरान लूटमार, डकैती और भुखमरी जैसी समस्याएँ बड़े पैमाने पर फैल गई थी। 

➡ व्हाइट्स में निजी संपत्ति के हिमायतियों ने ज़मीन पर कब्ज़ा करने वाले किसानों के खिलाफ़ सख्त रवैया अपनाने के कारण गैर-बोल्शेविकों के प्रति जनसमर्थन घटने लगा। जनवरी 1920 तक भूतपूर्व रूसी साम्राज्य के ज़्यादातर हिस्सों पर गैर-रूसी राष्ट्रवादियों और मुस्लिम जदीदियों की मदद से बोल्शेविकों का नियंत्रण हो चुका था। 

➡ खीवा (मध्य एशिया) में बोल्शेविक उपनिवेशकों ने समाजवाद की रक्षा के नाम पर स्थानीय राष्ट्रवादियों का बड़े पैमाने पर कत्लेआम किया। इस कारण बहुत सारे लोगों को बोल्शेविक सरकार की मंशा समझ नहीं आ रही थी। 

इस समस्या से निपटने के लिए ज़्यादातर गैर-रूसी राष्ट्रीयताओं को सोवियत संघ के अंतर्गत राजनीतिक स्वायत्तता दे दी गई। लेकिन बोल्शेविकों की स्थानीय सरकारों की अलोकप्रियता के कारण विभिन्न राष्ट्रीयताओं का विश्वास जीतना कठिन था। 

समाजवादी समाज का निर्माण

गृह युद्ध के दौरान बोल्शेविकों ने उद्योगों और बैंकों के राष्ट्रीयकरण को जारी रखा।  समाजीकरण की गई ज़मीन पर खेती की छूट दे दी गई। सामूहिकता दिखाने के लिए बोल्शेविकों ने ज़ब्त किए गए खेतों का इस्तेमाल किया। 

➡ शासन के लिए केंद्रीकृत नियोजन की व्यवस्था लागू की गई। अफ़सरों ने अर्थव्यवस्था के लिए पंचवर्षीय (पाँच साल) योजनाएँ बनानी शुरू की। पहली दो योजनाओं (1927-1932 और 1933-1938) के दौरान औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने सभी तरह की कीमतें स्थिर कर दीं।

➡ केंद्रीकृत नियोजन से आर्थिक विकास को काफी गति मिली। 1929 से 1933 के बीच तेल, कोयले और स्टील के उत्पादन में 100% वृद्धि हुई। नए-नए औद्योगिक शहर अस्तित्व में आए।

  • मगर, तेज निर्माण कार्यों के दबाव में कार्यस्थितियाँ खराब होने लगीं।
  • मैग्नीटोगोसर्क शहर में एक स्टील संयंत्र का निर्माण 3 साल के भीतर पूरा कर लिया गया।
  • इस दौरान मज़दूरों को बड़ी सख्त ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ी और पहले ही साल में 550 बार काम रुका। 

➡ एक विस्तारित शिक्षा व्यवस्था विकसित की गई और फ़ैक्ट्री कामगारों एवं किसानों को विश्वविद्यालयों में दाखिला दिलाने के लिए खास इंतजाम किए गए।

  • महिला कामगारों के लिए बच्चों के लिए फ़ैक्ट्रियों में बालवाड़ियाँ खोल दी गईं।
  • सस्ती स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराई गई।
  • मजदूरों के लिए आदर्श रिहायशी मकान बनाए गए।

लेकिन इन सारी कोशिशों के नतीजे सभी जगह एक जैसे नहीं रहे क्योंकि सरकारी संसाधन सीमित थे। 

स्तालिनवाद और सामूहिकीकरण

1927-1928 के आसपास रूस के शहरों में अनाज का संकट पैदा होने का कारण सरकार द्वारा अनाज की कीमत तय करना था। लेकिन किसान तय कीमत पर अनाज बेचने को तैयार नहीं थे। 

  • लेनिन के बाद पार्टी की कमान संभाल रहे स्तालिन ने स्थिति पर काबू पाने के लिए सट्टेबाज़ी पर अंकुश लगाना और व्यापारियों के पास जमा अनाज को जब्त करना शुरू कर दिया।
  • 1928 में पार्टी के सदस्यों ने अनाज उत्पादक इलाकों का दौरा कर किसानों से जबरन अनाज खरीदा और कुलकों (रूस में संपन्न किसानों को कुलक कहा जाता था) के ठिकानों पर छापे मारे।
  • इसके बाद भी अनाजों की कमी होने पर खेतों के सामूहिकीकारण का फ़ैसला लिया गया।
  • 1929 से पार्टी ने सभी किसानों को सामूहिक खेतों (कोलखोज) में काम करने का आदेश जारी कर दिया।
  • ज़्यादातर ज़मीन और साज़ो-सामान सामूहिक खेतों के स्वामित्व में सौंप दिए गए।
  • सभी किसान सामूहिक खेतों पर काम कर मुनाफ़े को सभी किसानों के बीच बाँट दिया जाता था।

इस फ़ैसले से गुस्साए किसानों ने सरकार का विरोध किया और वे अपने जानवरों को खत्म करने लगे। 1929 से 1931 के बीच मवेशियों की संख्या में एक-तिहाई कमी आ गई। सामूहिकीकरण का विरोध करने वालों को सख्त सज़ा दी जाती थी। बहुत सारे लोगों को देश से निकाल दिया गया।

  • स्तालिन सरकार ने सीमित स्तर पर स्वतंत्र किसानी की व्यवस्था भी जारी रहने दी लेकिन ऐसे किसानों को कोई खास मदद नहीं दी जाती थी।
  • सामूहिकीकारण के बावजूद 1930-1933 की खराब फ़सल के कारण सबसे बड़ा अकाल पड़ा जिसमें 40 लाख से ज्यादा लोग मारे गए।

➡ पार्टी में भी बहुत सारे नियोजित अर्थव्यवस्था के अंतर्गत औद्योगिक उत्पादन में पैदा हो रहे भ्रम और सामूहिकीकरण के परिणामों की आलोचना करने लगे थे। स्तालिन और उनके सहयोगियों ने ऐसे आलोचकों पर समाजवाद के खिलाफ़ साजिश रचने का आरोप लगाया।  1939 तक आते-आते 20 लाख से ज़्यादा लोगों को या तो जेल में या श्रम शिविरों में भेज दिया गया था। 

रूसी क्रांति और सोवियत संघ का वैश्विक प्रभाव 

यूरोप की समाजवादी पार्टियाँ बोल्शेविकों के सत्ता पर कब्ज़े और उनके शासन से सहमत नहीं थीं। लेकिन बोल्शेविकों ने मेहनतकशों के राज्य की स्थापना की संभावना बनाई और उपनिवेशों की जनता को भी उनके रास्ते का अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित किया। 

➡ इंग्लैंड में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन की स्थापना की गई। सोवियत संघ के अलावा भी बहुत सारे देशों के प्रतिनिधियों ने कॉन्फ़्रेस ऑफ़ द पीपुल ऑफ़ दि ईस्ट (1920) और बोल्शेविकों द्वारा बनाए गए कॉमिन्टर्न (बोल्शेविक समर्थक समाजवादी पार्टियों का अंतर्राष्ट्रीय महासंघ) में हिस्सा लिया था। कुछ विदेशियों को सोवियत संघ की कम्युनिस्ट यूनिवर्सिटी ऑफ़ द वर्कर्स ऑफ़ दि ईस्ट में शिक्षा दी गई। 

  • दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होने पर सोवियत संघ की वजह से समाजवाद को एक वैश्विक पहचान और हैसियत मिल चुकी थी।
  • लेकिन 50 के दशक तक लोगों को समझ आया कि सोवियत संघ की शासन शैली रूसी क्रांति के आदर्शों के अनुरूप नहीं है।
  • एक पिछड़ा हुआ देश महाशक्ति बन चुका था। उसके उद्योग और खेती विकसित हो चुके थे और गरीबों को भोजन मिल रहा था।
  • लेकिन वहाँ के नागरिकों की आवश्यक स्वतंत्रता नहीं दी गई थी और विकास परियोजनाओं को दमनकारी नीतियों के बल पर लागू किया गया था।

➡ 20वीं सदी के अंत तक एक समाजवादी देश के रूप में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोवियत संघ की प्रतिष्ठा काफी कम रह गई थी। हालाँकि वहाँ के लोग अभी भी समाजवाद के आदर्शों का सम्मान करते थे। लेकिन सभी देशों में समाजवाद के बारे में विविध प्रकार से व्यापक पुनर्विचार किया गया। 

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