अध्याय 8: अठारहवीं शताब्दी में नए राजनीतिक गठन
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Toggle18वीं सदी के पूर्वार्द्ध में कई स्वतंत्र राज्यों के उदय से मुग़ल साम्राज्य की सीमाएँ बदल गई। 1765 तक ब्रिटिश सत्ता ने पूर्वी भारत के बड़े-बड़े हिस्सों को हड़प लिया। 18वीं सदी के पूर्वार्द्ध (मोटे तौर पर 1707 औरंगजेब की मृत्यु से 1761 पानीपत की तीसरी लड़ाई तक) के दौरान उपमहाद्वीप में नई राजनीतिक शक्तियों का उदय हुआ।
मुग़ल साम्राज्य और परवर्ती मुग़लों के लिए संकट की स्थिति
17वीं सदी के अंतिम वर्षों में मुग़ल साम्राज्य का अनेक कारणों से पतन हुआ:-
- औरंगजेब ने दक्कन में 1679 से लंबी लड़ाई लड़ते हुए साम्राज्य के सैन्य और वित्तीय संसाधनों को बहुत अधिक खर्च कर दिया था।
- औरंगज़ेब के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में साम्राज्य की प्रशासन की कार्य-कुशलता समाप्त होने के कारण मनसबदारों को वश में रखना केंद्रीय सत्ता के लिए कठिन हो गया।
- अभिजातो (सूबेदारों के रूप में) का नियंत्रण राजस्व और सैन्य प्रशासन (दीवानी एवं फ़ौजदारी) दोनों कार्यालयों पर होने से मुग़ल साम्राज्य के विशाल क्षेत्रों पर उन्हें राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य शक्तियाँ मिल गई थीं। इस कारण राजधानी में पहुँचने वाले राजस्व की मात्रा में कमी आती गई।
- बढ़े हुए करों के विरुद्ध और शक्तिशाली सरदारों के द्वारा अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने की कोशिश में उत्तरी तथा पश्चिमी भारत के अनेक हिस्सों में ज़मींदारों और किसानों द्वारा विद्रोह किए गए।
- राजनैतिक व आर्थिक सत्ता धीरे-धीरे प्रांतीय सूबेदारों, स्थानीय सरदारों व अन्य समूहों के हाथों में जा रही थी, परंतु औरंगज़ेब के उत्तराधिकारी इस बदलाव को रोकने में असमर्थ थे।
- इसी बीच ईरान के शासक नादिरशाह ने 1739 में दिल्ली पर आक्रमण किया और संपूर्ण नगर को लूट कर वह बड़ी मात्रा में धन-दौलत ले गया।
- 1748 से 1761 के बीच अफ़गान शासन अहमदशाह अब्दाली ने उत्तरी भारत पर पाँच बार आक्रमण किया और लूटपाट मचाई।
- अभिजातों (ईरानी और तूरानी (तुर्क मूल के) के विभिन्न समूहों की पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता ने साम्राज्य को और भी कमज़ोर बना डाला। काफ़ी समय तक परवर्त्ती मुग़ल बादशाह इनमें से एक या दूसरे समूह के हाथों की कठपुतली बने रहे।
- फर्रुख़सियर (1713-1719) एवं आलमगीर द्वितीय (1754-1759) की हत्या हो गई और अहमदशाह (1748-1754) एवं शाह आलम द्वितीय (1759-1816) को उनके अभिजातों ने अंधा कर दिया।
- मुग़ल सम्राटों की सत्ता के पतन के साथ-साथ बड़े प्रांतों के सूबेदारों और बड़े ज़मींदारों ने उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में अपनी शक्ति और प्रबल बना ली, जैसे अवध, बंगाल और हैदराबाद।
राजपूत
18वीं सदी में अम्बर और जोधपुर के शासकों ने अपने आस-पास के इलाकों पर अपने नियंत्रण का विस्तार करने की कोशिश में जोधपुर के राजा अजीत सिंह को गुजरात की सूबेदारी और अम्बर के सवाई राजा जयसिंह को मालवा की सूबेदारी मिल गई।
➡ 1713 में बादशाह जहांदार शाह ने इन राजाओं के इन पदों का नवीकरण कर दिया। अपने वतनों के पास-पड़ौस के शाही इलाकों के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा करने की कोशिश में जोधपुर राजघराने ने नागौर को जीत लिया और अपने राज्य में मिला लिया।
➡ दूसरी ओर अम्बर ने भी बूंदी के बड़े-बड़े हिस्सों पर अपना कब्ज़ा कर दिया। सवाई राजा जयसिंह ने जयपुर में अपनी नई राजधानी स्थापित की और उसे 1722 में आगरा की सूबेदारी दे दी गई।
1740 के दशक से राजस्थान में मराठों के अभियानों ने इन रजवाड़ों पर भारी दबाव डालना शुरू कर दिया, जिससे उनका अपना विस्तार आगे होने से रुक गया।
सिक्ख
17वीं सदी के दौरान सिक्ख के राजनैतिक समुदाय बनने से पंजाब के क्षेत्रीय राज्य-निर्माण को बढ़ावा मिला। 1699 में गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना से पहले और उसके बाद राजपूत व मुग़ल शासकों के खिलाफ़ कई लड़ाइयाँ लड़ीं।
➡ 1708 में गुरु गोबिंद सिंह की मृत्यु के बाद बंदा बहादुर के नेतृत्व में ‘खालसा’ ने मुग़ल सत्ता के खिलाफ़ विद्रोह किया। उन्होंने बाबा गुरु नानक और गुरु गोबिंद सिंह के नामों वाले सिक्के गढ़कर अपने शासन को सार्वभौम बताया।
- सतलुज और यमुना नदियों के बीच के क्षेत्र में उन्होंने अपने प्रशासन की स्थापना की।
- 1715 में बंदा बहादुर को बंदी बना लिया गया और उसे 1716 में मार दिया गया।
➡ 18वीं सदी में कई योग्य नेताओं के नेतृत्व में सिक्खों ने अपने-आपको पहले ‘जत्थों’ में, और बाद में ‘मिस्लों‘ में संगठित किया। इन जत्थों और मिस्लों की संयुक्त सेनाएँ ‘दल खालसा’ कहलाती थीं।
- उन दिनों दल खालसा, बैसाखी और दीवाली की पर्वों पर अमृतसर में मिलता था।
- इन बैठकों में वे सामूहिक निर्णय लिए जाते थे, जिन्हें गुरमत्ता (गुरु के प्रस्ताव) कहा जाता था।
- सिक्खों ने राखी व्यवस्था स्थापित की, जिसके अंतर्गत संरक्षण प्रदान करने के बदले में किसानों से उनकी उपज का 20% कर के रूप में लिया जाता था।
➡ गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा को प्रेरित किया था कि शासन उनके भाग्य में है (राज करेगा खालसा)। अपने सुनियोजित संगठन के कारण खालसा, पहले मुग़ल सूबेदारों के खिलाफ़ और फिर अहमदशाह अब्दाली के खिलाफ़ सफल विरोध प्रकट कर सका।
- 1765 में खालसा ने अपना सिक्का गढ़कर सार्वभौम शासन की घोषणा की। सिक्को पर बंदा बहादुर के समय के खालसा के आदेश पाए जाते हैं।
18वीं सदी के अंतिम भाग में सिक्ख इलाके सिंधु से यमुना तक फैले हुए थे, जो विभिन्न शासकों में बँटे हुए थे। 1799 में महाराजा रणजीत सिंह ने विभिन्न सिक्ख समूहों में फिर से एकता कायम करके लाहौर को अपनी राजधानी बनाई।
मराठा
प्रमुख मराठा राज्यकर्ता
- छत्रपति शिवाजी महाराज (1630-1680)
- छत्रपति संभाजी महाराज (1681-1689)
- छत्रपति राजाराम महाराज (1689-1700)
- महाराणी ताराबाई (1700-1761)
- साहू महाराज (1682-1749)
➡ मुग़ल शासन का लगातार विरोध करके मराठा एक शक्तिशाली क्षेत्रीय राज्य के रूप में उत्पन्न हुआ था। छत्रपति शिवाजी महाराज (1630-1680) ने शक्तिशाली योद्धा परिवारों (देशमुखों) की सहायता से एक स्थायी राज्य की स्थापना की।
- अत्यंत गतिशील कृषक-पशुचारकों (कुनबी) का प्रयोग शिवाजी ने सैन्य-बल के रूप में प्रायद्वीप में मुग़लों को चुनौती देने के लिए किया।
- शिवाजी की मृत्यु के बाद, मराठा राज्य चितपावन ब्राह्मणों के एक परिवार के हाथ में रही।
- जो शिवजी के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में ‘पेशवा’ (प्रधानमंत्री) के रूप में अपनी सेवाएँ देते रहे। पुणे मराठा राज्य की राजधानी बन गया।
➡ पेशवाओं की देखरेख में मराठों ने अत्यंत सफल सैन्य संगठन का विकास कर लिया। इसका कारण यह था कि वे मुग़लों के किलाबंद इलाकों से टक्कर न लेते हुए, शहरों-कस्बों पर हमला बोलते थे और मुग़ल सेना से ऐसे मैदानी इलाकों में मुठभेड़ लेते थे; जहाँ रसद पाने और कुमक आने के रास्ते आसानी से रोके जा सकते थे।
1720 से 1761 के बीच, मराठा साम्राज्य का काफ़ी विस्तार हुआ। 1720 के दशक तक मालवा और गुजरात मुग़लों से छीन लिए गए। 1730 के दशक तक, मराठा नरेश को समस्त दक्कन प्रायद्वीप के अधिपति के रूप में मान्यता मिल गई।
- इस क्षेत्र पर चौथ (ज़मींदारों द्वारा वसूले जाने वाले भू-राजस्व का 25% । दक्कन में इनको मराठा वसूलते थे।) और सरदेशमुखी (दक्कन में मुख्य राजस्व संग्रहकर्त्ता को दिए जाने वाले भू-राजस्व का 9-10% ।) कर वसूलने का अधिकार भी मिल गया।
➡ 1737 में दिल्ली पर धावा बोलने के बाद मराठा प्रभुत्व की सीमाएँ तेज़ी से बढ़ीं। वे उत्तर में राजस्थान और पंजाब, पूर्व में बंगाल और उड़ीसा तथा दक्षिण में कर्नाटक और तमिल एवं तेलुगु प्रदेशों तक फैल गए।
- इन क्षेत्रों को औपचारिक रूप से मराठा साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया गया, मगर उनसे भेंट की रकम ली जाने लगी।
- साम्राज्य के इस विस्तार से उन्हें संसाधनों का भंडार तो मिल गया, मगर अन्य शासक उनके खिलाफ़ हो गए।
परिणामस्वरुप मराठों को 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में अन्य शासकों से कोई सहायता नहीं मिली।
➡ अंतहीन सैन्य अभियानों के साथ-साथ मराठों ने एक प्रभावी प्रशासन व्यवस्था तैयार की।
- किसी इलाके पर विजय अभियान पूरा होने के बाद वहाँ स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए धीरे-धीरे भू-राजस्व की माँग की गई।
- कृषि को प्रोत्साहित किया गया और व्यापार को पुनर्जीवित किया गया। इससे सिंधिया, गायकवाड़ और भोंसले जैसे मराठा सरदारों को शक्तिशाली सेनाएँ खड़ी करने के लिए संसाधन मिल सके।
- 1720 के दशक में मालवा में मराठा अभियानों ने उस क्षेत्र के शहरों के विकास व समृद्धि को कोई हानि नहीं पहुँचाई।
- उज्जैन सिंधिया के संरक्षण में और इंदौर होल्कर के आश्रय में फलता-फूलता रहा। ये शहर हर तरह से बड़े और समृद्धिशाली थे और वे महत्वपूर्ण वाणिज्यिक और सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में कार्य कर रहे थे।
- मराठों द्वारा नियंत्रित इलाकों में व्यापार के नए मार्ग खुले। चंदेरी के क्षेत्र में उत्पादित रेशमी वस्त्रों को मराठों की राजधानी पुणे में नया बाज़ार मिला।
- बुरहानपुर का वाणिज्यिक आगरा और सूरत से बढ़कर दक्षिण में पुणे और नागपुर तथा पूर्व में लखनऊ तथा इलाहाबाद तक फैल गया था।
जाट
17वीं और 18वीं सदी में जाटों ने अपनी सत्ता सुदृढ़ की। अपने नेता चूड़ामन के नेतृत्व में उन्होंने दिल्ली के पश्चिम में स्थित क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण कर लिया। 1680 के दशक तक उनका प्रभुत्व दिल्ली और आगरा के दो शाही शहरों के बीच के क्षेत्र पर होना शुरू हो गया।
- जाट, समृद्ध कृषक थे और उनके प्रभुत्व क्षेत्र में पानीपत तथा बल्लभगढ़ जैसे शहर महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गए।
- सूरजमल के राज में भरतपुर शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा। 1739 में जब नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला करके उसे लूटा, तो दिल्ली के कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भरतपुर में शरण ली।
➡ नादिरशाह के पुत्र जवाहिरशाह के पास 30 हज़ार सैनिक थे। उसने 20 हज़ार अन्य सैनिक मराठाओं से लिए, 15 हज़ार सैनिक सिक्खों से लिए और इन सबके बलबूते पर वह मुग़लों से लड़ा।
➡ जहाँ भरतपुर का किला काफ़ी हद तक पारंपरिक शैली में बनाया गया, वहीं दीग में जाटों ने अम्बर और आगरा की शैलियों का समन्वय करते हुए एक विशाल बाग-महल बनवाया। शाही वास्तुकला से जिन रूपों को पहली बार शाहजहाँ के युग में जोड़ा गया था, दीग की इमारतें उन्हीं रूपों के नमूने पर बनाई गई थीं।
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